कहानियाँ

किट्टू की समझदारी

लेखक - अर्चित श्रीवास्तव, कक्षा छटवीं, रिसाली, भिलाई

एक समय की बात है,एक गाँव में एक किसान रहता था. किसान के पास दो बकरे थे. एक बकरे का नाम किट्टू था और दूसरे का नाम दीपू था. किट्टू था तो बहुत समझदार पर उसकी उम्र ज्यादा हो गयी थी और वह अब थोड़ा कमजोर भी हो गया था इसीलिए दीपू अपने दोस्तों के साथ मिलकर किट्टू का मजाक उड़ाया करता 'अरे देखो यह किट्टू तो बूढ़ा हो गया है. यह हमसे तेज नहीं दौड़ सकता है हा हा हा हा !' दीपू के दोस्त भी किट्टू का मज़ाक उड़ाने में दीपू का साथ देते थे. दीपू इसी तरह रोज किट्टू को चिढ़ाया करता था और किट्टू के साथ न रहकर अपने दोस्तों के साथ हीं ज्यादातर समय बिताता था.

दीपू भी बहुत डर गया और सहायता के लिए जोर जोर से चिल्लाने लगा. 'बचाओ बचाओ' की आवाज जब किट्टू ने सुनी तब उसे लगा कि यह तो दीपू की आवाज है. किट्टू ने समझदारी से काम लिया और सावधानी से आवाज़ की तरफ़ गया छिप कर देखने पर किट्टू की समझ में सारा मामला आ गया.

अब किट्टू ने सोचा कि वह अकेला तो दीपू को शिकारियों से नहीं बचा सकता इसलिए मदद के लिए किट्टू गाँव की ओर जाने लगा पर उसे लग रहा था कि जब तक वह गाँव जाकर वापस आएगा तब तक कहीं बहुत देर न हो जाए. तभी उसे जंगल में एक हाथी दिखाई दिय़ा. उसने सोचा, कि क्यों ना हाथी को मदद के लिए बुलाया जाए? किट्टू जल्दी से दौड़कर हाथी के पास गया, हाथी को सारी बात बताई और उस से सहायता मांगी. हाथी मदद करने को तैयार हो गया. किट्टू, हाथी को उस जगह पर ले गया जहाँ शिकारियों ने दीपू को पकड़कर रखा था. हाथी जोर से चिंघाड़ता हुआ शिकारियों की तरफ दौड़ा शिकारी हाथी को गुस्से में अपनी ओर आता देखकर घबराकर भाग गये. हाथी और किट्टू की मदद से दीपू को शिकारियों से बचने का मौका मिल गया. किट्टू और दीपू ने हाथी को मदद के लिए धन्यवाद दिया.

अब दीपू की समझ में आ गया कि भले ही किट्टू कमजोर हो गया है पर किट्टू की समझदारी के कारण ही आज उसकी जान बची है. फिर दीपू ने किट्टू से माफी मांगी और दोनों मित्रों की तरह रहने लगे.

गुलेल

रचनाकार - महेन्द्र कुमार वर्मा

दिन भर दाना चुगकर तथा बगिया में फुदक- फुदक कर जब थक गई मीनू चिड़िया तो वापिस बरगद के पेड़ पर आई, जहाँ उसका घोंसला था.उसने देखा, उसका घोंसला टूटा हुआ जमीन पर पड़ा था.तभी नीतू कबूतर ने उसे बताया कि एक शरारती बच्चे ने गुलेल से निशाना लगाकर उसका घोंसला तोड़ दिया. यह सुनकर मीनू चिड़िया को बहुत गुस्सा आया. नीतू ने उससे कहा-'चलो गुस्सा छोड़ो और आज मेरे घोंसले में आराम कर लो. कल हम सब मिलकर तुम्हारा एक सुन्दर-सा घोंसला बना देंगें.

अगले दिन बरगद के रहवासी चिड़ियों ने मिलकर मीनू चिड़िया का एक सुन्दर- सा घोंसला बना दिया.मगर मीनू जब भी शरारती बच्चे को देखती,उसे गुस्सा आ जाता.

सुनील ही वह शरारती बच्चा था, वह स्कूल में भी खूब शरारत किया करता था. उसके पास एक गुलेल थी, जो उसे जान से भी प्यारी थी. उसी गुलेल से वह कभी फल तोड़ता कभी चिड़ियों पर निशाना साधता. अक्सर वह स्कूल से बंक मार के उसी बरगद के नीचे बैठकर दिन भर आराम करता और शाम होते ही घर वापिस जाता. माँ समझती बेटा स्कूल से पढ़कर घर आ रहा है.

एक दिन उसने नीतू कबूतर पर निशाना साधकर गुलेल चलाया. मगर नीतू बच गई और घने पत्तों के बीच छुप गई. सभी चिड़ियों को बहुत गुस्सा आया.उन्होंने सोचा इसे तो अब मजा चखाना चाहिये.अगले दिन जैसे ही सुनील दिखा, सभी चिड़ियों ने एक साथ उस पर हमला बोल दिया. अचानक हमले से सुनील घबरा गया,और भाग निकला.

फिर कई दिनों तक सुनील बरगद से दूर ही रहा. जब तीन चार दिन गुजर गए तो सुनील ने सोचा अब मामला ठण्डा हो गया है, अब बरगद के पास चलना चाहिये. सुनील जब बरगद के पास पहुँचा तो देखा वहाँ अथाह शांति थी. वह आराम से बरगद के नीचे बैठ गया.चिड़ियों ने जब उसे देखा तो उन्हें लगा सुनील सुधर गयाहै, तो उन्होंने फिर सुनील पर हमला नही किया.

थोड़ी देर बाद अचानक नीतू कबूतर ने देखा भयानक से दिखने वाले दो आदमी आए और सुनील को पकड़ कर ले जाने लगे. वे आपस में कह रहे थे-'इसके हाथ पैर तोड़कर इससे भीख मंगवाएँगे, तो बहुत पैसा मिलेगा.'

नीतू ने सभी चिड़ियों को बुलाकर बताया कि दो आदमी सुनील को पकड़कर ले जा रहे हैं. हमें उसे बचाना चाहिये.रानी चिड़िया ने कहा-'मगर हम उसे कैसे बचा सकेंगे. नीतू ने सभी को अपनी योजना बताई. सभी ने हामी भरी. फिर नीतू ने जब कहा-'हमला'--तो सभी चिड़ियाँ दोनो आदमियों पर टूट पड़ीं. अचानक हमले से वे दोनों घबरा कर भाग निकले. सुनील ने जब देखा चिड़ियों ने उसकी जान बचाई तो उसके आँसूं बह निकले.

अगले दिन सुनील बरगद के पास आया, तब उसने फिर से गुलेल निकाली. गुलेल देख के सभी चिड़िया छुप गईं. सुनील ने सूखे पत्ते इकटठे किये और उसमें आग लगा दी. पत्ते धू -धू करके जलने लगे,फिर उसने अपनी प्यारी गुलेल को आग में डाल दिया. गुलेल जल गई. फिर उसने जेब से एक पैकेट निकाला और ढेर सारा दाना चिड़ियों के लिये धरती पर बिखेर दिया. सभी चिड़िया चीं- चीं कर दाना चुगते हुए उसका अभिवादन करने लगी. अब वे दोस्त थे.

जहाँ चाह - वहाँ राह

रचनाकार - यशवंत कुमार चौधरी

एक गाँव की बात है, जहाँ की जनसंख्या लगभग 1500 है. इस गाँव में राधिका नाम की एक महिला भी निवासरत थी. उसके पति बहुत सीधे –सरल पर दोनों के बच्चे बहुत नटखट थे. घर में उसके साथ सास- ससुर भी थे, जो शांतप्रिय एवं राधिका को बेटी की तरह रखते थे. राधिका अपने मायके में सातवीं कक्षा तक की पढाई की थी. उसके बाद उसकी पढाई- लिखाई लम्बी अवधि तक घरेलू परिस्थिति के कारण बंद रही. पर उसके दिल में पढ़ने का जूनुन सवार था. उसकी शादी के बाद वह सोचने लगी, कि मुझे अब पढाई करना चाहिए. मैं जीवन में कुछ करना चाहती हूँ. अब परिस्थितियाँ मेरे पढ़ने -लिखने के अनुकूल हो चुकी हैं. इसका लाभ लेना चाहिए. उसने गाँव में एक अच्छे शिक्षक जो सबकी खुब मदद करते थे. उनसे मदद लेने की ठानी और उन्हें घर पर बुलाया और सलाह लिया और आगे पढने में आने वाली कागजात की समस्या को दूर करने सहायता मांंगी. शिक्षक ने भरपूर मदद करने का आश्वासन दिया, पूरा परिवार गदगद हो उठा. शिक्षक ने आगे पढ़ने की तरकीब सहजता से बताई. पर समस्या अब भी कम ना था. लोक -लज्जा लोगों का ताना झेलना जो था. शिक्षक ने राधिका को गाँव के स्कूल में शिक्षादूत के रूप में बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंप दिया जिससे उसकी पकड़ पढ़ाई -लिखाई में मजबूत हो और उसका ज्ञान बढ़े. उसने लगातार घर के कामकाज करके अकेले पैदल स्कूल जाती, जो उसके घर से लगभग एक कि.मी. की दूरी पर था. वापसी उसके स्कूली बच्चों के संग -संग हो जाती. बच्चों के दिलों में राज करने लगी. अब धीरे -धीरे वह सीखने लगी. उसका आत्मविश्वास बढ़ने लगा. कदम- कदम पर शिक्षक ने उसकी हौसला अफ़जाई किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि अवसरों का पिटारा खुलना प्रारम्भ हुआ और वह साक्षर भारत कार्यक्रम के तहत आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और उसके बाद ओपन स्कूल के माध्यम से दसवीं और बारहवीं की परीक्षा अपने अथक प्रयास एवं शिक्षक के उचित निर्देशन में अच्छे से पास कर लिया. अब उसकी खुशी का ठिकाना ना रहा, पर अब भी चुनौतियांँ कम न थीं. उसके पास जाति प्रमाण-पत्र, निवास प्रमाण- पत्र, रोजगार पंजीयन जैसे मूलभूत दस्तावेजों से अब भी वह बहुत दूर थी. शिक्षक ने क्रमश: उसके इन सभी प्रमाण पत्र बनवाने में काफी मदद की और उसे यह दस्तावेज भी प्राप्त हो गया. अब उस गाँव में एक प्रेरक का पद रिक्त था जिसके लिए जनपद पंचायत से आवेदन आमंत्रित हुआ. राधिका ने भी आवेदन जमा किया और उसका चयन प्रेरक के रूप में हो गया. अब वह गाँव में सेवा देने लगी और उसको मानदेय भी मिलने लगा. उसके इस प्रयास एवं सफलता को देख गाँव वालों ने दांतों तले ऊंगली दबा ली. हैरत में थे, कि आखिरकार राधिका ने शिक्षक के उचित मार्गदर्शन में आगे बढ़ते हुए निश्चित रूप से सफलता प्राप्त कर ही लिया. राधिका अब इस गाँव एवं आस-पास के लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है और आज एक सफल शिक्षित महिला है, जिसका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा है. उसने महिला स्वसहायता समूह की टीम बना लिया है.

सीख – जीवन में सफल होने के लिए धैर्यता के साथ कड़ी मेहनत -लगन के साथ कार्य करने एवं एक अच्छे मार्गदर्शक की ज़रुरत होती है. जहाँ चाह -वहाँ राह, बुलंद हौसले के आगे मुश्किलें आखिर घुटने टेक ही देती हैं. अच्छे कार्य का परिणाम सदा अच्छा ही होता है.

बनवारी सब्जी वाला

रचनाकार - नीरज त्यागी

शहर की पॉश कॉलोनी में बनवारी नाम का एक सब्जी वाला सब्जियाँ बेचने आता था. बनवारी काफी समय से यहाँ पर सब्जियाँ बेचने का काम कर रहा था. उसका परिचय कॉलोनी के सभी लोगों से था. बनवारी जो सब्जियाँ लाता वह काफी अच्छी होतीं और इसलिए उसके रेट भी बाकी सब्जी वालों से ज्यादा ही होते, लेकिन लोगों को उसकी कुछ ऐसी आदत हो गई थी कि लोग इसके अलावा किसी से सब्जी लेना पसंद नहीं करते. धीरे धीरे बनवारी से लोगों का मेलजोल बहुत बढ़ गया. बनवारी की आदत कुछ लोगों से उधार लेने की हो गई. 500 - 1000 ऐसी छोटी-छोटी रकम उसने कई लोगों से उधार ले रखी थी.

फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ कि बनवारी ने कॉलोनी में आना जाना बंद कर दिया. जब लगभग 2 सप्ताह हो गए तो लोग परेशान होने लगे. अब उन्हें सब्जी खरीदने के लिए बाजार जाना पड़ता था. बाजार हालाँकि ज्यादा दूर नहीं था लेकिन जाने आने में समय तो लगता ही था. बनवारी के आने से लोगों का समय बच जाता था.अब लोगों को बनवारी की चिंता होने लगी. चिंता के भाव अलग-अलग थे, लोग बनवारी की चिंता इसलिए भी कर रहे थे कि उसने उनसे उधार लिया हुआ था. जिन लोगों ने बनवारी को ₹500 उधार दिया हुआ था, वो 5000 बताने लगे, और जिन्होंने 1000 उधार दिया हुआ था वह 10000 बताने लगेऔर वे सभी अपने अपने कयास लगाने लगे कि बनवारी शायद इसलिए नहीं आ रहा कि वह लोगों के पैसे खा गया है और अब वह वापस नहीं आएगा. धीरे-धीरे समय बीतता गया लगभग 6 माह बाद एक दिन बनवारी मिठाई का डब्बा लिए हुए कॉलोनी में आया. सभी को मिठाई खिलाते हुए उसने जिन लोगों से जितने पैसे उधार लिए हुए थे,वो भी लौटाता जा रहा था. वह सभी से अपने न आने की माफी भी माँग रहा था. इन सबके बीच बनवारी सभी को एक खुशखबरी सुना रहा था कि उसका बेटा पढ़ लिख कर एक सरकारी अधिकारी के रूप में नियुक्त हो गया है और लगभग 4 माह से लड़के को उसकी नौकरी वाली जगह पर स्थापित करने में व्यस्त होंने के कारण वह कॉलोनी में सब्जियों बेचने नहीं आ रहा था. अब उसका बेटा कमाने लगा है. लेकिन बनवारी ने तय किया है कि वह सब्जी बेचने का काम बंद नही करेगा ताकि लोग परेशान ना हों. आखिर इन्ही लोगो ने बुरे वक्त में उसे उधार देकर उसके लड़के को पढ़ने के लिए सहारा दिया था.

शिक्षक की सीख

रचनाकार - चानी ऐरी

एक बड़े उद्योगपति शिक्षा संस्थानों के शिक्षकों को संबोधित कर रहे थे- 'देखिए! बुरा मत मानिए ! लेकिन जिस तरह से आप काम करते हैं; जिस तरह से आपके संस्थान चलते हैं यदि मैं ऐसा करता तो अब तक मेरा व्यवसाय डूब चुका होता. '
चेहरे पर सफलता का दर्प साफ दिखाई दे रहा था.

'समझिए ! आपको बदलना होगा,आपके राजकीय संस्थानों को बदलना होगा; आप लोग पुराणी पद्दति पर चल रहे हैं और सबसे बड़ी समस्या आप शिक्षक स्वयं हैं, जो किसी भी परिवर्तन के विरोध में रहते हैं !'

'हमसे सीखिए ! बिजनेस चलाना है तो लगातार सुधार करना होता है किसी तरह की चूक की कोई गुंजाइश नहीं. '

अंग्रेजी में चला उनका भाषण समाप्त हुआ...

तो प्रश्न पूछने के लिए एक शिक्षिका का हाथ खड़ा था...

'सर ! आप दुनिया की सबसे अच्छी कॉफी बनाने वाली कंपनी के मालिक हैं. एक जिज्ञासा थी कि आप कॉफी के कैसे बीज खरीदते हैं..? '

उद्योगपति का गर्व भरा ज़वाब था- 'एकदम सुपर प्रीमियम! कोई समझौता नहीं..!'

शिक्षिका ने फिर पूछा:- 'अच्छा मान लीजिए आपके पास जो माल भेजा जाए उसमें कॉफी के बीज घटिया क्वालिटी के हों तो..??'

उद्योगपति:-' सवाल ही नहीं ! हम उसे तुरंत वापस भेज देंगे; वेंडर कंपनी को ज़वाब देना पड़ेगा; हम उससे अपना क़रार रद्द कर सकते हैं !

कॉफी के बीज के चयन के हमारे बहुत सख्त मापदंड है इसी कारण हमारी कॉफी की प्रसिद्धि है. ”आत्मविश्वास से भरे उद्योगपति का लगभग स्वचालित उत्तर था !

शिक्षिका:- 'अच्छा है ! अब हमें यूँ समझिए कि हमारे पास रंग-स्वाद-और गुण में अत्यधिक विभिन्नता के बीज आते हैं लेकिन हम अपने कॉफी के बीज वापस नहीं भेजते. '

'हमारे यहाँ सब तरह के बच्चे आते है; अमीर-गरीब, होशियार-कमजोर, गाँव के-शहर के, चप्पल वाले-जूते वाले, हिंदी माध्यम के-अंग्रेजी माध्यम के, शांत- बिगड़ैल...सब तरह के !
हम उनके अवगुण देखकर उनको निकाल नहीं देते !

सबको लेते हैं..
सबको पढ़ाते हैं.
सबको बनाते हैं.. '

'..... क्योंकि सर, हम व्यापारी नहीं, शिक्षक हैं.

सीख;-- शिक्षक कैसे भी बच्चे हो, उन्हे समानता का व्यवहार रख कर पढ़ाते हैं,लायक बनाते हैं.

नीटू का मास्क

रचनाकार - डॉ. मंजरी शुक्ला, पानीपत, हरियाणा

'चलो नीटू, सामने की दुकान से कुछ सब्ज़ी और फल लेकर आते हैं. पापा ने नीटू को मास्क पकड़ाते हुए कहा.

'पर मैं मास्क लगाकर नहीं जाऊँगा.' नीटू ने मास्क से दूर हटते हुए कहा.

मम्मी बोली-'याद है कल ही डॉक्टर अंकल ने कहा था कि जब कोई भी कोरोना वायरस से संक्रमित व्यक्ति खाँसता या छींकता है तो हवा में उसके थूक के बारीक कण फ़ैल जाते है और फ़िर ये विषाणुयुक्त कण साँस के द्वारा हमारे शरीर में भी प्रवेश कर सकते है.'

'पर मुझे मास्क लगाना बिलकुल अच्छा नहीं लगता' नीटू अपने पैर पटकते हुए बोला.

'क्यों, उसमें बुराई क्या है?' पापा ने पूछा.

'क्योंकि मैंने पहले कभी मास्क नहीं लगाया है और इसलिए मेरी आदत नहीं है.' नीटू रुआँसा होते बोला.

'तों फ़िर तुम घर पर ही रहो' कहते हुए पापा बाहर चले गए.

मम्मी ने बात बदलते हुए प्यार से कहा-'अच्छा, तुम्हें याद है कि तीन दिन बाद तुम्हारा जन्मदिन आने वाला है और तुम पूरे पाँच साल के हो जाओगे.'

'हाँ, मैं बड़ा हो जाऊँगा और फ़िर मैं पुलिस ऑफ़िसर बनूँगा' कहते हुए नीटू ने अपनी प्लास्टिक की बंदूक उठा ली और कुर्सी पर पड़ी, सैनिक वाली टोपी पहन ली.

दादी हँसते हुए बोली-'पर सैनिक को ये तो पता होना चाहिए कि चोर कहाँ छिपा है.'

नीटू अपनी आँखें घुमाता हुआ बोला -'हाँ, दादी! आप सही कह रही हो. पर ये कैसे पता लगेगा कि चोर कहाँ छिपा हुआ है ?

'ये जानने के लिए हमें चोर पुलिस का खेल खेलना पड़ेगा.' दादी नीटू की टोपी को सीधा करते हुए बोली

खेलने के नाम से नीटू ख़ुश हो गया और बोला-'हाँ, मैं पुलिस बनूँगा और चोर को पकड़कर जेल में डाल दूँगा.'

'नहीं, नहीं, पुलिस मैं बनूँगी.' दादी ने मुस्कुराते हुए कहा

'पर मुझे चोर नहीं बनना है.' नीटू ने ठुनकते हुए कहा

'दादी ने समझाते हुए कहा-'पर जब तक तुम चोर नहीं बनोगे तुम्हें पता कैसे लगेगा कि चोर छुपने के लिए क्या क्या करता है?'

नीटू तुरंत बोला-'हाँ, और फ़िर जब मैं पुलिस बनूँगा तो मुझे पहले से ही पता होगा कि चोर कैसे छुपता है.'

दादी हँसते हुए बोली-'चलो, अब जल्दी से मुझे अपनी बंदूक दो और तुम ये मास्क पहन लो.'

'नहीं, नहीं, मैं मास्क नहीं पहनूँगा.' नीटू ने मास्क को देखते हुए कहा

'ठीक है, तो फ़िर मैं तो तुम्हें तुरंत पकड़ लूँगी और खेल भी खत्म हो जाएगा.'

'अरे दादी, अभी तो हमारा खेल शुरू भी नहीं हुआ और आप खत्म करने की बात कर रही हो.' ये कहते हुए नीटू ने गंदा सा मुँह बनाते हुए मास्क पहन लिया

अब दादी ने इधर उधर देखते हुए कहा-'ओफ़्फ़ो, अभी तो एक चोर दिखाई दिया था, कहाँ चला गया ?

नीटू हँसता हुआ धीरे से बोला-'मैंने मास्क लगा लिया तो दादी भी मुझे पहचान ही नहीं पा रही.'

उधर दादी कभी सोफ़े के पीछे देख रही थी तो कभी अलमारी के पीछे.

नीटू कभी उनके पीछे चलता तो कभी दौड़ता हुआ आगे खड़ा हो जाता.

पर दादी सामने खड़े नीटू को ऐसे ढूँढ रही थी मानों नीटू अदृश्य हो गया हो.

नीटू और दादी का चोर पुलिस का यह खेल तब तक चलता रहा जब तक मम्मी ने दोनों को खाना खाने के लिए नहीं बुला लिया.

नीटू खाना खाते हुए बोला-'दादी, बड़ा मज़ा आया. हम कल भी खेलेंगे.'

दादी हँसते हुए बोली-'ज़रूर खेलेंगे पर तुम्हें तो मास्क लगाना पसंद नहीं है ना!'

'नहीं दादी, मास्क लगाना उतना भी बुरा नहीं है जितना मैं समझता था.' कहते हुए नीटू मुस्कुराया.

'तो फ़िर अब घर से बाहर जाते समय मास्क लगाओगे ना ?मम्मी ने पूछा.

हाँ...बिलकुल लगाऊँगा ताकि कोरोना हमें पहचान नहीं पाए और हम सुरक्षित रहे.

अरे वाह, हमारा नीटू तो बहुत समझदार हो गया.पापा ने खुश होते हुए कहा.

हाँ, पापा, मैं तो बहुत समझदार हूँ बस किसी को पता नहीं चल पाता. नीटू ने मासूमियत से कहा

पापा और मम्मी ने दादी की तरफ़ देखा और तीनों जोर से हँस पड़े.

नमन की पढ़ाई

रचनाकार - टीकेश्वर सिन्हा 'गब्दीवाला'

परीक्षा चल रही थी. एक ही कमरे में तीन कक्षाओं के बच्चे एक के बाद एक बैठे थे. सभी बच्चे अपने-अपने पर्चे में व्यस्त थे. कक्षा पाँचवी के नमन ने देखा कि उसके आगे बैठे कक्षा छठवीं के मनोज के पर्चे की लिखावट उसकी लिखावट से बिल्कुल अलग लग रही थी. वह लिखावट नमन को बिल्कुल समझ नहीं आ रही थी. नमन को जिज्ञासा हुई. उसने पूछ ही लिया- ' मनोज भैया, आपका कौन से विषय का पेपर है ? आप ये क्या लिख रहे हैं ? '

' अंग्रेजी का. ' मनोज का जवाब सुनकर नमन सोचने लगा कि इतने कठिन होते हैं अंग्रेजी के अक्षर. मुझे भी अगले साल इन्हें पढ़ना-लिखना होगा. अगले दिन नमन कक्षा-शिक्षक श्री हेमलाल साहू जी के पास गया. साहू जी समझ गये कि नमन कुछ पूछना चाह रहा है. बोले - ' क्या बात है नमन...कोई समस्या..?

नमन ने अपनी पूरी बात शिक्षक को बता दी.साहू जी ने नमन को समझाया - ' इसमें घबराने की कोई बात नहीं है. अंग्रेजी भी एक विषय ही है. इसे भी सीख जाओगे. घबराओ मत.अपनी मेहनत पर भरोसा रखो.

छठवीं में श्री बलराम सिन्हा नमन के अंग्रेजी अध्यापक हुए. वे कर्मठ, निष्ठावान व कर्तव्यपरायण शिक्षक थे. श्री सिन्हा की अध्यापन-शैली से नमन का अंग्रेजी से डर कम हुआ. कक्षा के स्तर के मुताबिक ग्रामर में उसने अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखी. कोई समस्या होती तो अपने शिक्षकों से पूछ लिया करता था शिक्षक भी उससे खुश रहते थे. इस तरह नमन ने अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी कर ली.

अब हाई स्कूल पढ़ने की बारी आई.उसके माता-पिता अब उसे पढ़ाना नहीं चाहते थे. घर में गरीबी थी. खाने के लाले पड़ने लगे थे. थोड़ी सी कृषि-भूमि व मजदूरी ही उनके जीवन-निर्वाह का स्रोत था. नमन की दादी ने नमन को आगे पढ़ाने की बात कही. नमन के पिता ने अपनी माँ के कहने पर घर की एक बड़ी थाली को गिरवी रखकर नमन की स्कूल फीस का इंतजाम किया. हाईस्कूल में नमन का एडमिशन हुआ. नमन अपनी पढ़ाई में जुट गया. हाईस्कूल में श्री परसराम खरांशु जी ने नमन को अंग्रेजी पढ़ाई. नमन उनसे बहुत प्रभावित हुआ. ग्रामर का स्वाध्याय भी जारी रखा.उसने हाईस्कूल की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की. प्रथम श्रेणी के लिए चार अंकों की कमी रह गई.

अब नमन कक्षा ग्यारहवीं में दाखिल हुआ. स्कूल दूसरे गाँव मे था. बच्चे व शिक्षक सभी अपरिचित थे.यहाँ पहली बार एक शिक्षिका वायलट डेनियल,उसकी अंग्रेजी-शिक्षिका हुई. मलयालम भाषी थी ; उनकी हिन्दी पर पकड़ कम थी, पर अंग्रेजी बहुत ही अच्छी थी. अपनी प्रतिभा के चलते नमन अंग्रेजी-शिक्षिका का प्रिय विद्यार्थी हुआ. नमन उनका खूब सम्मान करता था. ग्यारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की बारहवीं में द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ. शिक्षिका ने नमन के अंग्रेजी विषय के अंक देखकर उसे बी. ए. संकाय में अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का सुझाव दिया. शिक्षिका ने उसे अंग्रेजी की कुछ पुस्तकें भी दीं.

बारहवीं कक्षा के बाद आगे काॅलेज की पढ़ाई मुश्किल थी. सो नमन ने शासकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान में एडमिशन ले लिया. इसी सत्र में उसने अपनी रुचि के चलते स्वाध्यायी छात्र के रूप में बी. ए. प्रथम वर्ष का परीक्षा फाॅर्म भरा. अंग्रेजी साहित्य, हिन्दी साहित्य व समाज शास्त्र उसके चयनित विषय थे. बड़ी मुश्किल से उसने पुस्तकें खरीदी. अपनी टेक्निकल पढ़ाई के साथ उसने काॅलेज के अध्ययन का भी ध्यान रखा. अतिरिक्त समय निकालकर अंग्रेजी की पढ़ाई करता. दरअसल एक साधारण से गाँव की स्कूली पढ़ाई एवं उचित मार्गदर्शन के अभाव के चलते उसे अंग्रेजी साहित्य जैसे विषय के अध्ययन में कोई विशेष सहायता नहीं मिल पाई. नमन की रूचि अंग्रेजी अध्ययन के प्रति तब और बढ़ गयी, जब उसके ममेरे भाई ने चैलेंज किया -' भाई, तू कितनी भी अंग्रेजी जानता है, पर अंग्रेजी विषय लेकर ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर ही नहीं सकता. इन सबको तू पढ़ लेगा ; याद कर लेगा. मैं चैलेंज करता हूँ कि तू इसे पढ़ ही नहीं सकता. ' तब नमन के मन में विचार आया कि कोई न कोई तो अंग्रेज़ी पढ़ता ही है, फिर वह भी क्यों नहीं पढ़ सकता? उसने मन ही मन तय कर लिया कि वह अंग्रेजी जरूर पढ़ेगा और सफल भी होगा. उसने पूरे मन से पढ़ाई शुरू कर दी. कई घंटों तक पढ़ाई में जुटा रहता. खेलना-कूदना बिल्कुल छोड़ ही दिया. कई बार तो उसे खाने-पीने की सुध नहीं रहती थी.

नमन का हौसला तब बुलंद हुआ जब उसने बी. ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण की. दूसरे साल की पढ़ाई के साथ एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कम्पनी में काम करने लगा. इससे खुद की पढ़ाई व घर की आर्थिक व्यवस्था में मदद मिली. फैक्ट्री से आने के बाद वह पढ़ाई में जुट जाता था. शारीरिक अस्वस्थता के चलते घर की आर्थिक व्यवस्था डगमगाने लगी, फिर भी जैसे-तैसे उसने अपनी पढ़ाई जारी रखी. कालेज का दूसरा साल भी निकल गया. बी. ए. अंतिम की पढ़ाई के दौरान एक ऐसा समय भी आया कि वह परीक्षा शुल्क जुटाने में असमर्थ था, तब उसके एक घनिष्ठ मित्र विजय ने उसे आर्थिक मदद की. इस साल उसने खूब मेहनत की. द्वितीय श्रेणी के साथ अपना ग्रेजुएशन पूरा किया. अब नमन ने एम. ए. अंग्रेजी करने का मन बना लिया. घर में निर्धनता तो थी ही, पर मेहनत-मजदूरी कर के भी वह अपना अध्ययन जारी रखना चाहता था. मेहनत की, परीक्षा दी. पर बदकिस्मती से नमन चार अंकों से फेल हो गया. छात्र-जीवन में पहली बार नाकामयाबी से सामना हुआ. उसे बहुत दुःख हुआ. घरवालों को भी अच्छा न लगा. नमन फिर परीक्षा की तैयारी में लग गया. परीक्षा में बैठा. परचा भी अच्छा गया. पर इस बार फिर एक अंक से दूर रह गया. माता-पिता ने उसका हौसला बढाने में कोई कमी नहीं की. नमन के कुछ मित्रों ने हतोत्साहित करने की कोशिश की - ' नमन, तू दो बार फेल हो गया यार इंग्लिश में, इसे छोड़. हिन्दी में ही कर ले एम ए, इंग्लिश में ही क्या रखा है. हिंदी भी अच्छा विषय है. अपनी भाषा है सरल है. हिन्दी से तुझे क्या परहेज है ? '

' अरे नहीं मेरे भाई, हिन्दी से परहेज- वरहेज नहीं है.अगर मुझे हिन्दी से कोई तकलीफ होती तो मैं ग्रेजुएशन में हिंदी क्यों चुनता. ऐसा कुछ नहीं है ; मैं पी.जी. इंग्लिश करना चाहता हूँ पहले. क्या मेरा ऐसा चाहना बुरी बात है ? ' नमन का जवाब था.

फिलहाल तो नमन का एक ही लक्ष्य था अंग्रेजी साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएशन करना. दो बार असफलता का कटु स्वाद चख चुका नमन जी तोड़ मेहनत करने लगा. उसकी मेहनत रंग लाई. द्वितीय श्रेणी की कामयाबी के साथ उसने पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री प्राप्त की. सबकी शुभकामनाएँ नमन के साथ थी. उसे सबका आशीष मिला. नमन ने अपनी सफलता का श्रेय अपने शिक्षक, माता-पिता व मित्रों को दिया. अब नमन के मन में शिक्षा के प्रति सेवा की भावना जागी. फिर उसने एक प्राइवेट कानवेंट स्कूल ज्वाइन कर लिया. सदैव अध्ययन व अध्यापन के प्रति सजग नमन आज एक अंग्रेजी अध्यापक है

एक था अनिर्बान

रचनाकार - मनोज कुमार शराफ़

कहानी शुरू होती है एक कक्षा से, जिसमें लगभग 50 बच्चे पढ़ते थे. मुझे उस कक्षा को गणित पढाने का आदेश इस नए सत्र में मिला. अभी मैं बच्चों से घुलने मिलने तथा उन्हें समझने की कोशिश कर रहा हूं.

चूंकि कक्षा काफी बड़ी थी, इसलिए मुझे लगा सभी बच्चों को समझने में वक्त लगाने के बजाय पढ़ाई की शुरुआत कर देनी चाहिए.

मैंने अपने हिसाब से थोड़ा रुचिकर विषय वस्तु लिया ताकि बच्चे मेरी ओर एवम् गणित की ओर आकृष्ट हो सकें. मैं शायद यह भी चाहता था कि, उनके पिछले गणित शिक्षक के बजाय मेरा रुआब उन पर ज्यादा पड़े. खैर जब में कुछ सवालों को लेकर बात करते हुए उसे बोर्ड पर बना रहा था ताकि बच्चे उसे अच्छी तरह समझ जाए. तभी मुझे कक्षा में ज़ोर से हंसने की आवाज सुनाई दी.

मैंने देखा, एक लड़का जोर-जोर से हंस रहा था. जब मैंने हंसने कारण जानना चाहा तो वो चुप हो गया. उसके पास बैठे बच्चों ने बताया कि उसका नाम अनिर्बान है और वह न केवल बीच-बीच में हँसता है बल्कि अपने आस पास बैठे बच्चों को परेशान करता है. मुझे यह भी पता चला की उसे बोलने में और चलने में काफी परेशानी आती है. जब भी मैं पढ़ा रहा होता और उसे कुछ पूछता वह उत्तर देने में इतनी देर लगाता कि मेरा धैर्य टूट जाता. वह उत्तर देने के लिए खड़े होने में ही 30 सेकेंड लगा देता

. मैंने उसे पूछना ही छोड़ दिया पर उसका हँसना और कक्षा में बच्चों को गाहे बे गाहे परेशान करना जारी था. एक दिन उसने चलती कक्षा में जोर-जोर से हंसना चालू कर दिया मुझे हंसने का कोई कारण नजर नहीं आ रहा था. मुझे उसका इस तरह कक्षा में व्यवधान उत्पन्न करना खल गया

. क्योंकि, मैं अपना काम बड़ी तल्लीनता से कर रहा था. बच्चे भी ध्यान देकर सवालों को हल करने लगे थे. फिर क्या था मैं, आपे से बाहर हो गया. मैंने सीधे प्रिंसिपल के कमरे की ओर रुख किया. मेरी भाव भंगिमा देखकर ही उन्हें आभास हो गया कि मैं बहुत गुस्से में हूं. मैंने उनसे कहा कि जब तक अनिर्बान उस कक्षा में है मैं उस कक्षा में नहीं पढ़ा सकता. मैंने उन्हें सारी बात बताई.

उन्होंने मुझे बैठने को कहा, एक गिलास पानी पीने को कहा, साथ थोड़ा शांत होने को भी कहा. मैंने उनकी बात तो मानी पर मेरा क्रोध शांत नहीं हुआ था. प्रिंसिपल सर ने चपरासी को बुलाकर उसे अनिर्बान की मां को बुला लाने को कहा. मुझे पहली बार पता चला कि अनिर्बान की मां उसके स्कूल में रहते तक स्वयं भी स्कूल में रहती है. वो आयीं, सर ने उनका परिचय कराया. उनका पूरा नाम मीना डे खान था.

जब मिसेस खान को बताया गया कि उनके बेटे की वजह से मैं बहुत परेशान हूं. उन्होंने गर्दन नीची कर लीं हाथ जोड़े, कुछ कहा नहीं. सर ने बताया अनिर्बान को जन्म के समय कम आक्सीजन मिलने के कारण कई शारीरिक परेशानी है. उसकी मां यानी मिसेज खान को जब पता चला कि उनका बेटा सामान्य बच्चों की तरह चल -फिर नहीं सकता. उसका मतिष्क का विकास भी धीमा रहेगा. उन्होंने कई फैसले लिए, पहला वह अब कोई गर्भ धारण नहीं करेंगी ताकि उसके चलते अनिर्बान की परवरिश में कमी न हो जाए. उसे आम बच्चों की तरह एक स्कूल में पढ़ाएंगी.

जब तक अनिर्बान स्वयं से स्कूल के सभी गतिविधियों में भाग न लेने लगे और स्वयं स्कूल से घर आने जाने न लगे, वो उसके साथ स्कूल आएंगी और उसका ख्याल रखेंगी. प्रिंसिपल सर से अनुरोध करके वह छोटी कक्षाओं में उसकी साथ बैठती थी. और कभी- कभी वो कुछ कक्षाओं को अवैतनिक पढ़ाती भी हैं. जब ये बातें हो रही थी तब मिसेज खान के कहने पर अनिर्बान को बुलाया गया. जब उससे पूछा गया कि वो बार-बार हंसता क्यों है, और क्या उसे दूसरे कक्षा में पढ़ना है. उसने बड़ी मुश्किल से जो बताया. जिसका अर्थ कुछ इस प्रकार था,उसे मेरा पढ़ाना पसंद था. उसे कोई बात जब समझ में आती है तो, वह यह सोचकर हंसता है कि इतनी सी बात उसे पहले समझ में क्यों नहीं आयी. वह अपने साथियों को बताना चाहता है कि, अब वह पहले से जल्दी समझने लगा है और उन्हें भी समझा व बता सकता है. सबसे बड़ी बात वह मुझे बेहद पसंद करता है.

अब सिर नीचे करने की बारी मेरी थी. मैंने कुछ नहीं कहा और अनिर्बान को लेकर कक्षा की ओर चल पड़ा. रास्ते में सोच रहा था मैं भी कितना बुद्धू हूं और चीजों को कितनी देर में समझता हूं.

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