कहानियाँ

पंचतंत्र की कहानी

मूर्ख ऊंट की कहानी

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एक घना जंगल था, जहां एक खतरनाक शेर रहता था. कौआ, सियार और चीता उसके सेवक के रूप में हमेशा उसके साथ रहते थे. शेर रोज शिकार करके भोजन करता और ये तीनों उस बचे हुए शिकार से अपना पेट भरते थे.

एक दिन उस जंगल में एक ऊंट आ गया, जो अपने साथियों से बिछड़ गया था. शेर ने कभी ऊंट नहीं देखा था. कौवे ने शेर को बताया कि यह ऊंट है और यह जंगल में नहीं रहता. शायद पास के गांव से यह यहां आ गया होगा. आप इसका शिकार करके अपना पेट भर सकते हो. चीता और सियार को भी कौवे की बात अच्छी लगी.

तीनों की बात सुनकर शेर ने कहा कि नहीं यह हमारा मेहमान है. मैं इसका शिकार नहीं करूंगा. शेर, ऊंट के पास गया और ऊंट ने उसे सारी बात बताई कि वो किस प्रकार अपने साथियों से बिछड़कर जंगल में पहुंचा. शेर को उस कमजोर ऊंट पर दया आई और उससे कहा कि आप हमारे मेहमान हैं, आप इस जंगल में ही रहेंगे. कौआ, चीता और सियार इस बात को सुनकर मन ही मन ऊंट को कोसने लगे.

ऊंट ने शेर की बात मान ली और जंगल में ही रहने लगा. जल्दी ही जंगल की घास और हरी पत्तियां खाकर वह तंदुरुस्त हो गया.

इस बीच एक दिन शेर की जंगली हाथी से लड़ाई हो गई और शेर बुरी तरह से घायल हो गया. वह कई दिन तक शिकार पर नहीं जा सका. शिकार न करने पर शेर और उस पर निर्भर कौआ, चीता व सियार कमजोर होने लगे.

जब कई दिनों तक उन्हें कुछ भी खाने को नहीं मिला, तो सियार ने शेर से कहा कि महाराज आप बहुत कमजोर हो गए हैं और अगर आपने शिकार नहीं किया, तो हालत और ज्यादा खराब हो सकती है. इस पर शेर ने कहा कि मैं इतना कमजोर हो गया हूं कि अब कहीं भी जाकर शिकार नहीं कर सकता. अगर तुम लोग किसी जानवर को यहां लेकर आओ, तो उसका शिकार करके मैं अपना और तुम तीनों का पेट भर सकता हूं.

इतना सुनते ही सियार ने तपाक से कहा कि महाराज अगर आप चाहें तो हम ऊंट को यहां लेकर आ सकते हैं, आप उसका शिकार कर लीजिए. शेर को यह सुनकर गुस्सा आ गया और बोला कि वह हमारा मेहमान है, उसका शिकार मैं कभी नहीं करूंगा.

सियार ने पूछा कि महाराज अगर वो स्वयं आपके सामने खुद को समर्पित कर दे तो? शेर ने कहा तब तो मैं उसे खा सकता हूं.

फिर सियार ने कौवे और चीते के साथ मिलकर एक योजना बनाई और ऊंट के पास जाकर बोलने लगा कि हमारे महाराज बहुत कमजोर हो गए हैं. उन्होंने कितने दिनों से कुछ नहीं खाया है. अगर महाराज हमें भी खाना चाहें, तो मैं खुद को उनके सामने समर्पित कर दूंगा. सियार की बात सुनकर कौआ, चीता और ऊंट भी बोलने लगे कि मैं भी महाराज का भोजन बनने के लिए तैयार हूं.

चारों शेर के पास गए और सबसे पहले कौवे ने कहा कि महाराज आप मुझे अपना भोजन बना लीजिए, सियार बोला कि तुम बहुत छोटे हो, तुम भोजन क्या नाश्ते के लिए भी ठीक नहीं हो. फिर चीता बोला कि महाराज आप मुझे खा जाइए, तब सियार ने कहा कि अगर तुम मर जाओगे तो शेर का सेनापती कौन होगा? फिर सियार ने खुद को समर्पित कर दिया, तब कौआ और चीता बोले कि तुम्हारे बाद महाराज का सलाहकार कौन बनेगा.

जब तीनों को शेर ने नहीं खाया, तब ऊंट ने भी सोचा कि महाराज मुझे भी नहीं खाएंगे, क्योंकि मैं तो उनका मेहमान हूं. यह सोचकर वो भी बोलने लगा कि महाराज आप मुझे अपना भोजन बना लो.

इतना सुनते ही शेर, चीता और सियार उस पर झपट पड़े. इससे पहले कि ऊंट कुछ समझ पाता, उसके प्राण शरीर से निकल चुके थे और चारों उसे अपना भोजन बना चुके थे.

कहानी से सीख: इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें बिना सोचे किसी की बातों में नहीं आना चाहिए. साथ ही चालाक व धूर्त लोगों की मीठी-मीठी बातों पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए.

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बंदर ने पहली बार बनाया घर

रचनाकार- बद्री प्रसाद वर्मा अनजान

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सर्दी का मौसम आने वाला था नवम्बर का महीना शुरु हो गया था. और गुलाबी जाड़े की शुरुआत हो चुकी थी. चंपक वन के सभी पक्षी और जानवर जाड़े से बचने के लिए अपना अपना घर बना रहे थे.

तोता गौरैया बुलबुल बगुला सारस मोर कौवा कबूतर और दूसरे पक्षी अपना अपना घर और घोसला बनाने में मस्त थे ताकी जाड़े में ठंड से कांपना न पड़े.

वहीं सियार लोमड़ी खरगोश भालू शेर चीता चूहा स्यही नेऊर गिलहरी कठफोड़ किलहट मैना भी अपना घर बनाने में जी जान से लगे हुए थे.

सबको अपना अपना घर बनाते देख कर बंदर ने सोचा जब सारे जानवर और पक्षी अपना अपना घर बनाने में लगे हैं तो मैं क्यों किसी से पिछे रहूं मैं भी अपना घर बनाऊंगा.

अगले दिन बंदर जंगल से बांस काट कर जमा कर लिया फिर जंगली खर भी ला कर रख लिया. बंदर ने आरी गड़ासा सुतली भी जमा कर लिया. और जंगल के पेड़ों से मोटे मोटे लम्बे डाल को काट कर जमा कर लिया .

घर बनाने का सारा सामान इकट्ठा करने के बाद बंदर

सबसे पहले हाथी के पास पहुंच कर बोला हाथी दादा मैं पहली बार अपना घर बना रहा हूं आप हमारे घर बनाने में थोड़ी मदद कर दीजिए ताकी हमारा भी घर बन जाए और सर्दी में कांपना न पड़े .

हाथी मदद करने को राजी हो गया. फिर बंदर भालू के पास पहुंच कर मदद की गुहार लगाया, भालू भी मदद करने को तैयार होगया. फिर बंदर सियार और लोमड़ी के पास गया वो भी मदद करने को राजी हो गए.

अगले दिन बंदर का घर बनना शुरु हो गया. हाथी ने जमीन में गढ्ढा खन कर उसमें पेड़ की लकड़ी को गाड़ दिया. भालू ने बांस काट कर मड़ई का ढ़ांचा तैयार कर दिया बंदर ने उसके उपर खर बिछा कर मड़ई बना दिया. सियार और लोमड़ी ने बांस से घर का फाटक और दरवाजा बना दिया. बंदर ने जमीन पर पुआल बिछा दिया. ताकी उ पर चादर बिछा कर सोया जा सके.

बंदर का घर बन कर तैयार हो गया. जंगल में पहली बार बंदर का घर बनाए जाने की खबर सुनकर जंगल के सभी जानवर और पक्षी बंदर का घर देखने आने लगे और बंदर को घर बनाने पर खूब बधाई देने लगे.

बंदर ने घर बनाने में और हाथ बटाने में और सहयोग करने पर हाथी भालू सियार लोमड़ी सबको बहुत बधाई दिया.

दिसम्बर का महीना आते ही चंपक वन में कड़ाके की सर्दी पड़ने लगी. सभी जानवर और पक्षी अपने अपने घर में बहुत खुश नजर आ रहे थे.

सबसे अधिक खुशी बंदर को थी क्यों कि पहली बार उसे जाड़े से राहत महसूस हो रही थी. बंदर अपने घर में इस बार जाड़े में बहुत खुश नजर आ रहा था. उसे न सर्दी लग रही थी न जाड़ा लग रहा था. बंदर अपने घर में बहुत खुश नजर आ रहा था.

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चिड़िया और दाल का दाना

रचनाकार- श्रीमती मंजू पाठक, दुर्ग

CHIDIYA

एक बार आसमान में एक चिड़िया उड़ रही थी.उसे नीचे जमीन पर दाल के दाने दिखे,वह चिड़िया नीचे आई और अपनी चोंच से उन दाल के दानो को उठाकर उड़ने लगी.

कुछ दूर उड़ने के बाद अचानक उसकी चोच से दाने नीचे गिर गए और एक लकड़ी के बीच में जाकर फंस गए.

वह चिड़िया उस लकड़ी के पास आई और बोली -लकड़ी जी, लकड़ी जी,आप मेरे दाल के दाने दे दीजिए मैं अपने बच्चों को खिलाऊंगी.लकड़ी बोली -मैं नहीं दूंगी. वह चिड़िया एक बढ़ई के पास गई और बोली -बढ़ई जी, मेरे दाल के दाने लकड़ी में फस गए हैं,आप उसे काट दीजिए जिससे मैं दाने लेकर अपनी बच्चों के पास चली जाऊं,वे भूखे हैं. वह बोला -तुम्हारे कुछ दाने के लिए मैं लकड़ी नहीं काटूंगा,जाओ.

वह चिड़िया उदास हो गई और राजा के पास गई. उसने राजा से कहा- राजा जी,आप बढ़ई को डांट दीजिए वह लकड़ी नहीं काट रहा है, जिसमें मेरे दाल के दाने फंसे हे.राजा बोला -तुम्हारे कुछ दाने के लिए मैं बढ़ई को नहीं डाटूंगा जाओ.

चिड़िया और उदास हो गई और वह रानी के पास गई और बोली- रानी जी, रानी जी,आप, राजा को समझाइए कि वे बढ़ई को डांटे लकड़ी में मेरे दाने फंसे हैं और मेरे बच्चे भूखे हैं.रानी बोली- तुम्हारे कुछ दाने के लिए मैं राजा को नहीं समझाऊंगी. जाओ,चली जाओ.

चिड़िया पूरी तरह से उदास हो गई. फिर भी वह हार नहीं मानी और एक सांप के पास गई और बोली- सांप भैया,आप रानी जी को काट लीजिए,वह राजा को नहीं समझा रही है,राजा बढ़ई को नहीं डांट रहे हैं और बढ़ई लकडी नहीं काट रहा है,जिसमें मेरे दाल के दाने फंसे हैं.मेरे बच्चे भूखे हैं. यह सुनकर सांप बोला -बस, इतनी सी बात,अभी जाता हूं,रानी को डस लूंगा.वह रानी के पास गया,रानी डर गई और बोली- मैं,अभी राजा को समझाती हूं,वह राजा को समझाती है,राजा बोला -ठीक है, मैं अभी बढ़ई को डांटता हूं. बढ़ई जैसी ही लकड़ी काटने चला, लकड़ी ने कहा -मुझे मत काटो, मैं अपने आप दाने निकाल देती हूं. उसने दाल के दाने निकाल दिए. चिड़िया उसे लेकर उड़ गई और अपने बच्चों को ले जाकर खिलाई.

तो बच्चों, इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपना कार्य पूरी निष्ठा के साथ करनी चाहिए. हार नहीं माननी चाहिए,सफलता अवश्य मिलती है.

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आकर्षक खिलौने

रचनाकार- टीकेश्वर सिन्हा 'गब्दीवाला', बालोद

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अध्यापक ठाकुर जी कक्षा सातवीं में आए. बोले- 'बच्चों ! कल से दशहरे की छुट्टी हो रही है पाँच दिनों के लिए; यानी शुक्रवार तक. बच्चे खुश हो गए. ठाकुर जी फिर बोले- 'दशहरे की छुट्टी का आनंद लेने के साथ तुम सबको एक गृहकार्य भी करना है; और उसे कम्प्लीट करके जब स्कूल आओगे तब लाना है.

'क्या करना है सर जी गृहकार्य में; और जिसे स्कूल भी लायेंगे?' बच्चे एक स्वर में बोले.

'सबको खिलौना बनाकर लाना है; चाहे वह मिट्टी का हो, लकड़ी का हो या चाहे फूल, पत्ते, पत्थर का हो ; पर स्वयं का बनाया हुआ होना चाहिए. ध्यान रहे, सुंदर हो, मजबूत हो और आकर्षक भी हो. स्कूल आने के दिन उसे अनिवार्य रुप से लाना ही है.' ठाकुर जी ने कहा. बच्चों ने हाँ में सर हिलाया. फिर छुट्टी हो गयी.

दशहरे की छुट्टी खत्म हुई. बच्चे खुद के बनाये हुए खिलौने लेकर स्कूल आए. सबने बरामदे पर खिलौनों को रखा. अध्यापक ठाकुर जी ने सभी बच्चों से कहा कि तुम सब बारी-बारी अपने-अपने खिलौने के बारे में बताते जाओ.'

'सर जी ! यह एक कार है. इसके सभी कल-पुर्जे बहुत मँहगे हैं. इन सबको मैनें स्वयं खरीद कर बनाया है. बहुत खर्च करना पड़ा, तब यह इतना अच्छा बन पाया.' नीतिश ने सबसे पहले अपना खिलौना दिखाया.

फिर राघव बोला- 'यह एक डबलस्टोरी बिल्डिंग है सर जी. इसकी डेंटिंग-पेंटिंग मैनें खुद की है .' राघव की आवाज में बड़ा दम था.

महेंद्र की बारी आई. उसने भी अपने खिलौने का मुस्कुराते हुए परिचय दिया-' सर जी! देखिए न... मैं स्वयं हूँ. मैनें स्वयं को एक खिलौने का आकार दिया है. इसके लिए मैनें अपनी मम्मी से पैसा लिया है. मेहनत तो कम की है मैनें, पर पैसा बहुत लगाया है सर. क्यों , मैं अच्छा लग रहा हूँ न सर?'

'यह एक एंड्राइड मोबाइल फोन है सर जी. गीतिका सबको अपना खिलौना दिखाते हुए बोली- 'लग रहा है ना सर बहुत बढ़िया ?'

इस तरह बच्चों ने अपने-अपने खिलौने का प्रदर्शन किया. अब सबकी नजर नीरज पर टिकी. वह चुपचाप से सकुचाया हुआ बैठा था. अपनी बारी आने पर भी वह खिलौना नहीं दिखा रहा था. कहने लगा- 'मेरा खिलौना तो इन खिलौनों के सामने कुछ नहीं है सर जी, मैं क्या दिखाऊँ ?'

'अरे नीरज, तुम जो भी बना कर लाए हो; दिखाओ.' अध्यापक नीरज की पीठ पर हाथ फेरते हुए बोले.

'सर जी मेरे मम्मी पापा तो चंद्रपुर कमाने खाने गए हैं. घर में मैं, दादी और मेरी छोटी बहन रहते हैं. हमारे घर पैसा वैसा नहीं है सर.' नीरज अपने खिलौने वाले थैले को पीछे छुपाने लगा.

'क्या है उसमें जी, हम लोग भी देखेंगे.' ठाकुर जी ने बड़े प्यार से नीरज के सर पर हाथ रखा.

'अंत में नीरज ने अपना खिलौना सबके सामने टेबल पर रख दिया. खिलौनों को देखकर अध्यापक ठाकुर जी गदगद हो गए. बच्चे भी बड़ी अचरज भरी नजरों से एक-दूसरे को देखते हुए नीरज के खिलौनों को निहार रहे थे- ढेर सारे मिट्टी के सुंदर छोटे-छोटे व विभिन्न आकृतियों के दीये थे. तभी अध्यापक ठाकुर जी मुस्कुराते हुए बोले- 'वाह ! बहुत सुंदर-सुंदर दीये बनाये हैं तुमने. यह सबसे बड़ा व सुंदर दीया किसलिए...नीरज ?'

नीरज ने कहा- 'सर जी ! इसे मैं दीपावली की रात को अपने स्कूल के मुख्य द्वार पर जलाऊँगा.

सभी बच्चों की नजर सिर्फ नीरज की दीये पर थी.

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अपना पराया

रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू', गरियाबंद

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अभी तक खेत से माँ-बाबूजी दोनों नहीं आये हैं. कम से कम माँ को तो आ ही जाना चाहिए था. पता नहीं, इतनी बारिश में वे दोनों कहाँ होंगे. घर से बार-बार निकल कर सुमन, राधे और गौरी की राह ताक रही थी.

शाम का समय था. घड़ी की सुइयाँ पाँच बजा रही थीं. बारिश का मौसम था; सो अँधेरा छाने लगा था. तरह–तरह के कीट–पतंगे व झींगुर की आवाज सुमन के कानों में गूँज रही थी. सुमन बहुत डरी हुई थी आज. कई तरह की शंकाएँ सुमन को घेर रही थी- 'पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ था; पता नहीं आज अचानक क्या हो गया? वे दोनों खेत से जल्दी आ जाया करते थे.'

सुमन के दिलो-दिमाग विचलित था. उसका किसी कार्य में मन नहीं लग रहा था. देखते ही देखते बादल गरजना शुरू हो गया. बिजली भी चमकने लगी. तभी उसे कुछ दिन पहले गाँव में हुई एक घटना याद आने लगी. वह सहम गयी. खेतों में काम कर रही महिलाओं के ऊपर गाज जो गिर गयी थी. सब ने दम तोड़ दिया था. बार–बार वह दृश्य आँखों के सामने झूल रहा था रहा था. अब तो सुमन की मन ही मन बात हो रही थी कि माँ–बाबू जी दोनों से मैंने कहा था कि जल्दी आना. पर वे मेरी बातें नहीं सुनते.

जैसे ही सुमन घर के अंदर आयी, बिजली चली गयी. जैसे–तैसे उसने मोमबत्ती जलाई. घर में रोशनी हुई. मन थोड़ा शांत लगा. सुमन घबराने लगी थी- 'हे प्रभु ! मेरे माँ–बाबू जी जल्दी घर आ जाए. मुझे बहुत घबराहट हो रही है. कहीं... कुछ...!'

थोड़ी देर बाद सुमन को राधे की आवाज सुनाई दी- 'सुमन ....! अरी ओ सुमन बिटिया ! जरा मोमबत्ती बाहर लाना तो; बहुत अँधेरा है.' सुमन की जान में जान आई. 'जी बाबू जी....' कहते हुए बाहर निकली. सुमन की आँखें माँ को ढूँढ रही थी- 'बाबू जी, माँ कहाँ है ? आप लोगों ने इतनी देर क्यों लगा दी आने में ? देखो न, बस बारिश होने ही वाली है; जल्दी आना चाहिए था ना. क्या कर रहे थे आप लोग अभी तक ?'

तभी पीछे से माँ नजर आयी. सुमन मुँह बनाते हुए बोली- 'आप दोनों को मेरी बिल्कुल चिंता नहीं है.' तभी अचानक अपनी माँ गौरी को देखते ही सुमन की आँखें फैल गयी. उनकी गोद में एक छोटा सा घायल बछड़ा था.

सुमन चुपचाप घर के अंदर चली गयी. सुमन का गुस्सा और भी तेज हो गया था. बोलने लगी कि इतनी रात हो गयी; और आप लोग इस बछड़े को लाये. इसकी क्या जरूरत थी. मैं यहाँ परेशान हूँ. तरह–तरह के मन में ख्याल आ रहे हैं और आप लोग, बस !'

राधे और गौरी ने सुमन को शांत करते हुए पूरी घटना की जानकारी दी- 'इस बछड़े ने कुछ देर पहले ही जन्म लिया था और इसकी माँ उसे छोड़ कर कहीं चली गयी थी. बछड़ा हम्मा...हम्मा... कर रहा था. इसकी मदद करने वाला कोई नहीं दिखा. तेज बारिश भी हो रही थी. बेचारा भीग रहा था. हमें लगा कि बछड़ा बेसहारा है. रात को भला कहाँ जायेगा ? यदि कभी कोई तुम्हें मदद माँगे तो क्या तुम छोड़ कर आ जाओगी सुमन ? मदद नहीं करोगी ? अरे ये तो बेचारा बोल नहीं सकता , तो क्या हम इनकी भाषा भी न समझें. हमें सब की मदद करनी चाहिए सुमन.' गौरी बोलती ही रही- 'सुमन, तुम ही बताओ. अभी थोड़ी देर पहले तुम हम दोनों के बगैर कैसे तड़प रही थी ? जबकि तुम्हें तो पता ही है कि हम आयेंगे ही; फिर भी?'

माँ और बाबू जी की बातें सुन सुमन ने अपनी ओर देखते उस मासूम बछड़े को गले से लगा लिया. राधे और गौरी सुमन व बछड़े दोनों को सहला रहे थे.

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सीख

रचनाकार- वेद प्रकाश दिवाकर

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बहुत पहले की बात है. पुराने जंगल में बंदर का एक परिवार रहता था. बंदर का बच्चा बहुत ही चंचल और शरारती था. माता-पिता हमेशा उसे समझाते थे कि शरारत नहीं करनी चाहिए , बड़ों की बात माना करो. लेकिन वह छोटा बंदर कभी किसी की बात नहीं सुनता और हमेशा अपनी मनमानी करता था.

एक दिन की बात है, बंदर और बंदरिया अपने बच्चे के साथ पानी पीने नदी किनारे पहुँचे. तभी बंदर के बच्चे की नजर पानी में बहते हुए संतरे पर पड़ी. बच्चे ने आव देखा न ताव और उस फल को खाने के लिए झट से नदी में कूद गया. पानी गहरा व बहाव तेज था. बच्चे को तैरना भी नहीं आता था. अतः बंदर का बच्चा नदी की तेज धार में बहने लगा और डूबने लगा; उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था. यह देखकर उसके पिता ने तत्काल नदी में छलांग लगाई और छोटे बंदर को किनारे तक ले आया. उसकी जान बच गई.

बंदर के बच्चे को अपने किए पर बहुत पछतावा हुआ और भविष्य में बड़ों की बात हमेशा मानने तथा कभी शरारत नहीं करने का प्रण किया.

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तीन दोस्त

रचनाकार- माही नाग कक्षा चौथी शा. प्राथमिक शाला पारा जिला बिजापुर

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सलिल की माँ और पत्तलें

रचनाकार- डॉ राकेश चक्र, उ.प्र.

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पुत्रवधू ने अपने पति सुरेश पर जादू बिखेरा तो वह भी पूरी तरह अपने माता - पिता के प्रति बदल गया . वह माता - पिता के साथ बहुत रूखा व्यवहार करने लगा, उसकी पत्नी तो पूर्व से दुर्व्यवहार कर ही रही थी. सीधे - साधे सास - ससुर उसके व्यवहार से बहुत आहत हो जाते, लेकिन पुत्र और पोते - पोतियों का मोह उन्हें गलत कदम उठाने से रोक देता.

यहाँ तक कि पुत्रवधू ने अपने सास - ससुर को पत्तलों पर भोजन कराना शुरू कर दिया था, ताकि वे उपेक्षित महसूस करें.

सुरेश के तीन बच्चे थे, दो पुत्र और एक पुत्री. बड़ा पुत्र सलिल बहुत समझदार था. जो कक्षा 6 में पढ़ रहा था. उसके बहन - भाई अभी छोटे थे.

उसने यह सब मंजर देखा तो उसने अपने माता - पिता से कुछ नहीं कहा, लेकिन मन ही मन उसने कुछ अच्छा करने का शुभ संकल्प ले लिया . उसने अपने दादा और दादी को भोजन कराने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर सहज भाव से ले लिया. उसकी माँ पत्तलों पर खाना परोस जाती, वह पत्तलें हटाकर चुपचाप भोजन को थाली में परोस देता. उसके दादा और दादी अपने पोते की करुणा से प्रफुल्लित हो जाते. उसे खूब आशीषें देते.

सलिल चुपचाप उन पत्तलों को साफ कर एक जगह एकत्रित करता रहता. उसकी माँ को इस सबकी बिल्कुल भनक न लगती.

इस तरह करते - करते काफी दिन गुजर गए.

एक दिन उसकी माँ ने उससे पूछा, ' बेटा सलिल क्या सफाई वाला रोज झूठी पत्तलें उठा ले जाता है ? पत्तलें कभी कूड़ेदान में दिखती नहीं हैं.'

सलिल ने बड़ी विनम्रता से अपनी माँ को उत्तर दिया, ' मम्मी मैंने वह सभी पत्तलें संभालकर रख ली हैं, जो तुम्हें और पापा को खिलाने के काम आया करेंगी. अब इस समय पत्तल का मूल्य केवल पचास पैसा है, बाद में ये बहुत महँगी हो जाएंगी.'

इतना सुनना था कि उसकी तेज - तर्रार माँ पानी - पानी हो गई. उसका मुख सिल गया, मलिन हो गया.

उसने सारी बातें अपने पति सुरेश को बताईं, तो दोनों पश्चाताप की अग्नि में जल गए और फूट - फूट कर रोते और क्षमा याचना करते हुए अपने माँ - पिता के चरणों में गिर पड़े.

यह अद्भुत दृश्य देखकर सलिल अपनी ममतामय करुणा और शानदार अभिनय पर मन ही मन चित्त में अपार शान्ति का अनुभव कर रहा था.

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दो पड़ोसियों की कहानी

रचनाकार- कु. भावना नवरंग, कक्षा- 8 वीं, शास. पूर्व माध्य. शाला बिजराकापा न, संकुल- लालपुर थाना, वि.ख. लोरमी, जिला- मुंगेली

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तरुण और वीर दोनों पड़ोसी थे. वह दोनों अकेले रहते थे. तरुण को पेड़ बहुत पसंद था. वीर को पशु बहुत पसंद था. दोनों पड़ोसी की खूब बनती थी. एक बार दोनों ने सोचा कि हम कहीं पर घूमने जाते हैं. वीर ने कहा मोबाइल से पता करते हैं घूमने जाना है. तरुण ने हाँ कहा. वीर ने कहा केदारनाथ चलते हैं. दोनों जाने के लिए तैयार हो गए. दोनों केदारनाथ जाके बहुत खुश हुए. दोनों पड़ोसी के मन को शांति मिली. आते समय आधे रास्ते में तरुण को चक्कर आ गया. वीर, तरुण को तुरंत अस्पताल ले गया. डॉक्टर ने वीर से कहा तरुण को कैंसर हो गया है. वीर को बहुत बड़ा झटका लगा. वीर, तरुण को भाई मानता था. जब तरुण को होश आया तो तरुण ने वीर से कहा कि मैं कुछ दिनों का मेहमान हूँ. तुम्हारे साथ समय का पता नहीं चला. मैंने तुम्हें बताया नहीं था. तुमने मुझे कभी भी भाई की कमी महसूस नहीं होने दी. तुम मुझे हमेशा मुसीबतों से बचाते थे. यह सब सुनकर वीर की आँखों से आँसू निकलने लगे. वीर ने उन बचे हुए कुछ दिनों में तरुण के लिए पेड़ और छोटे-छोटे पौधे लगाए. तरुण की यादों को सहेजने के लिए एक डायरी बनाई. वीर, तरुण के साथ पूरा समय बीतता था. कुछ दिन बीत जाने के बाद तरुण की मृत्यु हो गई. वीर अकेला हो गया. जिस जगह पर वह दोनों रहते थे, उस जगह को छोड़कर वीर चला गया. वीर को तरुण की जब-जब याद आती तो, वह अपनी डायरी को पढ़ता था. वीर अपने जीवन को तरुण की यादों में व्यतीत करने लगा.

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पसंद अपनी अपनी

रचनाकार- संगीता पाठक, धमतरी

pasand

मौली -मम्मी क्या बनायी हो?जल्दी परोसिये ना. प्रेयर में देर से पहुँचेंगे तो डाँट पड़ेगी.
मम्मी नाश्ते में ब्रेड बटर परोस देती है.
मौली -'ये क्या मम्मी ?मैं आपको दोसा चटनी बनाने के लिये बोली थी .'
मयंक-'मुझे तो ब्रेड बटर बहुत पसंद है .मम्मी मैं तो मजे से खा लूंगा.'
मम्मी -'मौली बेटा !कल शर्मा आंटी मेघा की एक ड्रेस सिलने के लिये दे गयी थी .वह वार्षिकोत्सव में भाग ली है ना.गरबा डांस करेगी.मैं सुबह से उठकर लंहगे में जरी लगा रही थी .'
मौली -'दिखाइये मम्मी !'
मम्मी भीतर से गरबा ड्रेस लेकर आती है .
मम्मी -'कैसी लग रही है?ये मैं शर्मा आंटी की साड़ी से बनायी हूँ.'
मौली -'वाह मम्मी !!बहुत शानदार है .बाजार में पाँच हजार से कम कीमत में नहीं मिलेगी.आपके हाथ में जादू है मम्मी!'
मम्मी-'कल मैं नाश्ते में मसाला दोसा और चटनी बना दूंगी.'
सारी बेटा.तुम्हें आज का नाश्ता पसंद नहीं आया .
मौली - 'आप इतनी व्यस्त होकर मेरे लिये नाश्ता परोस दी है .ये भी कम बड़ी बात नहीं है .'
दादा जी-'बच्चों !सड़क के किनारे किनारे साइकिल चलाकर जाना .शहर में इन दिनों एक्सीडेंट बहुत हो रहे हैं .ज्यादा स्पीड में साइकिल नहीं चलाना.'
दादी -'वो श्यामू दूध वाला है ना उसे भी कल किसी कार वाले ने ठोकर मार दी तो बेचारे का पैर फ्रेक्चर हो गया है .'
मुझे भी इन बच्चों की चिंता लगी रहती है.
मौली -'आप चिंता मत करिये दादी .हम धीमी रफ्तार से ही साइकिल चलाते हैं.'
दोनों बच्चे चरण स्पर्श करके स्कूल चले जाते हैं.

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चीकू

रचनाकार- संगीता पाठक, धमतरी

chiku

एक छह वर्षीय बालक चीकू अपनी मस्ती में गुनगुनाता हुआ घर के पास स्थित कपड़े की दुकान के पास ठिठक कर रुक जाता है.वह धीरे से कहता है' दोस्त तुम कितने सुंदर हो लेकिन तुम बोल नहीं सकते हो.तुम्हारी ड्रेस बहुत सुंदर है.मैं तुम्हें लक्की नाम से बुलाऊंगा.'

बालकों की दुनिया हम बड़ों से पृथक होती है.वे अपनी काल्पनिक दु‌निया में उड़ान भरते हैं और खुशी से चहकते रहते हैं.कुछ दिनों से दुकान के सेठ किशोरी लाल उस पुतले के पीछे खड़े होकर चीकू की बात सुन कर मजा लेने लगे थे.

दीपावली का समय नजदीक था.लोगों के घर में साफ सफाई चल रही थी.दुकान के नौकर ग्राहकों को कपड़े दिखा रहे थे तभी किशोरी लाल की नजर बालक चीकू पर पड़ी वह उस गुड्डे से बात कर रहा था.

किशोरीलाल उसकी बात सुन ने लगे वह कह रहा था

लक्की -तुम आज इस नयी ड्रेस में कितने सुंदर दिख रहे हो.मेरी माँ इस दीपावली में मेरे लिये कपड़े नहीं खरीदेगी

क्योंकि उनके पास पैसे नहीं हैं.

किशोरीलाल का दिल भर आया.दूसरे दिन जब वह बालक फिर उस गुड्डे के पास आया और बातें करने लगा.

चीकू-'लक्की !तुम ही तो हो जो मेरी सारी बातें सुनते हो.माँ से भी मैं जिद नहीं करता.वो सबके घर में बरतन माँजने जाती हैं.मेरे लिये वो खिलौना भी नहीं ले पाती हैं.'

किशोरी लाल ने धीरे से कहा --'दोस्त ;मेरे पाँव के पास देखो ये गिफ्ट तुम्हारे लिये है.'

चीकू ने नीचे देखा तो एक बड़ा सा डिब्बा रखा हुआ था.उसने थैंक्यू कहा और खुशी से उछलता हुआ घर चला गया.

किशोरी लाल उसे जाते हुये देख रहे थे.उस डिब्बे में पेंट शर्ट और कुछ खिलौने उन्होंने रख दिये थे.अगले दिन दीपावली थी.चीकू नयी ड्रेस पहन कर उसी गुड्डे के पास आया.किशोरी लाल ने पीछे छिपकर उसकी बातें सुनी.

चीकू '-दोस्त देखो मैं कैसा दिख रहा हूँ?मेरी माँ ने कहा है कि तुम अपने दोस्त को गिफ्ट के बदले थैक्यू बोलकर आना.थैक्य यू दोस्त तुम बहुत अच्छे हो'

पुतले के पीछे छिपे किसोरी लाल जी की आँखों में खुशी के आँसू आ गये.

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