कहानियाँ
पंचतंत्र की कहानी
भेड़िया आया
बहुत समय पहले की बात है, एक गाँव में एक चरवाहा रहा करता था. उसके पास कई सारी भेड़ थीं, जिन्हें चराने वह पास के जंगल में जाया करता था. हर रोज सुबह वह भेड़ों को जंगल ले जाता और शाम तक वापस घर लौट आता. पूरा दिन भेड़ घास चरतीं और चरवाहा बैठा-बैठा ऊबता रहता. इस वजह से वह हर रोज खुद का मनोरंजन करने के नए नए तरीके ढूँढ़ता रहता था.
एक दिन उसे एक नई शरारत सूझी. उसने सोचा, क्यों न इस बार मनोरंजन गाँव वालों के साथ किया जाए. यही सोच कर उसने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दिया 'बचाओ-बचाओ भेड़िया आया, भेड़िया आया.'
उसकी आवाज़ सुन कर गाँव वालें लाठी और डंडे लेकर दौड़ते हुए उसकी मदद करने आए. जैसे ही गाँव वालें वहाँ पहुँचे, उन्होंने देखा कि वहाँ कोई भेड़िया नहीं है और चरवाहा पेट पकड़ कर हँस रहा था. 'हाहाहा, बड़ा मज़ा आया. मैं तो मज़ाक कर रहा था. कैसे दौड़ते-दौड़ते आए हो सब, हाहाहा.' उसकी ये बातें सुन कर गाँव वालों का चेहरा गुस्से से लाल-पीला होने लगा. एक आदमी ने कहा कि हम सब अपना काम छोड़ कर, तुम्हें बचाने आए हैं और तुम हँस रहे हो ? ऐसा कह कर सभी लोग वापस अपने अपने काम की ओर लौट गए.
कुछ दिन बीतने के बाद, गाँव वालों ने फिर से चरवाहे की आवाज़ सुनी. 'बचाओ बचाओ भेड़िया आया, बचाओ.' यह सुनते ही, वो फिर से चरवाहे की मदद करने के लिए दौड़ पड़े. दौड़ते-आवाज़ गाँव वालें वहाँ पहुंचे, तो क्या देखते हैं? वो देखते हैं कि चरवाहा अपनी भेड़ों के साथ आराम से खड़ा है और गाँव वालों की तरफ़ देख कर ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा है. इस बार गाँव वालों को और गुस्सा आया. उन सभी ने चरवाहे को खूब खरी-खोटी सुनाई, लेकिन चरवाहे को अक्ल न आई. उसने फिर दो-तीन बार ऐसा ही किया और मज़ाक में चिल्लाते हुए गाँव वालों को इकठ्ठा कर लिया. अब गाँव वालों ने चरवाहे की बात पर भरोसा करना बंद कर दिया था.
एक दिन गाँव वालें अपने खेतों में काम कर रहे थे और उन्हें फिर से चरवाहे के चिल्लाने की आवाज़ आई. 'बचाओ बचाओ भेड़िया आया, भेड़िया आया बचाओ', लेकिन इस बार किसी ने भी उसकी बात पर गौर नहीं किया. सभी आपस में कहने लगे कि इसका तो काम ही है दिन भर यूँ मज़ाक करना. चरवाहा लगातार चिल्ला रहा था, 'अरे कोई तो आओ, मेरी मदद करो, इस भेड़िए को भगाओ', लेकिन इस बार कोई भी उसकी मदद करने वहाँ नहीं पहुंचा.
चरवाहा चिल्लाता रहा, लेकिन गाँव वालें नहीं आए और भेड़िया एक-एक करके उसकी सारी भेड़ों को खा गया. यह सब देख चरवाहा रोने लगा. जब बहुत रात तक चरवाहा घर नहीं आया, तो गाँव वालें उसे ढूँढते हुए जंगल पहुँचे. वहाँ पहुँच कर उन्होंने देखा कि चरवाहा पेड़ पर बैठा रो रहा था.
गाँव वालों ने किसी तरह चरवाहे को पेड़ से उतारा. उस दिन चरवाहे की जान तो बच गई, लेकिन उसकी प्यारी भेड़ें भेड़िए का शिकार बन चुकी थीं. चरवाहे को अपनी गलती का एहसास हो गया था और उसने गाँव वालों से माँफ़ी माँगी. चरवाहा बोला 'मुझे मॉफ कर दो भाइयों, मैंने झूठ बोल कर बहुत बड़ी गलती कर दी. मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था.'
कहानी से सीख- इस कहानी से यह सीख मिलती है कि कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए. झूठ बोलना बहुत बुरी बात होती है. झूठ बोलने की वजह से हम लोगों का विश्वास खोने लगते हैं और समय आने पर कोई हमारी मदद नहीं करता.
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कहां जाबे डोकरा
रचनाकार- भोला राम सिन्हा, धमतरी
खेल अइसन कला आय जेला लईका सियान अपन उमर मुताबिक सबो खेलथे.कोनो खेल म अकल जादा लागथे,कोनो ह ताकत के भरोसा अउ कोनो-कोनो खेल म अकल अउ ताकत दुनो के जरुरत होथे.माने जाय ते खेल ल महतारी के पेट ले सीख के आय रथे तभे तो नान्हे लईका ह अपन हाथ गोड़ ल फेंक -फेंक के खेलत मुस्कावत रथे.थोर बहुत बाढ़थे तहान फुग्गा ,घुन-घुना सब खेलथे..
अइसने जिनगी भर कोनो न कोनो खेल खेलथे.कतको खेल अइसन हे जेला पुरखौती खेल केहे जा सकथे अउ कतको खेल ल लईकच मन ह सिरजन कर के खेलथे.अइसने हमर छत्तीसगढ़ म कतकोन पारम्परिक खेल हावय.
अइसने एक ठन खेल हावय,, कहाँ जाबे डोकरा,
येमा 10-20 लईका खेल सकथे.येमा पहिली दांव देवइया चुनथे अउ बाकी लईका मन एक दूसर के हाथ ल धर के गोल घेरा बना के दाम देवइया ल बीच म राखथे अब खेल सुरु होथे.गोल घेरा ल माने जाय दांव देवइया के घर, बाकी घेरा म लईका मन खडे होथे.
लईका मन कथे- कहां जाबे डोकरा.
दांव देवइया -जाहूं गली खोर.
लईका मन -रुपिया पईसा लेगबो तोर
दांव देवईया-घर ले मोला निकाल दे
लईका मन-चार चवन्नी डाल दे
दाम देवइया ह ठठ्ठा मटठा के पईसा देथे ,तहान लईका मन घेरा घेरा ल बड़े कर देथे.
दांव देवइया -येती ले जाहूं (एक जगह हाथ पकड़े लईका ल् कथे)
लईकामन -तारा लगाहूं
पहिली हमला रोटी खवाबे ,तभे ते घर ले निकल के जाबे.
डोकरा मन -मोर घर गहूं पिसान नइये.
सब लइका चिल्लाथे-हाबे,हाबे,हाबे.
अउ कोनो भी चीज ल पिसान मान ,लान के मढ़ा देथे.
डोकरा -गहूं पिसायेंव ओ रिहिस घुन हा
आज सिरागे,मोर घर नुन हा.
लइका मन कथे-रोटी खवाये के डर म
नुन लुकाये हस घर म
अइसे कही के एक खेलइया नुन लान के देथे.
डोकरा -तुमन खाहू ,महूं ल खवाहू,तभे तुंहर बर रोटी बनाहूं.
डोकरा रोटी बनाथे तब.
चोर मन कथे-रोटी ह बनगे अब नौ दस
डोकरा आज नहाय हस
डोकरा के नहाय बर घेरा ल टारथे ओहा नहाय बर चल देथे.डोकरा के आवत ले चोर मन सब रोटी ल खा देथे अउ सब येती ओती भाग जथे.ओला डोकरा बने रथे तेंहा छुये बर दंउड़ाथे.जे लईका ल छू लेथे ओ लईका ह् फेर दांव देथे.तब फेर जइसन सुरु म खेलिन ओइसने फेर खेलथे.
ये खेल म कोनो समान के जरुवत नइ परे न बड़े जान मैदान के.नोनी घलो खेलथे बाबू घलो अउ सबो झन मिझरा घलो खेलथे.कोनो जगा चोर सिपाही कथे कोनो जगा डोकरी डोकरा.नाव सार्थक राहय ते मत राहय फेर लईका मन ल ये खेल -खेल म अब्बड़ मजा आथे.काबर के येमा खेल के संगे संग लयबद्ध गोठ बात घलो होथे.
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कैकू और क्रैबी
रचनाकार- टीकेश्वर सिन्हा ' गब्दीवाला ', बालोद
खरखरा जलाशय के आसपास के गाँवों के किसानों ने अपने सूखे खेतों में पानी ले जाने के लिए सिंचाई विभाग को अर्जी देकर जलाशय के मेन गेट को खुलवाया. पानी बड़ी तेजी से नहर नाली में बहने लगा. नहर नाली के मेड़किनारे में एक छोटा सा गड्ढा था. इस गड्ढे में मकरू केकड़ा सपरिवार रहता था. तेज जलप्रवाह के चलते मकरू का परिवार सम्भल नहीं पाया. एक भारी चट्टान से टकरा गया. पूरा परिवार तहस-नहस हो गया. मकरू के दो नन्हे बच्चों- कैकू और क्रैबी को छोड़ कर सभी काल के गाल में समा गये.
कहते हैं न कि ऊपरवाले ने जिनके तकदीर में जितने दिन लिख दिया, उतने दिन तो उन्हें जीना ही है. कैकू और क्रैबी को लगने लगा कि आज उन्हें एक नया जीवन मिला है. उन्होंने अपनी सलामती के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया. चूँकि कैकू बड़ा था, इसलिए क्रैबी को ढाँढस बंधाते हुए कहा- ' चिंता मत करना भाई. दुनिया में हमारे जैसे कई अनाथ बच्चे हैं. हम समझें, एक विपत्ति आई; और टल गयी. शुक्र करो कि हम बच गये. यूँ समझ लो कि माता-पिता और उन भाई-बहनों का हमारा साथ इतने ही दिनों के लिए था. ' अपने बड़े भाई कैकू की समझाइस से क्रैबी में हिम्मत आई. कैकू के और करीब आते हुए बोला- ' भैया ! मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाना. '
' तू कैसी बात करता है क्रैबी. मैं तुम्हें भला कैसे छोड़ सकता हूँ मेरे भाई. अब तो हम दोनों केवल एक दूसरे के लिए ही हैं. ऐसी बात कभी मत करना क्रैबी. ' कैकू की बातें सुन क्रैबी उससे लिपट गया. फिर दोनों एक साथ तैरते हुए बहुत दूर निकल गये. तभी उन्हें एक बिल दिखाई दिया. बिल के निकट गये. उन्हें बिल खाली व सुरक्षित लगा. वे बिल के अंदर घुस गये.
कैकू और क्रैबी अपने इस घर में बहुत खुश थे. वे अब जवान भी होने लगे थे. वैसे क्रैबी की कद-काठी कैकू से कम थी, क्योंकि उम्र में वह कैकू से बहुत छोटा था. पर दोनों भाई एक-दूसरे को बहुत चाहते थे. बड़ी आत्मीयता थी दोनों में. होना भी था, आखिर कोई तो नहीं थे उनके एक-दूसरे के सिवाय. कहीं भी जाना होता तो दोनों घर से एक साथ निकलते थे; और एक साथ ही वापस आते. हर खाने की चीज को मिल-बाँटकर खाते थे. यह भी सच है कि विपरीत परिस्थितियों ने दोनों भाईयों को उम्र से अधिक परिपक्व बना दिया था. अच्छे और बूरे समय में जीना सीख गये थे दोनों भाई. घर के आसपास कभी भी किसी तरह के खतरे का अहसास होता, झट से उनके कान खड़े हो जाते. बड़ी चालाकी से अपने घर में घुस जाते ; और दरवाजे को मिट्टी से ऐसे ढँक लेते कि किसी को पता तक नहीं चलता कि बिल के अंदर कोई रहता भी है. इस तरह कैकू और क्रैबी के सुख के दिन बीत रहे थे.
एक बार भीषण गर्मी के चलते नाली सुखने लगी. बहुत कम पानी रह गया. कैकू और क्रैबी अपने घर से कुछ ही दूरी पर आराम फरमा रहे थे. उन्हें नींद भी आने लगी थी. तभी उड़ता हुआ बक्कू बगुला आया. वह बड़ा धूर्त था. भरपेट मछली खाकर आ रहा था. बड़ा खुश था. अपने से छोटे जीव-जंतुओं को सताने में उसे बड़ा मजा आता था. उसकी नजर कैकू और क्रैबी पर पड़ी. उन्हें देखकर बक्कू के मुँह में पानी आ गया. वह अपनी धूर्तता पर उतर आया. देखा कि कैकू अपने दोनों दाढ़ों को जोड़कर सो रहा है. बक्कू को अच्छा मौका मिल गया. सोने पे सुहागा. कैकू के दोनों दाढ़ों को पकड़ लिया. कैकू हड़बड़ा गया. वह कुछ समझ नहीं पाया. तभी बक्कू के पंखों की आवाज से क्रैबी सतर्क हो गया. उसे माजरा समझ आ गया. देखा कि कैकू भैया को बक्कू बगुला ने पकड़ लिया है; और वह कुछ नहीं कर पा रहा है. फिर क्रैबी बिजली की तरह बक्कू पर टूट पड़ा. उसने अपने दोनों दाढ़ों से बक्कू के गरदन को पकड़ लिया. बक्कू क्रैबी के दाढ़े से अपनी गरदन को छुड़ा पाता; इससे पहले क्रैबी ने गरदन को पूरी तरह से कस लिया. बक्कू बगुला दर्द के मारे कराहने लगा. उसे दिन में तारे नजर आने लगे.
यह सब देख आँखों में आँसू लिये सरांगी नाम की मछली ने बक्कू बगुले को किसी तरह की सहायता करना उचित नहीं समझा, क्योंकि उसके सभी बच्चे भी बक्कू बगुले के भेंट चढ़ चुके थे.
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मृणालिनी
रचनाकार- वेद प्रकाश दिवाकर, सक्ती
बहुत पुरानी बात है , जब धरती पर चारों ओर जंगल ही जंगल थे. तभी दक्षिण के घने जंगलों में जीव - जंतु और जंगली- जानवर खूब फल - फूल रहे थे. कहीं कोई खाने-पीने की कमी नहीं थी.
इसी जंगल में मृणालिनी नाम के एक हिरणी का परिवार भी रहता था. मृणालिनी बहुत ही नेक और ममतामई थी. हिरनो के झुंड में उसकी बहुत मान - सम्मान थी. मृणालिनी अपनी छह माह की पुत्री बोना के साथ हंसी-खुशी जीवन बिता रही थी. मौसम बदलता गया और बदलते हुए मौसम के साथ बारिश में कमी होती गई , जिससे जंगल में सूखा पड़ने लगा. देखते ही देखते जंगल में खाने-पीने की भारी कमी होने लगी. हरियाली सूखने लगी साथ ही साथ झरने और तालों के जल स्तर घटने लगे.
तभी एक दिन अचानक सूरज की तेज गर्मी ने सूखे घास में आग लगा दिया और देखते ही देखते पूरा जंगल आग की ज्वाला में धधकने लगा. सभी जीव - जंतु अपनी जान बचाने के लिए छितर - बितर होकर भागने लगे.आग के इन लपटों ने सभी जीव - जंतुओं को जंगल छोड़ने पर मजबूर कर दिया. सभी जानवर इस अफरा - तफरी के साथ उत्तर दिशा की ओर निकल पड़े. मृणालिनी भी अपनी बेटी बोना के साथ उसी ओर चल पड़ी. लेकिन उत्तर दिशा में जाने के रास्ते में एक गहरी झील पार करना पड़ता था जो कि अब सुख कर आधा हो गया था और मगरमच्छों से भरा हुआ था. सभी जानवरों के साथ मृणालिनी भी अपनी बेटी बोना को लेकर झील में कूद पड़ी. मृणालिनी आगे - आगे और बोना पीछे-पीछे तैरने लगी. लेकिन कुछ ही दूर पहुंचने पर घात लगाए एक विशाल मगरमच्छ ने बोना की ओर झपटा ,बोना और मृणालिनी ने अपनी रफ्तार तेज की. लेकिन मगरमच्छ के आगे दोनों की रफ्तार कम थी. बोना ममता भरी स्वर में मिमयाती हुई मां के साथ तेजी से तैरने लगी. तब तक मौत का सौदागर मगरमच्छ उसके निकट पहुंच ही गया और बोना को झपटने लगा. मृणालिनी समझ गई अब बचना मुश्किल है , उसने तनिक भी देर ना करते हुए अपनी बोना की तरफ ममता मई भाव से देखते हुए पीछे मुड़ गई अब बोना आगे निकल चुकी थी और मृणालिनी मगरमच्छ के विशाल जबड़े में समा गई. उधर बोना पार पहुंच अपनी मां की तरफ देखने लगी. तब तक मां का बलिदान इतिहास बन चुकी थी, सब कुछ खत्म हो गया था. मगरमच्छ के जबड़े में फंसी मृणालिनी की पथराई आंखें मानो बोना को सदा खुश रहने का आशीर्वाद दे रही थी. बोना के आंखों के सामने अंधेरा छा गया.उसकी बदन शिथिल हो गई.अपनी मां के बलिदान को भीगी आंखों से देखने के सिवा बोना कुछ न कर सकी. मृणालिनी अपनी ममता को अमर करती हुई उस भयानक काल का ग्रास बन गई और मासूम बोना अपनी मां के यादों के सहारे भरी आंखों से अपने तनमन को संभालते हुए जीवन पथ पर बढ़ने लगी.
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ईमानदार चिंटू
रचनाकार- उर्मी साहू, छठवीं, स्वामी आत्मानंद शेख गफ्फार अंग्रेजी माध्यम स्कूल, तारबाहर बिलासपुर-
चिंटू पार्क में फुटबॉल खेल रहा था. इतने में ही उसकी नजर पास पड़े एक पर्स पर पड़ी. वह पर्स को हाथ में लेकर आस -पास देखने लगा कि कही कोई मिल जाए जो इस पर्स का मालिक हो. परंतु कोई नहीं दिखा. चिंटू ने उस पर्स को खोलकर देखा तो उसमे कुछ पैसे तथा आधार कार्ड था , जिसमे एक बुजुर्ग व्यक्ति की फोटो थी.चिंटू बड़ा ही ईमानदार तथा सत्यनिष्ठ बालक था इसलिए उसने वह पर्स पुलिस थाने में देना उचित समझा. पुलिस थाने पहुंचते ही चिंटू ने उन्ही बुजुर्गो को देखा , जिसका यह पर्स है. चिंटू यह देखते ही, खुश हो गया तथा उसने यह पुलिस अंकल के माध्यम से उन बुजुर्गो को देदी. बुजुर्गो ने उसकी ईमानदारी की तारीफ की और उसे आशीर्वाद देते चले गए. शिक्षा - हमे सदा ईमानदारी वा सत्यनिष्ठता से कार्य करना चाहिए.
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मोक्षांश की महत्वाकांक्षा
रचनाकार- बाल कहानी
मोक्षांश कक्षा आठवीं का होशियार बच्चा था,उसे अपनी होशियारी पर बड़ा घमंड था और हो भी क्यों न,अपनी क्लास में वो टॉपर था इसीलिए वह अपने सहपाठियों से न सीधी मुह बात करता था और न ही कभी उनसे दोस्ती की ख्वाहीश रखता.उसके इस व्यवहार से उसके सहपाठी हमेशा रुष्ट रहा करते थे.स्कूल सत्र का वह अंतिम महिना था जब, अचानक मोक्षांश के पिता का स्थानांतरण किसी दूसरे शहर में हो जाता है.यह जानकर वह बहुत दुखी होता है.और मन ही मन सोचता है-
'काश!पिता जी का स्थानांतरण नही हुआ होता!
तो इस वर्ष भी मै अपनी क्लास में अच्छे नम्बरों से पास होता
और टॉपर रहने का रिकॉर्ड बनाया होता.पर अफशोस!!
पता नही दूसरे स्कूल में मै....!'
कहते हुए सोचना बंद कर देता है.
आज मोक्षांश के लिए नई जगह में स्कूल का पहला दिन था,कुछ सहमा, झिझका, पर आत्मविश्वास का अहम साफ झलक रहा था.
क्लास में बच्चों की नजर मोक्षांश में जाके टिक गई.कुछ बच्चों ने दोस्ती करना चाहा पर,उसने उन बच्चों को अपने से तुच्छ समझकर,अनदेखा कर दिया.उसे अपनी होशियारी और टॉपर होने का अहंकार जो था.और फिर वार्षिक परीक्षा का टाईम-टेबल आ गया.सारे बच्चे तैयारी में लग गये.और नियत तिथि में परीक्षा सम्पन्न भी हुई.इधर मोक्षांश रिजल्ट के नम्बर का गुणा-भाग करना शुरु कर दिया.और फिर कुछ दिनों बाद रिजल्ट भी आ गया. सभी बच्चों की जिज्ञासा और धड़कनें तेज हो गई थी. पर मोक्षांश की महत्वाकांक्षा सिर चढ़ कर बोल रही थी.क्लास में वह हर किसी से यही कह रहा था-
मै टॉपर हूँ,टॉपर रहूँगा.
तभी क्लास टीचर आते ही सन्नाटा छा जाता है.टीचर ने सभी बच्चों को शुभकामनाएं देते हुए उन बच्चों को पास बुलाती हैं जिनका रिजल्ट इस वर्ष क्लास में सबसे अच्छा था.
तभी-
'सबसे पहले स्थान पर हैं !!...
मिस लिली,दूसरे स्थान !!..निधि,तीसरे !!..निशि.'
उत्साह के साथ घोषणा करते हैं.
पुरी क्लास तालियों की गड़-गड़ाहट से गूंज उठी.इधर मोक्षांश रिजल्ट सुनकर सिर पीट लिया,और सिर लटका लिया.
उसकी महत्वाकांक्षा पर पानी फिर गया था. तभी टीचर की नजर उस पर पड़ी और पास आकर उन्होंने कहा-
मोक्षांश ! देख लिया न अपना रिजल्ट ?
तुम अन्य बच्चों को तुच्छ समझते रहे. उनकी सतत् निगरानी करते रहे.उनके रिजल्ट को अपने रिजल्ट से तुलना करते रहे. सारा समय गुणा-भाग में बर्बाद कर दिया.'काश!!अपनी ऊँची महत्वाकांक्षाओं को भूल कर पढ़ाई में ध्यान लगाया होता, तो यह दिन देखना नही पड़ता.'
मोक्षांश के महत्वाकांक्षी होने का भूत उतर चुका था.और सिर नीचे किए टीचर के हर-एक शब्दों को गौर करते हुए पश्चाताप के आंसु बहा रहा था.
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दर्द-ए-दिल
रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू', गरियाबंद
शीला मुझे तुम्हारी बहुत फिक्र हो रही है,और होगी भी क्यों नहीं; उन्तीस बरस की जो हो गई हो. शादी की उम्र हो गई है तुम्हारी. पता नहीं तुमसे कौन शादी करेगा. शीला की बड़ी माँ मालती के स्वर में चिंता से ज्यादा ताना था. चारों तरफ से सिर्फ एक ही आवाज कानों में गूँजती कि तुमसे शादी कौन करेगा शीला....?
यह समाज शीला के माता–पिता को प्रश्नों से आहत कर डालते थे. जिंदगी भर बिठा के रखने के तानों ने उनका जीना हराम कर दिया था. डूबते को तिनके का सहारा भी नहीं मिलता. अब करें तो करें क्या ? शीला को अपनी ही जिंदगी पहाड़ लगने लगी थी. बार–बार वह अपने आप को कोसती कि आखिर क्यों उसके साथ ही इस तरह का व्यवहार किया जाता है.
एक दिन शीला ने भी ठान लिया कि उसे समाज को क्या और कैसे जवाब देना है. शीला को देखते ही लोग तरह–तरह की बातें करते, लेकिन शीला को लोगों की बातें ही अंदर से मजबूत बनाती थी.
लोगों को जरा भी उम्मीद नहीं थी कि वह कुछ कर पायेगी. पर शीला ने भी हार नहीं मानी. पढ़ाई-लिखाई में लग गई. आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई. वह जिलाधिकारी बन गई. सबकी आँखें फटी की फटी रह गई.
शीला के लिए अब बड़े–बड़े घरों से रिश्ते आने लगे. जिन लड़कों ने पाँच साल पहले उसे ठुकरा दिया था ; वे पछताने लगे. शीला के माता-पिता ने उसके जिलाधिकारी बनने की खुशी में एक छोटा-सा बधाई समारोह रखा ,जिसमें जाति-समाज के लोगों के साथ पूरा गाँव आमंत्रित था. उत्सव का कार्यक्रम चल ही रहा था, तभी एक लड़के ने शीला को प्रपोज किया. बातों ही बातों में उसने शीला के माता–पिता के समक्ष अपनी बात रख दी.
लड़के की बातें सुन शीला भौंचक रह गई. उसे लगा कि आज अचानक मेरे प्रति इसका प्रेम कैसे उमड़ आया. शीला ने तुरंत इंकार करते हुए लोगों के समक्ष अपनी बातें रखी- ' क्या हो गया है आज लोगों को माँ ? कल तक तो जो लोग मुझे देखना पसंद नहीं करते थें, वे मेरी खुशी में शामिल हो गए. आखिर क्यों ? यह समाज चाहता क्या है ? यही न, चाहे लड़की अच्छी हो या बुरी; अगर उसके पास पैसे हैं तो उसकी शादी हो सकती है, और नहीं है तो नहीं ? है न ? ' शीला बौखला-सी गयी थी- ' मैं कल भी अपाहिज थी; और आज भी हूँ. बैसाखी ही मेरा सहारा रही है. लेकिन सिर्फ अपने पैरों से हूँ , न कि दिमाग से. दो साल पहले मेरे पड़ोसी उमेश की शादी धूमधाम से हुई ; जबकि वह हाथ और पैर से अपंग है. अब मेरी बारी आई तो सब तरफ से ऊंगलियाँ उठ रही हैं, क्योंकि उस समय मैं अपाहिज थी; या मेरे पास पैसे नहीं थे ? क्या अपाहिज होना लड़कियों के लिए अभिशाप है ? अब बेचारी उमेश की पत्नी को ही देख लो, ठीक-ठाक होकर भी अपाहिज पति से पाला पड़ा है उसका. क्या उनके सपने नहीं होंगे, उनकी जिंदगी बर्बाद नहीं हुई ? आप लोगों की सोच के अनुसार एक अच्छी-भली लड़की अपाहिज लड़के से शादी कर सकती है, लेकिन लड़का नहीं. आज लोगों के इस भेदभाव ने साबित कर ही दिया कि उनकी सोच अपाहिज है. मुझ जैसी अन्य लड़कियों को, सिर्फ शरीर के कुछ अंग काम न कर पाने पर ऐसी सोच ही उन्हें कमजोर बनाती है. जहाँ हमें सहारे की जरूरत होती हैं, वहाँ अपाहिज होने की बात याद दिलायी जाती है.
आज शीला अपना दर्द सबके सामने रख दी. फिर क्या, न सिर्फ शीला के; बल्कि उसके माता–पिता की आँखों से आँसू झरते जा रहे थे. पार्टी से लोग नजरें झुका कर खिसकने लग गये.
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फटाखे की जिद
रचनाकार- दक्ष मानिकपुरी, कक्षा 4थी, शास. प्राथमिक शाला सिल्ली, संकुल दाबो, मुंगेली
एक गाँव में सोनू और बंटी दो भाई अपने माता-पिता के साथ रहते थे. दोनों भाई पढ़ने विद्यालय जाते थे वो दोनों भाई पढ़ने लिखने में काफी होशियार थे ,लेकिन स्वभाव से जिद्दी थे.
एक दिन वो अपने पिताजी से फटाखे के लिए जिद करने लगे. पिताजी के लाख समझाने के बाद भी नहीं माने. पिताजी मजबूर होकर फटाखे ले आए. दोनों भाई खुश हुए और सोनू ने जैसे ही फटाखे फोड़े फटाखे के कुछ टुकड़े सोनू के आँख में चली गई. सोनू जोर - जोर से रोने लगा. उनके पिताजी डर गए और इलाज कराने अस्पताल ले गए. डॉक्टर ने बताया सोनू अब एक आँख से नहीं देख पाएगा.
आज सोनू एक आँख से देखता है. फटाखे खरीदने के लिए पिताजी से जिद करने वाले दिन को याद करके बहुत पछताता है.
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि बच्चों को फटाखे की जिद कभी नहीं करनी चाहिए और अपने माता-पिता की बात को मानना चाहिए.
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देव और भेड़िया
रचनाकार- दीपक पात्रे, कक्षा 5वीं, शास. प्राथ. शाला सिल्ली, संकुल दाबो, मुंगेली
महलपुर राज्य में एक राजा राज करता था. राजा ने धूमधाम से शादी की. शादी के कुछ साल बाद उनकी रानी का एक पुत्र पैदा हुआ. राजा और रानी ने अपने पुत्र का नाम देव रखा. देव धीरे धीरे बड़ा होता गया. 6 साल बाद राजा ने अपने पुत्र को एक ऋषि के आश्रम में भेज दिया. देव आश्रम में ऋषि के पास कई वर्षों तक अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुण होकर ऋषि के आज्ञा से अपने माता-पिता के पास लौट आया. कुछ दिन बाद उनके राज्य में एक शिकारी भेड़िया आया और धीरे धीरे आदमियों को मारकर खाने लगा. इससे राजा और समस्त प्रजा परेशान हो गए. इस बात का पता चलने पर देव ने भेड़िए को मारने के लिए सोचा. फिर दूसरे दिन भेड़िया शिकार के तलाश में किसी आदमी को मारने आया. देव देखते ही हथियार लेकर भेड़िया को मारने के लिए दौड़ा. भेड़िया भी देव को अपना शिकार समझ झपटा. दोनों में लड़ाई होने लगी और कुछ ही देर में देव ने भेड़िया को मार गिराया. इस तरह देव ने अपने राज्य का रक्षा किया.
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लालची बंदर
रचनाकार- कु. खुशबू घृतलहरे, कक्षा 5वीं, शास. प्राथ शाला सिल्ली, संकुल दाबो, मुंगेली
एक लालची बंदर था. बंदर खूब उछल-कूद करता और जानवरों के भोजन चुरा कर खा जाता. सभी जानवर उससे परेशान रहते थे. एक दिन खाने की तलाश में घूम रहा था. रास्ते में एक चिड़िया रोटी का एक टुकड़ा ले जा रही थी. देखते ही बंदर चुप के से रोटी का टुकड़ा छीन लिया. चिड़िया रोने लगी. रोते-रोते हाथी से मदद मांगने गई. हाथी बंदर को सबक सिखाने के लिए आम के कुछ फल रास्ते में रख दिया और बंदर के आने का इंतज़ार करने लगा. कुछ देर में बंदर आम चुराने आया, मौका पाकर हाथी ने अपनी सूंढ़ से बंदर की पूँछ पकड़कर गोल गोल घुमाया और नदी में फेंक दिया. बंदर नदी में डूबने ही वाला था. हाथी ने तरस खा कर बंदर को बाहर निकाला.
इस तरह लालची बंदर को अपनी गलती का एहसास हुआ. सभी जानवरों से माफी मांगा.
सीख- लालची स्वभाव से इंसान भटक जाता है. मेहनत कर आत्मनिर्भर बनना चाहिए.
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पेड़ बोला
रचनाकार- कु. प्रियंका साहू, कक्षा 5वीं, शास. प्राथ. शाला सिल्ली, संकुल दाबो, मुंगेली
माहीपुर गाँव के एक गरीब परिवार में नारायण नाम का एक लड़का था. नारायण बहुत होशियार व समझदार था. गांव के ही विद्यालय में कक्षा पांचवी पढ़ता था. उनके माता-पिता मजदूरी का काम करते थे. नारायण घर के कामों में अपने माता-पिता का मदद करते थे.
एक दिन नारायण जलाऊ लकड़ी लाने के लिए जंगल गया. एक पेड़ को काटना शुरू ही किया था कि उई-उई की आवाज आई. नारायण इधर-उधर देखा पर कोई दिखाई नहीं दिया. फिर पेड़ काटना शुरू किया फिर उई-उई मुझे मत काटो मैं सबको छायाँ और हवा देती हूँ. नारायण ठीक है कहकर दूसरे पेड़ की काटने लगा, पेड़ बोला- उई-उई मुझे मत काटो मैं सबको खाने के लिए ताजे ताजे फल देती हूँ. नारायण ठीक है कहकर चला गया इसी तरह जिस पेड़ के पास जाता पेड़ लकड़ी काटने से मना कर देते. अंत में नारायण निराश होकर एक पेड़ के नीचे बैठ गया. सोचने लगा बिना लकड़ी के ही घर जाना पड़ेगा फिर शाम को माँ खाना कैसे बनाएगी? तभी एक बुजुर्ग पेड़ ने अपनी एक सूखी टहनी दे दी और नारायण खुशी से लकड़ी लेकर घर आ गया.
सीख- पेड़ पौधों से शुद्ध हवा पानी मिलता है. पेड़ पौधों को नहीं काटना चाहिए. बल्कि उनकी देखभाल करना चाहिए.
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स्कूल में कैप्टन का चुनाव
रचनाकार- यशवंत पात्रे, कक्षा 8 वीं, शासकीय पूर्व माध्यमिक शाला बिजराकापा, मुंगेली
एक गाँव था. उस गाँव में एक स्कूल था. उस स्कूल के बच्चे बहुत ही शोरगुल करते थे. वहाँ के शिक्षक बहुत अच्छे थे. उस स्कूल में जब शिक्षक एक कक्षा में अध्यापन कराते तो दूसरे कक्षा के बच्चे बहुत शोरगुल करते थे.तब शिक्षक ने कहा- तुम लोग बहुत शोरगुल करते हो. एक कक्षा को पढ़ाओ तो दूसरे मटरगस्ती करते हो, तो आज तुम लोगों के लिए क्लास कैप्टन का चुनाव करते हैं, जिसमें उप-कैप्टन और मुख्य कैप्टन रहेंगे. ऐसा शिक्षक ने बच्चों से कहा तो उस स्कूल के बच्चों ने पूछा शिक्षक क्लास कैप्टन का काम क्या होता है? तब शिक्षक बोले की क्लास कैप्टन यदि शिक्षक समय पर ना आए तो सही समय में प्रार्थना कराना, क्लास के विद्यार्थी यदि हल्ला करें तो उसे चुप कराना, यदि शिक्षक दूसरे क्लास को पढ़ा रहे हैं तो खुद अपने क्लास को पढाना, क्लास कैप्टन ऐसे काम करते हैं,यदि कोई बच्चा आपस में लड़ाई करे तो मुख्य कैप्टन उसे सुलझाने में मदद करते हैं. शिक्षक ने कहा- तुम लोगों का चुनाव करते हैं, तो बताओ कौन-कौन क्लास कैप्टन के चुनाव में भाग लेना चाहते हो? तीन बच्चे खड़े हुए नाम चिंकू, मोहन और पिंकी. इन लोगों ने कहा- सर हम क्लास कैप्टन के चुनाव में खड़े होंगे. शिक्षक ने कहा- ठीक है, तुम लोगों का मतदान कराते हैं. सभी बच्चों ने चिंकू और मोहन को मतदान किया तो शिक्षक बोले- चिंकू और मोहन में से मोहन मुख्य कैप्टन और चिंकू उप कैप्टन बनाया जाता है, तो एक बच्चा ने कहा- सर चिंकू और मोहन ने धोखेबाजी किया है. शिक्षक बोला- कैसे? इन्होंने कई सारे अपने नाम के पर्ची खुद बनाकर डाले हैं. शिक्षक ने कहा- तो कुछ बच्चे ने तो इन्हें दिए हैं, तो वह बच्चा बोलता है- सर इन्होंने वह वोट खरीदे हैं. सर बोले- क्यों ऐसा करते हो? ईमानदारी से कैप्टन बना करो. शिक्षक ने कहा- तुम दोनों ने धोखेबाजी किया है. पिंकी को क्लास कैप्टन बनाया जाता है. मोहन मुख्य कैप्टन बन रहा था तो उसे उप कैप्टन बनाया जाता है, कहकर पिंकी और मोहन को कैप्टन बना दिया.
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आलसी खरगोश
रचनाकार- कु. नीलम भद्रे, कक्षा - चौथी, शासकीय प्राथमिक शाला सिल्ली, मुंगेली
जंगल में खरगोशों का झुंड रहता था. उनमें से एक खरगोश बहुत ही आलसी था. वह दिन भर बहुत सोता था. इसलिए कमजोर भी हो गया था. एक दिन खरगोशों का झुंड किसान के खेत में गाजर खाने गया. किसान ने झुंड को गाजर खाते देख डंडे लेकर दौड़ाया आलसी खरगोश गाजर खाता रहा. किसान को देख भागना चाहा पर भाग नहीं सका और पकड़ा गया. किसान ने आलसी खरगोश को पिंजड़ा में बंद कर दिया. कुछ दिन बाद बड़ी मुश्किल से खरगोश भागने में सफल हुआ.
सीख- हमें कभी भी आलस नहीं करना चाहिए. आलसी व्यक्ति कभी सफल नहीं होता है.
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