कहानियाँ

हमारे पौराणिक पात्र- बालक ध्रुव

पुराणों में ऐसी अनेक कहानियाँ हैं,जो सांकेतिक रूप से हमें जीवन में सफलता के सूत्र बताती है. आज हम विष्णु पुराण से बालक ध्रुव की कथा आपको बता रहे हैं.

राजा उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो रानियाँ थीं. राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र हुए. सुनीति बडी रानी थी किंतु राजा उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था. एक बार राजा उत्तानपाद ध्रुव को गोद में लिए बैठे थे तभी छोटी रानी सुरुचि वहाँ आई.ध्रुव को राजा की गोद में बैठा देख कर वह ईर्ष्र्या से जल उठी. झपटकर उसने ध्रुव को राजा की गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उनकी गोद में बिठाते हुए ध्रुव से कहा, 'रे मूर्ख! राजा की गोद में वही बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ है.तू मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुआ है इस कारण तुझे राजा की गोद में तथा राजसिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं है. जब तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होगा तभी राजपद को प्राप्त कर सकेगा.

पाँच वर्ष के बालक ध्रुव को अपनी सौतेली माता के इस व्यवहार पर बहुत क्रोध आया पर वह कर ही क्या सकता था? इसलिए वह अपनी माँ सुनीति के पास जाकर रोने लगा.सारी बातें जानने के पश्चात् सुनीति ने कहा, 'संपूर्ण लौकिक तथा अलौकिक सुखों को देनेवाले भगवान नारायण के अतिरिक्त तेरे दुःख को दूर करनेवाला और कोई नहीं है. तू केवल उनकी भक्ति कर.'

माता के इन वचनों को सुनकर बालक ध्रुव भगवान की भक्ति करने के लिए निकल पडा. मार्ग में उसकी भेंट देवर्षि नारद से हुई. नारद मुनि ने उसे वापस जाने के लिए समझाया किंतु वह नहीं माना. तब ध्रुव के दृढ संकल्प को देख कर नारद मुनि ने उसे 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र की दीक्षा देकर उसे सिद्ध करने की विधि समझा दी.बालक ध्रुव ने यमुना नदी के तट पर मधुवन में जाकर 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र के जाप के साथ भगवान नारायण की कठोर तपस्या की.अल्पकाल में ही उसकी तपस्या से भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन देकर कहा, 'हे राजकुमार! मैं तेरे अन्तःकरण की बात जानता हूँ.तेरी सभी इच्छाएँ पूर्ण होंगी.'

इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि दृढ संकल्प से ईश्वर शीघ्र प्रसन्न होकर हमारा कल्याण करते हैं.

पढ़ाकू शेर

रचनाकार- डॉ. मंजरी शुक्ला, पानीपत

चिड़ियाघर घूमते-घामते अचानक बबलू का सामना शेर से हो जाता हैI डर के मारे बबलू के हाथ पैर काँपने लगते है.

शेर हँसते हुए बोला- 'डलो मत, मै सिर्फ़ तमातल और दाजल थाता हूँ.'

'तुम... तुम तो तोतले हो!' बबलू ने आश्चर्य से कहा

'हाँ.. थई पहचाना' शेर ने जवाब दिया

'मै परना चाहता हूँ.' शेर ने कहा

'पर मेरे पास तो किताब ही नहीं है.' बबलू बोला

'मेले पाछ है, देथो...'शेर ने एक रंगीन चित्रवाली किताब दिखाते हुए कहा

'कितनी सुन्दर किताब! कहाँ से आई?'

'एक छोता बच्चा छोल दया था.'

'अरे वाह, यह तो बहुत सुन्दर किताब है.' बबलू बोला

'हाँ...अब जल्दी से परा दो.' शेर ने उत्सुकता से कहा

बबलू बोला - 'क से कबूतर'

शेर ने दोहराया-'क से कबूतड़'

बहुत बढ़िया- 'ख से खरगोश'

शेर खुश होते हुए बोला- 'थ से थरदोश'

शेर किताब पर झुकते हुए बोला- 'और बटाओ.. जल्दी बटाओ सारा परा दो मुझे.'

बबलू हँस पड़ा और उसने शेर को सभी चित्र दिखाते हुए पूरी किताब पढ़ा दीकिताब बंद करते हुए बबलू बोला-'अब मैं चलता हूँ.'

शेर यह सुनकर दुखी हो गया और बोला-'जल्दी आना, दुछली तीताब लेतल'.

'हाँ..तुम्हारे खाने के लिए गाजर और टमाटर भी लाऊंगा.'

'औल.. औल..किछि को बताना मत कि मैं तोतला हूँ' शेर ने धीरे से कहा

बबलू दौड़कर शेर के गले लग गया और उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोला-'कभी नही'

शेर आखें बंद करके मुस्कुरा उठा.

सत्य की जीत

रचनाकार- श्वेता तिवारी

सोनपुरी नामक गांव में एक बुद्धिमान व्यक्ति रहता थ. उसका नाम होशियार सिंह था. गाँव वाले उसका बहुत सम्मान करते थे. एक बार होशियार सिंह घूमने के लिए दूर के एक गाँव में गया. उस गाँव का एक किसान होशियार सिंह की बातों से बहुत प्रसन्न हुआ. किसान ने खुश होकर अपनी सबसे सुंदर गाय होशियार सिंह को भेंट दे दी.

वह गाय खूब दूध देती थी. होशियार सिंह गाय को लेकर अपने गाँव की तरफ चल दिया. शाम हो गई थी. गाँव तक पहुंचने में रात हो जाए.गी बच्चे गाय को देखकर बहुत खुश होंगे. सबको सुबह शाम दूध पीने को मिलेगा, होशियार सिंह सोच रहा था.

गाय का नटखट बछड़ा उछलता कुदता साथ- साथ चल रहा था. एक ठग की नजर गाय पर पड़ी. वह होशियार सिंह के पास पहुंचा और बोला -'बहुत प्यारी गाय है बहुत दूध देती होगी.', 'हाँ छह लिटर दूध देती है'होशियार सिंह बोला, तब तो यह गाय मेरे लिए बहुत अच्छी रहेगी कह कर ठग ने होशियार सिंह के हाथ से गाय का रस्सी को छीन लिया और बोला -'ब यह मेरी गाय है तुम्हारी नहीं'

यह देख कर होशियार सिंह चोर- चोर कह कर चिल्लाया. शोर सुनकर आसपास के सभी लोग इकट्ठे हो गए.

ठग बोला-'भाइयों यह मेरी गाय हैं इसने चोर-चोर की आवाज लगाकर आप सबको इकट्ठा कर लिया है. मुझे चोर कहने से यह गाय इसके नहीं हो जाएगी.'

होशियार सिंह बोला-'यह झूठ बोल रहा है यह गाय मेरी है अगर यह मेरे हाथ से गाय का रस्सा न खींचता तो मैं क्यों चिल्लाता मैं यह गाय 100 रुपए में खरीद कर लाया हूँ.'

ठग ने कहा-'मुझे यह गाय एक किसान ने भेंट में दी है'

होशियार सिंह बोला-'भाइयों अब आप खुद ही समझ लो यदि यह गाय इसकी होती तो यह दाम जरूर बताता भेंट में मिलने की बात यह इसलिए कह रहा है क्योंकि यह गाय इसकी नहीं है यह गाय मेरी ही है'

होशियार सिंह ने कहा-' तुम कैसे कह सकते हो कि गाय तुम्हारी है'

ठग हँसा तब तक होशियार सिंह ने अपनी दोनों हथेलियों से गाय की दोनों आँखें बंद कर दी और ठग से कहा-'यह गाय अगर तुम्हारी है तो बताओ इस की कौन सी आँख कनी है'

ठग घबरा गया उसने गाय की आँखें ठीक से देखी तो ही नहीं थी वह हिम्मत करके बोला-' इसकी दाईं आँख कानी है'

होशियार सिंह जोर से बोल-'आप सब सुन ले यही बता रहा है कि इसकी दाईं आँख कानी है लेकिन इसकी कोई भी आँख कानी नहीं है' और आँखों से अपनी दोनों हथेलियां हटा ली

ठग भागने को हुआ लेकिन लोगों ने उसको पकड़ लिया उसकी खूब पिटाई की

ठग ने कहा-' मैं कभी ऐसा काम नहीं करूँगा'

इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हम बुद्धि के दम पर विपत्ति से बच सकते हैं

जल की कीमत

रचनाकार- श्वेता तिवारी

माँ जब बाजार से लौट कर आईं तो बाहर बहुत तेज गर्मी थी. वे पसीने से भीग गई थीं. थोड़ी देर सुस्ताने के बाद उन्होंने खरीदकर लाई एक-एक पानी की बोतल दोनों बच्चों को दी. नंदी खुशी से उछल पड़ी.

'इसमें इतना खुश होने की बात क्या है? 'बाबू ने नंदी से पूछा.

नंदी बोली, 'पानी की बोतल कीमती नहीं होती क्या?'

'हाँ, बोतल की कीमत तो होती है, पानी की नहीं. क्योंकि पानी तो हमें कहीं भी मिल जाता है.

माँ ने पूछा, 'बताओ सबसे कीमती क्या है?'

बाबू बोला, 'हीरा सबसे कीमती है.'

नंदी ने कहा, 'शायद सोना सबसे कीमती है.'

तब माँ ने समझाया, 'पानी सबसे कीमती है. जब हमें प्यास लगती है, तब हम पानी पीते हैं. दाल-चावल, सब्जी सभी कुछ पकाने के लिए हमें पानी की आवश्यकता होती है.

पेड़-पौधों में पानी डालते हैं तब रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं. अगर फसलों को पानी नहीं मिलेगा तो फसलें कैसे तैयार होंगी? हमें अनाज कहां से प्राप्त होगा? हाँ बेटा, पानी के बिना हम जीवित नहीं रह सकते. पेड़-पौधे सभी पानी के बिना मर जाएंगे. पीने के लिए तो साफ पानी ही चाहिए.'

'पर माँ, हमारे स्कूल के पास एक कारखाना है. उससे रोज ढेर सारा गंदा पानी निकलता है.'बाबू बोला.

'बेटे, गंदे पानी को साफ पानी में मिलने से रोकना चाहिए. अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलेगा.

'पानी गंदा होने से आसपास बदबू भी फैलने लगती है. इससे बहुत सारी बीमारियां पैदा होती हैं.' कल मास्टर जी ने बताया था, नंदी ने कहा.

'अब हम समझ गए कि क्यों पानी सबसे कीमती होता है.' नंदी और बाबू एक साथ बोल पड़े.

पञ्चतन्त्र की कथा- चतुर बगुले की कथा

किसी समय एक विशाल वन में एक मनोरम सरोवर था. वह सदा स्वच्छ जल से भरा रहता था. सरोवर में कमल के सुंदर फूल खिले रहते थे. जल के अनेक जीव,मछली,मेंढक,सीपियां, केकड़े आदि भी उस सरोवर में रहते थे. वहीं एक बगुला भी रहता था, बड़ी लंबी गर्दन, लंबी - लंबी टांगें और जैसे दूध से धुले सफेद पंखों वाला.

बगुला बूढ़ा हो चला था. अब देर तक पानी के किनारे एक पैर उठाए मछलियों की प्रतीक्षा करना उसे कठिन लगने लगा था. इस भांति खड़े - खड़े वह थक जाता था. वह सोचता था कि कैसे बिना परिश्रम किए पेट भर भोजन मिल जाए. बगुला अनुभवी तो था ही, बहुत चतुर भी था. वह जानता था कि जब कोई कार्य शक्ति से संपन्न ना हो तो उसे युक्ति से किया जाना चाहिए.

उसने एक उपाय ढूंढ ही लिया. एक दिन भोर में ही वह सरोवर के किनारे खड़ा-खड़ा रोने का ढोंग करने लगा. कुछ मछलियों ने उसे रोते देखा और देखते - देखते यह बात सरोवर के सभी जीवों तक पहुंच गई. सभी उस किनारे पहुंच गए जहां बगुला खड़ा था. सभी को आश्चर्य हो रहा था.

एक मछली ने पूछा, ' बगुले दादा,आप क्यों रो रहे हैं, ऐसा क्या हो गया, जो आप इतने दुखी हैं?'

बगुले ने अपने स्वर को दुख भरा बनाते हुए कहा, ' प्यारे मित्रो, मैंने वन में रहने वाले अन्य प्राणियों की जो बातें सुनी हैं वे बहुत चिंता उत्पन्न करने वाली हैं. सभी यह कह रहे हैं कि इस बार ग्रीष्म ऋतु में सूर्य का ताप प्रचंड होगा. छोटे-मोटे पेड़ - पौधे सूख जाएंगे, यह सरोवर भी सूख जाएगा. चारों ओर हाहाकार मच जाएगा.'

बगुले की यह बात सुनकर सरोवर के सभी प्राणी सहम गए उन्हें लगने लगा कि ऐसे में तो अपने प्राणों की रक्षा करना दुष्कर हो जाएगा.

बगुले ने फिर कहा, 'मेरे दुख का कारण दूसरा है. वन के सभी प्राणी यह वन छोड़कर कहीं और चले जाएंगे. मैं भी उड़कर किसी और स्थान को जा सकता हूं किन्तु मैं आप सभी मित्रों के लिए चिंतित और दुखी हूं. बरसों से इस सरोवर में हम साथ रह रहे हैं. आप सभी को इस असहाय अवस्था में छोड़कर जाने की कल्पना मात्र से मेरा हृदय फटा जा रहा है. ओह!! मैं क्या करूं?'

भयभीत हुए इन जल जीवों को कोई उपाय नहीं सूझा. उन्होंने बड़े कातर भाव से बगुले से कहा, 'आप हम सबसे बड़े हैं, हम से अधिक सामर्थ्यवान भी हैं. आप ही कुछ उपाय बताइए जिससे इस संकट से हमारे प्राणों की रक्षा हो सके.'

बगुले ने ठंडी सांस भरते हुए कहा, ' उपाय तो है. यहां से थोड़ी दूर, पर्वत के उस पार मीठे जल का एक बहुत बड़ा सरोवर है जो कभी नहीं सूखता. मैं तुम सबको एक-एक कर वहां पहुंचा सकता हूं पर इसमें न जाने कितने माह लगें. अब मैं बूढ़ा भी हो चला हूं एक दिवस में एक बार ही वहां जा सकता हूं.'

तब एक छोटी मछली ने कहा, ' यदि आप यह कार्य आज से ही प्रारंभ करें तो समय रहते हम सब वहां पहुंच सकते हैं.'

'हां, यही उचित होगा.' सभी ने समर्थन किया.

बगुला मन ही मन प्रसन्न हुआ. उसे अपनी योजना सफल होती दिख रही थी. 'ऐसा ही करेंगे.' ऐसा कहते हुए, मुख पर उदासी का भाव दिखाते धीरे - धीरे वह वहां से चला गया.

इस पूरे संवाद को एक बूढ़ा कछुआ भी सुन रहा था. उसने सभी को संबोधित करते हुए कहा, 'प्रिय बंधुओ, हमें बगुले की इन बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिए. वह स्वभाव से ही हम सब का शत्रु है. भला वह क्यों हमारी सहायता करेगा. मेरी अवस्था 300 वर्षों से भी अधिक हो चुकी है. मेरा सारा जीवन इसी सरोवर में बीता है. इतने वर्षों में कभी ऐसा नहीं हुआ कि इस सरोवर का जल समाप्त हुआ हो. मेरा सुझाव है कि हमें बगुले की बातों में नहीं आना चाहिए और यहीं रहना चाहिए.'

किंतु दुर्भाग्य! भयभीत हुए मन वाले किसी जीव को कछुए की बात उचित नहीं लगी.

उसे दिन से बगुला सरोवर से एक-एक प्राणी को अपनी पीठ पर बिठाकर वहां से ले जाता. सरोवर के ओझल होते ही एक निश्चित स्थान पर उतरता और निश्चिंत भाव से उस जीव को अपना भोजन बना लेता. सांझ होते ही सरोवर किनारे लौट आता और ऐसा अभिनय करता मानो बहुत थक गया हो.

अब उसके दिन बहुत आनंद से बीत रहे थे. एक दिन एक केकड़े के जाने की बारी आई. वह भी उसकी पीठ पर आरूढ़ हुआ. बगुला उसे लेकर उसी स्थान के निकट पहुंचा. केकड़े ने देखा, नीचे चट्टान पर मछलियों और दूसरे जीवों की अस्थियां बिखरी पड़ी हैं. पल भर में उसे पूरी बात समझ में आ गई.

क्रोध में भरकर उसने बगुले से कहा, 'अरे दुष्ट! विश्वासघाती! तूने हम सब के साथ छल किया है.'

बगुले ने व्यंग्य पूर्वक हंसते हुए कहा, ' जहां तुम जैसे अविवेकी और बिना विचार किए औरों की बातें मानने वाले लोग हों वहां मुझ जैसा चतुर प्राणी भूखा नहीं मर सकता.'

चट्टान पर उतर कर उसने केकड़े से कहा, 'अब तुम भी मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ.'

पर केकड़ा भयभीत नहीं हुआ. वह जानता था कि संकट के समय साहस नहीं खोना चाहिए. उसने बगुले से कहा, 'तुम्हें तुम्हारी दुष्टता का दंड मिलना ही चाहिए. यह कह कर उसने अपने मजबूत जबड़ों से बगुले का गला काट दिया. बगुले के प्राण पखेरू उड़ गये.

(प्यारे बच्चो, तुम्हारे घर के बड़े- बूढ़ों को ऐसी अनेक कहानियां आती होंगी. उनसे सुनाने का आग्रह करो.

जो कहानी तुम्हें सबसे अच्छी लगे उसे हमें भेजो. उसे हम आपके नाम के साथ छापेंगे.)

हृदय परिवर्तन

रचनाकार- टीकेश्वर सिन्हा 'गब्दीवाला'

बहुत पुरानी बात है. सिर्रीगढ़ में चंद्रवंशी राजा शशांक का राज्य था. महाराज शशांकचंद्र एक वीर एवं प्रतापी राजा थे. उन्हें प्रजा से विशेष सहानुभूति थी. वह प्रजा के हर सुख-दुःख का ख्याल रखते थे. महारानी प्रभादेवी के विचार भी राजा के विचारों से मिलते थे. सृष्टि उनकी इकलौती पुत्री थी. राजकुमारी सृष्टि अत्यंत सुंदर व होनहार थी. सिर्रीगढ़ की प्रजा अपने योग्य राजा को बहुत चाहती थी. राज्य में किसी को कोई भय नहीं था. सभी ओर प्रेम व भाईचारा था.राजा की न्यायप्रियता के चलते अन्याय कहीं नहीं था. इस तरह सिर्रीगढ़ सुख-शांति से परिपूर्ण राज्य था.

महाराज शशांकचंद्र को आखेट करने का बहुत शौक था. वह अक्सर आखेट करने जंगल जाया करते थे. एक दिन राजा ने सैनिकों को जंगल जाने हेतु प्रबंध करने का आदेश दिया. राजा के आदेशानुसार सैनिक पूरी तैयारी से राजा के समक्ष उपस्थित हुए. महाराज शशांकचंद्र तीर-कमान लेकर रथ पर सवार हुए. उनके आदेश पर सैनिकों ने जंगल की राह पकड़ ली.

महल से जंगल की ओर प्रस्थान करते हुए रथ पर सवार राजा पर राजकुमारी सृष्टि की नजर पड़ी.वह दौड़ती हुई रथ के पास आई और उत्सुक होकर बोली- ' पिताजी... पिताजी...! आप कहाँ जा रहे हैं?'

' बेटी, मैं शिकार करने जंगल जा रहा हूँ. ' राजा ने मुस्कुराते हुए कहा.सृष्टि की आँखों में अपने पिता के साथ वन जाने की इच्छा झलक रही थी. राजकुमारी ने जंगल का नाम तो अवश्य सुना था, पर वह स्वयं कभी जंगल नहीं गई थी. महाराज शशांकचंद्र राजकुमारी से बोले- ' बेटी, तुम ऐसा क्यों पूछ रही हो? '

' पिताजी,आज मैं भी आपके साथ जाऊँगी. मैंनें अब तक जंगल नहीं देखा है. ' राजकुमारी ने जवाब दिया.

' सृष्टि की बात सुनकर राजा बोले- ' नहीं... नहीं... बेटी! जंगल बहुत खतरनाक होता है. वहाँ हमेशा जंगली जानवरों से खतरा बना रहता है. बेटी, तुम महल में अपनी माताजी के पास जाओ. मैं शीघ्र ही वापस आऊँगा.'

लेकिन राजकुमारी अपनी बात पर अड़ी रही; राजा उसे मनाने लगे. आज सृष्टि ने वन जाने को ठान ही ली थी.अंततः राजकुमारी का पिता के साथ जंगल जाना तय हो गया. रथ जंगल की ओर बढ़ने लगा.राजा और राजकुमारी घने जंगल में जा पहुँचे.काफी देर तलाश के पश्चात राजा को एक हिरणी दिखाई दी. हिरणी अपने छौने के साथ थी. यह देखकर राजा खुश हो गए; और हिरणी की ओर बढ़ने लगे. रथ को अपनी ओर आता देख हिरणी डर गई और अपने छौने के साथ भागने लगी. अब आगे-आगे अपने छौने के साथ हिरणी और पीछे-पीछे राजा. राजा ने निशाना साधकर तीर छोड़ा,पर तीर हिरणी को न लगकर छौने के पैर पर जा लगा. तीर लगते ही छौना जमीन पर गिर पड़ा और छटपटाने लगा. अपने घायल छौने को छटपटाते देखकर हिरणी भी व्याकुल हो गई.

छटपटाते छौने व व्याकुल हिरणी को देखकर राजकुमारी का हृदय करुणा से भर गया. उसे अपने पिता के किये पर बहुत गुस्सा आ रहा था. बोली- ' ' पिताजी! यह आपने क्या किया?' राजा मुस्कुराते हुए बोले- ' देखो बेटी, मेरे एक ही तीर से छौना ढेर हो गया.' राजकुमारी बोली- ' यह आपने अच्छा नहीं किया पिताजी?'

' क्यों बेटी?' राजा ने पूछा.

' पिताजी! यदि उस छौने के स्थान पर मैं और हिरणी के स्थान पर आप होते तो आपको कैसा लगता?' राजकुमारी सृष्टि की बात सुनकर राजा अवाक हो गए.

राजकुमारी ने फिर कहा- ' पिताजी! आप इसीलिए जंगल आते हैं मूक व निर्दोष पशुओं को मारने. यह तो अपराध है पिताजी. एक वीर व प्रतापी राजा का क्या यही लक्षण है? उस असहाय छौने का अब क्या होगा... उसकी माँ के हृदय पर क्या बीत रही होगी?'कहते हुए राजकुमारी सृष्टि रो पड़ी.

राजकुमारी की बातें सुनकर राजा की आँखें खुल गईं. आज उन्हें एक सबक मिला.महाराज ने राजकुमारी को गले लगाकर कसम खाई कि अब वह कभी निर्दोष वन्यजीवों का शिकार नहीं करेंगे.

रोजी रोटी

रचनाकार- नीरज त्यागी

पति के गुजर जाने के बाद भी कमला ने घर-घर काम करके और जीवन भर लोगों की बात सुनते हुए जैसे-तैसे अपने इकलौते बेटे अमर को पढ़ाया.उसने कभी भी अमर को इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि वह एक कामवाली का बेटा है.उसने रोटी कमाने के लिए दिन-रात एक कर दिया.सुबह से रात तक जगह-जगह काम करके जैसे तैसे वह अपने घर का खर्चा चलाती थी.लेकिन उसने कभी भी अमर को किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं होने दी.धीरे-धीरे अमर बड़ा हुआ. बचपन से ही अमर एक शरारती बच्चा था.उसने कभी भी यह महसूस ही नहीं किया कि उसकी माँ कितनी परेशान होकर अपना और उसका गुजारा चलाती है.कमला की जीवन भर की मेहनत रंग लायी और अमर ने अपनी ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई पूरी की.पढ़ाई पूरी करने के बाद अब कमला को इस बात की तसल्ली थी. कि अब कुछ समय बाद उसका बेटा कामकाज पर लग जाएगा और उसके जीवन से दुखों का अंधियारा छट जाएगा.

अमर अपनी आदत के अनुसार बहुत ही लापरवाह था.लेकिन अब जब वह बड़ा हो गया था. तो कहीं ना कहीं नौकरी तो करनी ही थी.लेकिन अमर हमेशा नौकरी करने से बचते रहता था.पूरी उम्र प्यार से पला हुआ अमर आलसी हो चुका था. सुबह से शाम तक बाहर घूम कर आता था और अपनी माँ से कह देता नौकरी लग ही नही रही है.इस बीच कमला इतने घरों में काम कर चुकी थी. कि उसने अपनी जान पहचान से अपने बेटे को एक फैक्टरी में सुपरवाइजर की नौकरी पर लगवा ही दिया.अब अमर की मजबूरी थी कि वह नौकरी करे.लेकिन कामचोर अमर की काम करने में कोई भी रुचि नहीं थी.उसे पता था कि वह कुछ करें ना करें,उसे तो शाम को अपना आराम से रोटी मिल ही जाती है.फिर वह काम क्यों करे.लगभग एक महीने बाद उसने अपनी माँ से कहाँ,माँ,नौकरी में मजा नहीं आ रहा.कभी दिन की तो कभी रात की ड्यूटी होती है. पेस्टिसाइड बनाने की फैक्ट्री में मैं सुबह से शाम तक परेशान ही रहता हूं.

कमला ने अमर से कहाँ, बेटा तुझे चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है.अभी मेरे नौकरी करने से हमारी रोजी-रोटी की व्यवस्था हो जाती है.तुम कोई और नौकरी ढूंढना शुरू कर दो.लगभग साल भर अमर का यह ड्रामा चलता रहा.वह कहीं भी टिक कर नौकरी करता ही नहीं था.कहीं कुछ परेशानी बता देता था और कहीं कुछ परेशानी बता देता था.एक दिन अमर घूमते-फिरते एक घर के सामने से गुजरा.वहां पर उसकी मां झाड़ू पोछे का काम करती थी.तपती धूप में अमर ने दूर से अपनी मां को कपड़े धोते हुए और झाड़ू पोछा करते हुए देखा.आज उसे पहली बार कुछ शर्मिंदगी महसूस हुई. तभी उस घर की मकान मालकिन बाहर निकल कर आई और उसने उसकी माँ से कहा,अरे कमला अब तो बेटा बड़ा हो गया है.बस अब कुछ दिनों बाद तो तुम्हारा संकट कट ही जाएगा. तभी कमला का दर्द उसकी आंखों से छलकने लगा,उसने कहां,मालकिन रोजी-रोटी की दौड़ में मेरा पूरा जीवन निकल गया और मैं जानती हूं मेरे बेटे का किसी भी काम में दिल नहीं लगता है.इस कारण हो वो रोज-रोज कोई ना कोई नाटक करता है.

लेकिन मैं उसकी माँ हूँ, मैं अब भी उसे कुछ नहीं कहूंगी,मुझे ऐसा लगता है मालकिन मेरी रोजी-रोटी कमाने की दौड़ जिंदगी भर चलती रहेगी.अमर दूर से यह बात सुन रहा था.शर्मिंदगी से उसका चेहरा झुक गया था.उस दिन के बाद अमर ने किसी भी नौकरी के लिए कोई भी बहाना नहीं बनाया और धीरे-धीरे लगभग एक साल बाद आज उसने अपनी मां से आकर बोला,मां अब रोजी-रोटी कमाने की जिम्मेदारी मेरी है. `इसके लिए अब आपको किसी के भी झूठे बर्तन धोने की जरूरत नहीं है. कमला की आंखों में आज भी आंसू थे. लेकिन इस बार ये खुशी के आंसू थे.आखिर उसके बेटे को यह पता चल ही गया था कि रोटी कैसे कमाई जाती है.

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