लेख

हमारे पौराणिक पात्र- आर्यभट महान गणितज्ञ

आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान गणितज्ञ और ज्योतिषविद् थे. इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें गणित खगोलशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है.

आर्यभट ने अपने ग्रन्थ आर्यभटीय में अपना जन्मकाल शक संवत् 398 (476) लिखा है.उनके जन्म का साल तो सुस्पष्ट है परन्तु जन्मस्थान के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं है. कुछ स्रोतों के अनुसार आर्यभट्ट का जन्म महाराष्ट्र के अश्मक प्रदेश में हुआ था और वे उच्च शिक्षा के लिए कुसुमपुरा गए थे. भारतीय गणितज्ञ भास्कर ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है.

आर्यभट्ट के कार्यों की जानकारी उनके द्वारा रचित ग्रंथ से मिलती है. इस महान गणितग्ज्ञ ने आर्यभटीय दशगीतिका, तंत्र और आर्यभट्ट सिद्धांत ग्रंथों की रचना की थी. विद्वानों में 'आर्यभट्ट सिद्धांत' के बारे में मतभेद हैं. माना जाता है कि 'आर्यभट्ट सिद्धांत' का सातवीं शताब्दी में व्यापक उपयोग होता था. अब इस ग्रन्थ के केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं और इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इसकी कोई निश्चित जानकारी नहीं है.

अद्भुत प्रतिभा के धनी आर्यभट ने अनेक कठिन प्रश्नों के उत्तर को एक श्लोक में समाहित कर दिया है, गणित के पाँच नियम एक ही श्लोक में प्रस्तुत करने वाले आर्यभट ऐसे प्रथम नक्षत्र वैज्ञानिक थे, जिन्होंने बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य के चक्कर लगाती है.इन्होंने सूर्यग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण होने के वास्तविक कारण की व्याख्या की. आर्यभट को यह ज्ञात था कि चन्द्रमा और दूसरे ग्रह स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं, बल्कि सूर्य की किरणें उनमें प्रतिबिंबित होती हैं.

23 वर्ष की आयु में आर्यभट ने 'आर्यभटीय ग्रंथ' लिखा था. उनके सम्मान में भारत के प्रथम कृत्रिम उपग्रह का नाम आर्यभट रखा गया था.

गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने समीकरणों का प्रयोग किया, यह तरीका पूरे विश्व में प्रख्यात हुआ. एक के बाद ग्यारह शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्धति का आविष्कार किया. बीज गणित में भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण संशोधन किए और गणित ज्योतिष का 'आर्य सिद्धांत' प्रचलित किया.

उन्होंने त्रिकोण और वृत्त के क्षेत्रफलों की गणना के लिए सूत्र का सुझाव दिया,जो सही साबित हुए. उन्होंने पाई का मान 62832/20000 = 3.1416 बताया जो बिल्कुल सन्निकट था.

वो पहले गणितज्ञ थे जिन्होंने 'ज्या ( sine) तालिका' दी,जहाँ प्रत्येक इकाई वृत्तचाप के 225 मिनट्स या 3 डिग्री 45 मिनट्स के अंतराल पर बढ़ती थी. आर्यभट्ट की तालिका के प्रयोग से ज्या 30 (Sine 30) का मान 1719/3438 = 0.5 प्राप्त होता है, जो एकदम सही मान है.आर्यभट ने वृद्धि संग्रह को परिभाषित करने के लिए वर्णमाला कोड का प्रयोग किया.उनके वर्णमाला कोड को आर्यभट्ट सिफर के रूप में जाना जाता है.

पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है,जिसके कारण रात और दिन होते हैं,यह तथ्य 'निकोलस कॉपरनिकस' के बहुत पहले ही आर्यभट ने बता दिया था.उनका मत है कि चन्द्रमा तथा अन्य ग्रह सूर्य से परावर्तित प्रकाश द्वारा चमकते है.

आर्यभट्ट ने यह बताया कि वर्ष में 366 दिन नहीं वरन 365.2951 दिन होते हैं. शून्य (0) की महान खोज ने इनका नाम इतिहास में अमर कर दिया' जिसके बिना आजकल गणित की कल्पना करना भी मुश्किल है'

उन्होंने पृथ्वी की परिधि 24835 मील बताई, जो आधुनिक मान 24902 मील के एकदम समीप है. आर्यभट ज्योतिष के क्षेत्र में भी अनेक क्रांतिकारी विचार लाये. आर्यभट के खगोलशास्त्र के सिद्धांतों को सामूहिक रूप से Audayaka System कहते हैं.उनका यह मानना था कि पृथ्वी की कक्षा गोलाकार नहीं, अपितु दीर्घवृत्तीय हैं; उदाहरण के रूप में यदि कोई व्यक्ति किसी नाव या ट्रेन में बैठा हैं और नाव या ट्रेन जब आगे बढती हैं तो उसे वृक्ष, मकान, आदि वस्तुएं पीछे की ओर जाती हुई प्रतीत होती हैं, जबकि ऐसा होता नहीं हैं. इसी तरह गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी विपरीत दिशा में जाते दिखाई देते हैं. हमें ऐसा इसलिए प्रतीत होता है क्योंकि पृथ्वी अपने अक्ष पर घुमती हैं और इसकी यह गतिशीलता यह भ्रम उत्पन्न करती है.

आर्यभट के ग्रंथ आर्यभटीय का उपयोग आज भी हिन्दू पंचांग हेतु किया जाता हैं. आर्यभट के महान योगदानों के लिए संसार सदैवउनका ऋणी रहेगा और ऐसे महान विद्वान के भारतीय होने पर हमें गर्व रहेगा.

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी

रचनाकार- शेफाली श्रीवास्तव, शिवाजी नगर, भुसावल

राजाजी के नाम से प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष थे.राजगोपालाचारी वकील, लेखक, राजनीतिज्ञ और दार्शनिक थे. वे स्वतन्त्र भारत के द्वितीय गवर्नर-जनरल और प्रथम भारतीय गवर्नर-जनरल थे. अपने अद्भुत और प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण महान् स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, गांधीवादी राजनीतिज्ञ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को आधुनिक भारत के इतिहास का 'चाणक्य' माना जाता है. राजगोपालाचारी की बुद्धि चातुर्य और दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण जवाहरलाल नेहरू,महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे नेता भी उनके प्रशंसक थे.

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जन्म 10 दिसंबर,1878  को  तमिलनाडु (तत्कालीन मद्रास) के सेलम ज़िले के होसूर के पास 'धोरापल्ली' नामक गाँव में हुआ था.उनके पिता श्री नलिन चक्रवर्ती  सेलम में न्यायाधीश के पद पर कार्यरत थे. गाँव के स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने बैंगलोर के सेंट्रल कॉलेज से हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की.मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी.ए. और वकालत की परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के पश्चात् वे सेलम में ही वकालत करने लगे.देशभक्ति और समाज सेवा की भावना उनमें स्वाभाविक रूप से थी. स्वामी विवेकानंद जी के विचारों से अत्यंत प्रभावित होकर वे वकालत के साथ साथ समाज सुधार के कार्यों में भी शामिल होने लगे.उन्हें सेलम की म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन का अध्यक्ष चुन लिया गया. इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक नागरिक समस्याओं का तो समाधान किया ही, साथ ही सामाजिक बुराइयों का भी विरोध किया. सेलम में पहले सहकारी बैंक की स्थापना का श्रेय उन्हें ही दिया जाता है.

गांधीजी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर वे अपनी वकालत छोड़कर राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हो गए.गाँधीजी के छुआछूत विरोधी आंदोलन और हिंदू-मुस्लिम एकता के कार्यक्रमों ने उन्हें प्रभावित किया. 1937 में काउंसिल के चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद राजाजी मद्रास के प्रधानमंत्री (तब मुख्यमंत्री के समकक्ष पद) बने और 1939 में जब वायसराय ने एक तरफ़ा निर्णय लेकर भारत को द्वितीय विश्वयुद्ध में धकेल दिया तो उन्होंने विरोध स्वरूप इस्तीफ़ा दे दिया.

राजाजी गाँधीजी के अनुयायी थे, लेकिन 1939 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ,तब वे गाँधीजी के विरोध में खड़े हो गए.ब्रिटिश सरकार इस युद्ध में भारत की मदद चाहती थी.गाँधीजी का विचार था कि युद्ध में ब्रिटिश सरकार को नैतिक आधार पर समर्थन दिया जाए.पर राजाजी का मानना था कि ब्रिटिश सरकार से युद्ध के बाद भारत की आजादी की पूरी गारंटी लेनी चाहिए.और सरकार को युद्ध में पूरा समर्थन देना चाहिए. गाँधीजी ने उनकी बात नहीं मानी इस वजह से राजाजी ने कांग्रेस की कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा दे दिया और अपने सिद्धांतों पर टिके रहे.

साल 1942 में जब गाँधीजी ने 'भारत छोड़ो आंदोलन' शुरू किया,तब भी राजाजी उनके साथ नहीं आए.इसी दौरान;भारत विभाजन के सुर भी तेज हो गए थे.उन्होंने तभी ताड़ लिया था कि देश का विभाजन होकर रहेगा और इस बारे में बोलते भी थे. लोग तब उनकी आलोचना करते थे पर आखिरकार राजाजी की बात सच हुई.

क्या वे पहले राष्ट्रपति होते?

राजाजी, जवाहर लाल नेहरू के सबसे अच्छे दोस्तों में से थे पर, वैचारिक मतभेद के चलते वे उनसे अलग हो गए. बहुत कम लोग जानते हैं कि नेहरू उन्हें देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे पर कांग्रेस में बहुमत राजेंद्र प्रसाद के पक्ष में था. आख़िरी ब्रिटिश वायसराय के जाने के बाद राजाजी को देश का गवर्नर जनरल बनाया गया.

जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1946 मे बनी सरकार में राजगोपालाचारी को उद्योग मंत्री बनाया गया.सरदार वल्लभभाई पटेल के देहांत के बाद उन्हे देश के गृहमंत्री का दायित्व सौंपा गया.साल 1954 में उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न दिया गया.

1957 में दूसरे आम चुनाव में कांग्रेस को ज़बर्दस्त सफलता मिली.राजाजी ने इस पर अपनी चिंता ज़ाहिर की. उन्होंने कहा कि लोकतंत्र की सफलता के लिए मज़बूत विपक्ष का होना नितांत आवश्यक है.उनका कहना था कि बिना विपक्ष के सरकार ऐसी है मानो गधे की पीठ पर एक तरफ़ ही बोझ रख दिया गया है.मज़बूत विपक्ष लोकतंत्र के भार को बराबर रखता है.राजाजी का मानना था कि किसी पार्टी में भी दो विचारधाराएँ होनी चाहिए ऐसा न होने की स्थिति में पार्टी का मुखिया एक तानाशाह की भाँति बर्ताव करने लगता है.

अपने इन्ही विचारों को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सी राजगोपालाचारी ने मीनू मसानी,कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और एन जी रंगा के साथ मिलकर स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की. स्वतंत्र पार्टी देश के राजनीतिक पटल पर एक ऐसी उदारवादी राजनीतिक पार्टी के रूप में उभरी जिसने न केवल नेहरू के समाजवाद का पुरजोर विरोध किया वरन समाजवाद के नाम पर चल रहे परमिट कोटा राज को खत्म कर मुक्त अर्थव्यवस्था  को लागू करने की वकालत की.स्वतंत्र पार्टी ने 1962 और 1967 के आम चुनावों में उल्लेखनीय प्रदर्शन किया परंतु बदलते राजनीतिक समीकरणों के बीच 1972 के चुनावों में असफल होने के बाद इस पार्टी का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया लेकिन एक विचारधारा के रूप में स्वतंत्र पार्टी की नीतियों का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि 1991 में पी वी नरसिंहराव की सरकार की आर्थिक नीतियाँ स्वतंत्र पार्टी से प्रभावित थीं.

तमिल और अंग्रेजी के बहुत अच्छे लेखक राजाजी ने 'गीता' और 'उपनिषदों' की टीका लिखीं.अपनी किताब 'चक्रवर्ती थिरुमगम' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. राजगोपालाचारी बेहतरीन कहानियाँ भी लिखते थे.

25 दिसंबर 1972 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की मृत्यु हो गई.

हमारे प्रेरणास्रोत- पंडित मदन मोहन मालवीय

हेलो बच्चो,

आज हम उस समय की बात कर रहे हैं जब भारत में ब्रिटिश राज था. लोगों में तब इस बात का डर था कि युवा पीढ़ी अंग्रेजों के प्रभाव में पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर अपनी धर्म संस्कृति और नैतिक मूल्य न खो दे.आज मैं एक ऐसे महान व्यक्तित्व का जिक्र करूँगी जिनका मानना था कि शिक्षा के माध्यम से हम अपने देश की संस्कृति व सभ्यता को बचा सकते हैं.

बच्चो हम बात कर रहे है पंडित मदन मोहन मालवीय की, जिन्हें 'महामना' कहा जाता था. उनका जन्म २५ दिसम्बर १८६१ को इलाहाबाद में हुआ. प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने सन १८७९ में इलाहाबाद से मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की. इसके बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी॰ए॰ की पढ़ाई पूर्ण कर, ४० रुपए मासिक वेतन पर इलाहाबाद ज़िले में शिक्षक बन गए. एक शिक्षक के रूप में उन्हें लगता था कि शिक्षा का व्यापक प्रसार ही देश को उन्नति के पथ पर लाएगा. उन्होंने एक ऐसा शिक्षा संस्थान बनाने का प्रण लिया जहाँ भारतीय संस्कृति को क़ायम रखते हुए देश दुनिया में हो रही तकनीकी प्रगति की भी शिक्षा दी जाए. इस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने देश के धनाढ्य लोगों से सहयोग माँगा. मालवीय जी ने अपनी मेहनत और लगन से काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना कर देश को शिक्षा के क्षेत्र में एक अनमोल तोहफ़ा दिया.

वाराणसी में स्थित काशी विश्वविद्यालय लगभग तेरह सौ एकड़ मे बसा है. स्त्रियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए मालवीय जी ने वुमेंस क़ोलेज की स्थापना की. मालवीय जी ने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में हिंदी, संस्कृत, नैतिक मूल्यों और अनुशासन पर ज़ोर दिया. विश्वविद्यालय में अनुशासन इतना था कि यदि कोई भी छात्र उद्दंडता करता तो उसे आर्थिक दण्ड देना पड़ता था. मगर जब छात्र आर्थिक दण्ड को माफ़ कराने उनके पास आते तो मालवीय जी उन्हें माफ़ भी कर देते.यह बात शिक्षकों को अच्छी नहीं लगती थी. उन्होंने जब महामना से इसका कारण पूछा तो वे बोले 'एक बार स्कूल मे गंदे कपड़े पहनने पर मेरे शिक्षक ने मुझ पर छः पैसे का अर्थ दण्ड लगाया था, जबकि उन दिनो मुझ जैसे साधारण परिवार के बच्चों के पास दो पैसे भी कपड़े धोने वाले साबुन के लिए नही होते थे. उस घटना को याद करते हुए मेरे हाथ स्वतः ही उन छात्रों के प्रार्थना पत्र पर क्षमा लिख देते हैं.' अपने ऐसे सरल स्वभाव के कारण शिक्षकों और छात्रों के बीच वे अत्यंत लोकप्रिय थे.

एक बार मालवीय जी के द्वारा कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कोंग्रेस के अधिवेशन में दिए ओजपूर्ण भाषण से महाराजा श्रीरामपाल सिंह जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मालवीय जी को साप्ताहिक समाचार पत्र हिंदुस्तान का सम्पादक नियुक्त कर दिया. मालवीय जी दो बार, वर्ष १९०९ और १९१८ में, कोंग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. राजनीति में रहते हुए उन्होंने ब्रिटिश सरकार की निर्भीकतापूर्वक आलोचना की और पंजाब की दमन नीति की भी आलोचना की. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन मे भाग लेकर ३५ साल तक कोंग्रेस की सेवा की.

मालवीय जी ने वर्ष १९१० मे वाराणसी मे हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की. इस सम्मेंलन में उन्होंने राष्ट्र भाषा के रूप मे हिंदी का प्रयोग,स्टैम्प पर हिंदी का प्रयोग, अदालतों मे देवनागरी लिपि का प्रचार आदि प्रस्ताव पारित किए. साथ ही सार्वजनिक रूप से हिंदी आंदोलन का नेतृत्व कर उन्होंने हिंदी भाषा को सरकारी दफ़्तरों मे अनिवार्य कर दिया. इसी तरह हिंदी को यश, विस्तार और प्रतिष्ठा मिली.पंडित मदन मोहन मालवीय उच्च कोटि के विद्वान, वक्ता और लेखक तो थे ही, उनकी सहृदयता और सरल स्वभाव ने आज उन्हें हमारा प्रेरणास्रोत बना दिया.

नवाचार- मृणशिल्प से कला कौशल का विकास

रचनाकार- स्नेहलता 'स्नेह'

माटी का ये शिल्प है,शिल्प अनोखा जान.
टेराकोटा आर्ट है,भारत की पहचान..

मिट्टी से बनाए गए बर्तनों अथवा मूर्तियों को जब आग में पका लिया जाता है तब वह मृणशिल्प कहलाते हैं. इसे हम टेराकोटा आर्ट के नाम से जानते हैं.मिट्टी के शिल्प का काम विश्व की प्राचीन कलाओं में एक है. मृण शिल्प कला छत्तीसगढ़ राजस्थान सहित अन्य कई राज्यों में पाई जाती हैं. पकाई गई मिट्टी से अनेक विविध वस्तुएँ प्राप्त होती हैं. छत्तीसगढ़ और विशेष रूप से बस्तर क्षेत्र में यह कला काफी प्रचलन में है.यहाँ पोला त्यौहार पर अनेक आकृतियों वाले पहिए, बैल आदि बनाए जाते हैं.बस्तर के मृण शिल्प की विशेषता उनकी शैली, आकार, अलंकृत सतह सज्जा व चमकदार पॉलिश है.

इस हस्तकला से परिचय व पुरातन कला को जीवित रखने के उद्देश्य से हमारी शाला मा.शा.आदर्शनगर में बच्चों को टेराकोटा आर्ट सिखाया जाता है.इस शाला में लगभग पाँच सालों से बच्चे मिट्टी के खिलौने बनाना सीख रहे हैं.

कक्षा आठवीं से कु.रोशनी,कक्षा छठवीं से कु.रेशमा मांझी जनजाति की छात्राएँ इस कला में निपुण हो गई हैं. इनके द्वारा बनाई मिट्टी की मूर्तियाँ व खिलौने एकदम सजीव लगते हैं.इन दोनों बहनों ने साबित कर दिया कि मेहनत व लगन के सामने अभाव कोई मायने नहीं रखता.

इन बहनों के द्वारा साँप, मछली, हाथी,कछुआ,शिवलिंग,गणेश,महात्मा गाँधी की प्रतिमा,भोजन पकाने के पात्र, दीपावली हेतु दीये व अन्य सजावटी वस्तुएँ भी बनाई गई हैं.

ऩवाचारी शिक्षिका स्नेहलता टोप्पो के मार्गदर्शन में इन छात्राओं ने मिट्टी के खिलौने बनाना सीखा है. शाला के अन्य छात्र छात्राओं द्वारा भी मिट्टी के खिलौने व पात्र बनाए जाते हैं.

बनाने की विधि-पहले खेत की चिकनी मिट्टी को भिगाकर रखा जाता है. फिर हल्के हाथों से मनचाहे खिलौने बनाए जाते हैं. इन्हें छाँव में सुखाते हैं और कुछ सूख जाने पर धूप में रखते है फिर चूल्हे की अंगार में रखकर कुछ देर पकाते हैं जिससे ये खिलौने मजबूत हो जाते हैं.और फिर इन खिलौनों को मनचाहे रंगों से रँग दिया जाता है.

मृणशिल्प कला कौशल द्वारा बच्चे न केवल अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं बल्कि आय के दृष्टिकोण से भी यह कला बच्चे सीख रहे हैं.

सफलता की कहानी- व्यवहार में परिवर्तन

बालिका का नाम- नागेश्वरी बघेल

संस्था का नाम- पोर्टा केबिन बालाटिकरा, सुकमा

कक्षा - आठवीं

छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में बसे ग्राम पुसपाल की नागेश्वरी बचपन से चंचल स्वभाव की थी. नागेश्वरी के परिवार में उसकी माँ,बड़ी बहन भुनेश्वरी एवं छोटी बहन हैं. माँ खेती, मजदूरी करके परिवार का पालन- पोषण करती है.बड़ी बहन भुनेश्वरी पोर्टा केबिन में पढ़ाई कर रही है और छोटी बहन गाँव के आँगनबाड़ी केन्द्र में पढ़ती है.

नागेश्वरी ने अपने गाँव से 37 किमी दूर बालाटिकरा के पोर्टा केबिन में कक्षा- तीसरी में प्रवेश लिया था. नागेश्वरी झगडालू स्वभाव की थी. उसकी किसी से भी नहीं बनती थी और न ही कोई उससे दोस्ती करना चाहता था क्योंकि वह अक्सर मारपीट करने लगती थी. यहाँ तक कि नागेश्वरी की अपनी बड़ी बहन भुनेश्वरी से भी नहीं बनती थी. मारपीट की आदत के कारण कोई भी नागेश्वरी के साथ रहना नही चाहता था. नागेश्वरी ज्यादातर कक्षा में अनुपस्थित रहती थी. वह कक्षा के समय में पोर्टा केबिन में छुपकर रहा करती थी जहाँ से उसे कोई देख ना पाए और स्कूल की छुट्टी होने पर अपने कक्ष में आ जाया करती. एक बार नागेश्वरी पोर्टा केबिन में किसी को बताए बिना अपने घर चली गई और अपनी माँ से कहा कि वह पढ़ना नहीं चाहती. माँ ने उसे किसी तरह समझाकर दोबारा पोर्टा केबिन भेजा किन्तु उसका मन पढ़ाई मे बिल्कुल भी नहीं लगता था और न ही वह कभी स्कूल की अन्य गतिविधियों में भाग लेती थी. शिक्षक भुनेश्वरी का उदाहरण देकर उसे अपनी बहन की तरह बनने की बात समझाने की कोशिश करते किन्तु नागेश्वरी पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ता था.

जब नागेश्वरी सातवीं कक्षा में थी तब पोर्टा केबिन में जीवन- कौशल सत्रों का संचालन प्रारंभ हुआ. अधीक्षिका श्रीमती लक्ष्मी वेक्को मरकाम द्वारा संचालित किए जाने वाले जीवन- कौशल सत्रों में नागेश्वरी शामिल होने लगी क्योंकि इसमें उसे पढ़ाई का डर नहीं रहता था. जीवन कौशल सत्रों में समूह में रहकर काम करना, हमदर्दी, भावनाओं को समझना एवं व्यक्त करना, समस्या समाधान, प्रभावी सम्प्रेषण जैसे विषयों पर गतिविधियों के माध्यम से चर्चा की जाती थी. अधीक्षिका द्वारा नागेश्वरी को व्यक्तिगत रूप से भी मार्गदर्शन दिया गया कि वह अपने झगड़ालू स्वभाव के कारण क्या- क्या खो रही है उसे अपने इस स्वभाव को बदलने के लिए काम करने की आवश्यकता है.अगर वह पढ़ाई में रूचि लेगी तो वह किस तरह अपने सपनों को पूरा कर पायेगी.

नागेश्वरी पर जीवन-कौशल सत्रों एवं अधीक्षिका के मार्गदर्शन का सकारात्मक प्रभाव पड़ने लगा. उसके स्वभाव में धीरे- धीरे परिवर्तन आने लगा. अब उसने नियमित रूप से कक्षा में जाना शुरू किया,सहपाठियों से दोस्ती शुरू की. धीरे –धीरे वह अन्य गतिविधियों जैसे खेल, नृत्य एवं नाटकों में भी भाग लेने लगी.

अधीक्षिका का कहना है कि जीवन-कौशल सत्रों के बाद नागेश्वरी के व्यवहार में बहुत परिवर्तन आया है. वह अब स्कूल, एवं जीवन-कौशल की गतिविधियों में उत्साहपूर्वक भाग लेती है. उसके आत्मविश्वास में वृद्धि हुई है. नागेश्वरी अपनी पढ़ाई पूरी कर शिक्षक बनना चाहती है.

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