कहानियाँ

छोटी बहन

रचनाकार- टीकेश्वर सिन्हा 'गब्दीवाला'

बिट्टू और सुम्मी आज बहुत खुश थे, उनकी लल्ली दीदी की शादी जो थी. बारात का आगमन हो चुका था. उनके मम्मी-पापा एवं घर के अन्य सदस्य बारातियों के स्वागत में व्यस्त थे. घर की सजावट देखते ही बनती थी. घर मेहमानों से भरा हुआ था.लाउडस्पीकर में चल रहे विवाहगीतों का आनंद सारा गाँव ले रहा था.बच्चे भी बड़े आनंदित थे. वे अपनी शरारतों और खेलकूद में मगन थे. तभी एक आवाज आई- ' बिट्टू, इधर आओ, खाना खा लो, फिर खेलना.' ' हाँ मम्मी, आ रहा हूँ' ' बिट्टू बोला.हाथ धोकर वह खाना खाने बैठ गया. सुम्मी भी हाथ धोकर बिट्टू के पास चटाई पर बैठ गयी.

बिट्टू और सुम्मी ने खाना खाया. खाने के बाद बिट्टू को शरारत सूझी, कटोरी मेंं रखी मिर्च उसने सुम्मी के चेहरे पर डाल दी. ' मम्मी... मम्मी...' चीखती हुई सुम्मी इधर-उधर भागने लगी.

'क्या हुआ सुम्मी... क्या हुआ ? ' मम्मी ने मामला समझा और सुम्मी की आँखों को ठण्डे पानी से धोया. डॉक्टर को बुलवाया गया. डॉक्टर ने सुम्मी की आँखों को फिर एक बार धोकर दवाई डाली. आँख मेंं पट्टी बांध दी. सभी सुम्मी के पास ही थे. बिट्टू भी चुपचाप खड़ा था. डॉक्टर के जाने के बाद मम्मी-पापा सुम्मी से पूछने लगे - ' सुम्मी, किसने डाली मिर्च तुम्हारी आँखों में?' अब बिट्टू की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. सुम्मी खामोश रही. मम्मी ने पुनः पूछा ' बिट्टू भैया ने डाली क्या?

'नहीं... नहीं... मम्मी, बिट्टू भैया ने नहीं डाली. ' सुम्मी बोली.' मम्मी, मैंने खुद ही मिर्च को हल्दी समझकर अपने चेहरे पर लगा लिया था. 'बिट्टू समझ ही नहीं पा रहा था कि सुम्मी क्या कह रही है.' मम्मी, मैं सोऊँगी. मुझे नींद आ रही है.' सुम्मी ने कहा तो सभी लोग कमरे से चले गये.

बिट्टू सुम्मी के कमरे मेंं आया और फफक कर रोने लगा. अब बिट्टू को अपनी शरारत पर बहुत दुःख हो रहा था. सुम्मी को रोने की आवाज सुनाई दी. बोली - ' कौन ? ' सिसकते हुए बिट्टू बोला - ' सुम्मी, मैं हूँ बिट्टू. ' सुम्मी मुस्कुराती हुई बोली - ' बिट्टू भैया, तुम क्यों रो रहे हो ?' अपनी गलती स्वीकारते हुए बिट्टू बड़ी मुश्किल से बोल पाया - ' बहन, मुझे माफ करना. मुझसे गलती हो गयी. लेकिन तुमने झूठ क्यों बोला सुम्मी? तुम्हारी आँखों में मिर्च तो मैंने लगाई थी. ' सुम्मी भीगी आवाज में बोली - ' भैया, अगर मैं तुम्हारा नाम बता देती तो मम्मी तुम्हें सजा देतीं. छोटी बहन के कारण बड़ा भाई डाँट खाये,यह मैं नहीं चाहती.'

सुम्मी की बातें सुनकर बिट्टू को अपनी करनी पर बहुत पश्चाताप हो रहा था. अपने प्रति छोटी बहन का प्रेम देख उसकी आँखें भर आईं. ' मुझे माफ करना मेरी बहन. मैं अब कभी ऐसी गलती नहीं करूँगा. ' बिट्टू ने छोटी बहन को गले लगा लिया.

क्रिसमस गिफ़्ट

रचनाकार- डॉ. मंजरी शुक्ला, पानीपत, हरियाणा

'पापा...आपको पता है न कि परसों क्रिसमस है.'

पापा ने मुस्कुराते हुए आठ साल के हैरी की तरफ़ देखा जो अपनी भूरी आँखों से उनकी ओर देख रहा था. उसके गोरे चेहरे पर घुँघराले भूरे बाल धूप में सुनहरे लग रहे थे.

उन्होंने उसे प्यार से उठाकर गोद में बिठा लिया.

हैरी लड़ियाते हुए बोला -'इस क्रिसमस पर मुझे सोने की आलमारी चाहिए.'

'सोने की आलमारी!' पापा का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया.

'बेटा, ऐसी तो कोई आलमारी होती ही नहीं.' पापा ने प्यार से कहा.

'क्यों नहीं होती? बिलकुल होती है मैंने अभी-अभी किताब में पढ़ा है.'

' ऐसी बात है,जरा मुझे भी वो किताब दिखाओ.'

'अभी लाया.' कहते हुए हैरी अपने कमरें की ओर भागा

थोड़ी ही देर बाद हैरी उनके सामने कहानियों की किताब लिए खड़ा था.

' बेटा ये तो जादुई किस्से कहानियों की किताब है.

''हाँ..पापा, इसमें एक कहानी है, जिसमें राजा राजकुमार को क्रिसमस पर सोने की आलमारी लाकर देता है.'

'पर बेटा वो तो राजकुमार है न.'

'आप और मम्मी तो कहते हो कि मैं भी आपका राजकुमार हूँ.' हैरी ने कहा.

पापा ने प्यार से हैरी को अपनी गोद में बिठा लिया. वो समझ गए कि अब हैरी को समझाने से कुछ नहीं होगा. उन्होंने सोचा कि थोड़ी देर बाद वो अपने आप ही सोने की आलमारी वाली बात भूल जाएगा. पापा बोले-' चलो हैरी,हम बाज़ार से क्रिसमस ट्री और सजावट का सामान ले आते हैं.'

हैरी खुश हो गया और बोला-'अब मैं बाज़ार में नहीं खोउँगा न.'

'बिलकुल नहीं.' कहते हुए पापा ने उसे प्यार से देखा और दोनों बाजार चल दिए.

बाजार में हैरी कभी ये ले लो तो कभी वो ले लो करता रहा. पापा उसकी हर फ़रमाइश पूरी करते जा रहे थे ताकि वो सोने की आलमारी वाली बात भूल जाए.

क्रिसमस ट्री, लाल कैप,सांता का मुखौटा,चमकीले रंगबिरंगे मोती, बड़ा सा जगमगाता सितारा और बहुत सारी नन्हीं घंटियाँ लेकर दोनों घर आये.'

'मम्मी... कहाँ हो? देखो हम कितना सारा सामान लाए हैं.' हैरी ने दरवाज़े से ही आवाज़ लगाई.मम्मी, हैरी की आवाज़ सुनकर बाहर आईं और उसे खुश देखकर हँसने लगीं.

देर तक हैरी मम्मी को सामान दिखाता रहा, फ़िर अचानक उसे याद आया और वो बोला-'पापा, बस एक ही चीज़ बाकी रह गई. '

''पूरा बाज़ार तो उठा लाए हो, अभी भी कुछ बाकी रह गया है?' मम्मी ने सामान समेटते हुए कहा 'हाँ.. तुमने जो कहा वो सब तो हम ले आए हैं..पापा ने सामान की तरफ़ निगाह डालते हुए कहा.

'सोने की आलमारी पापा...आप इतनी जल्दी भूल गए?'

पापा का चेहरा उतर गया. उन्होंने मम्मी की तरफ़ देखा जो आश्चर्य से उनका मुँह देख रही थी.

वो नाराज होकर हैरी को डाँटने जा रही थीं कि पापा ने उन्हें रोक दिया. पापा क्रिसमस पर हैरी को उदास नहीं देखना चाहते थे.

'हम कल बाज़ार जाएँगे, तुम्हारे लिए सुनहरी अलमारी ढूँढने.' पापा ने हँसते हुए कहा.

'आप दुनिया के सबसे अच्छे पापा हो.' कहते हुए हैरी उनके ऊपर झूल गया.

हैरी के कमरे से बाहर जाने के बाद मम्मी बोली-'आपने उससे झूठ क्यों कहा?'

मैंने झूठ नहीं कहा, मैं कल सच में वैसी ही अलमारी लाऊँगा.' पापा ने गंभीर स्वर में जवाब दिया.

'तो क्या आप सोने की आलमारी खरीदने की सोच रहे हैं. आप वो किताब वाले राजा नहीं हैं और न ही वो राजकुमार.'

'मैं राजा नहीं हूँ पर हैरी तो मेरा राजकुमार है न?' पापा मुस्कुराते हुए बोले.

'पर आप कहाँ से लाओगे सुनहरी आलमारी... हमारे पास कहाँ इतने पैसे हैं?आज आपने सारे पैसे खर्च कर दिए.' मम्मी दुखी होते हुए बोलीं

पाप कुछ नहीं बोले और सोने चले गए.'

अगले दिन पापा की नींद बच्चों के शोरगुल और हँसी की आवाज़ से खुली.

उन्होंने बाहर आकर देखा कि हैरी अपने दोस्तों के साथ मिलकर क्रिसमस ट्री सजा रहा था.

रुनझुन करती नन्हीं घंटियाँ,रंगबिरंगे चमकीले कागज़ों में बंद उपहार पूरे कमरे में बिखरे हुए थे.

पापा को देखते ही हैरी आकर पापा के गले लग गया.

पापा ने हैरी को प्यार करते हुए कहा-'अपने दोस्तों को केक खिलाओं, जो हम कल लेकर आए हैं.'

मम्मी भी तब तक केक और बिस्किट की प्लेट्स लेकर आ चुकी थीं.

सभी केक देखकर खुश हो गए. पापा बोले-'हैरी, मैं बाज़ार होकर आता हूँ.' 'क्यों पापा,हम तो क्रिसमस की सारी चीज़े ले आए हैं.' हैरी ने कहा

'तुम्हारे लिए सुनहरी आलमारी ढूँढने जा रहा हूँ, जैसे उस राजा ने राजकुमार को दी थी.' पापा ने मुस्कुराते हुए कहा

'नहीं पापा,राजा तो बहुत कंजूस था उसने सिर्फ़ एक अलमारी ही दी थी. आप मेरे लिए इतनी सारी चीज़े लाए हैं कि पूरा कमरा भर गया है.'

पापा ने उसे अपने पास बुलाया और उसकी आँखों में देखा तो हैरी ने नज़रें झुका लीं.

पापा की आँखें भर आईं. उन्होंने हैरी को गले लगा लिया.

हैरी के कहे बिना भी वो समझ गए कि रात को हैरी ने उनकी और मम्मी की बातें सुन ली हैं.

हैरी की आँखों में भी आँसूं थे.

तभी हैरी का दोस्त जॉन आकर बोला-'जल्दो करो हैरी, अभी तो हमारा क्रिसमस ट्री आधा ही सजा है.'

पापा ने हँसते हुए कहा-'मैं भी तुम लोगो के साथ इसे सजाऊँगा.'

मम्मी ये सुनकर बोलीं-'और मुझे क्यों छोड़ दिया?'

मम्मी की बात सुनकर सब हँस पड़े. फिर सबने मिलकर बेहद खूबसरती से क्रिसमस ट्री सजाया.

हैरी के दोस्तों को मम्मी ने टॉफी और चॉकलेट भी दीं. सब बहुत खुश होकर अपने-अपने घर चले गए.'

शाम को पापा,मम्मी और हैरी गिरिजाघर जा रहे थे, तो रास्ते में उन्हें

सान्ता मिला जो ढेर सारे उपहार,टॉफी और चॉकलेट अपने थैले में लिए खड़ा था. उपहारों के लिए बहुत सारे बच्चे उसे घेरे खड़े थे. हैरी भी सांता को देखकर रुक गया.

सांता ने अपनी सफ़ेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए हैरी से पूछा-'तुम्हें क्रिसमस पर क्या गिफ़्ट चाहिए?'

ये सुनकर हैरी और पापा ने एक दूसरे की ओर देखा और जोरो से हँस पड़े.

अम्बे माँ का जगराता

रचनाकार- मौसमी प्रसाद

सरोज हापुड़ के एक सरकारी मकान में अकेली रहती थी.सरोज के पति का स्वर्गवास हो चुका था. वो एक सरकारी पद पर थे.उनका बेटा भी मुजफ्फरनगर में अच्छे सरकारी पद पर कार्यरत है.मोहल्ले में किसी ने कभी उनके बेटे को आते नहीं देखा, और न ही किसी ने सरोज को कभी अपने बेटे के पास जाते हुए देखा.

सरोज को किसी ने कभी परेशान नहीं देखा. उसके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान हमेशा रहती है. सरोज अपने आपको हमेशा व्यस्त रखती है.कभी आसपास के दर्जियों से कमीशन पर कपड़े सिलना या छोटे बच्चों को ट्यूशन देना.

सरोज अक्सर कहा करती कि बेटा पैसे भेजता रहता है.लेकिन मैं अपना समय बिताने के लिए कुछ न कुछ करती रहती हूँ..पति के देहांत के बाद से सरोज की यही दिनचर्या है.

उसे इस बात की खुशी है कि वह रोज अपने बेटे-बहु से फोन पर बात कर लेती है.

आज सरोज के चेहरे पर एक अलग ही खुशी दिख रही है.राजू ने सरोज से उनकी खुशी का कारण पूछ लिया. सवाल सुनकर सरोज ने राजू को अपने पास बिठाया और बताने लगी कि कल रात पोती जया का फोन आया था.उसने बताया है कि पापा नवरात्रि के आखिरी दिन जगराता करवा रहे हैं.पोती ने कहा है कि अम्मा हम आपसे काफी दिनों बाद मिल पाएँगे. आपकी बहुत याद आती है.आप जगराते में आओगी तो मैं आपको वापस नहीं जाने दूँगी. बताते हुए सरोज की आँखों में ऑंसू आ गए.

नवरात्रि के दिन शुरू हुए और आखरी नवरात्र भी आ गया. सरोज को घर पर ही देख राजू ने पूछ लिया.अम्मा क्या हुआ आप तो बेटे के पास जाने वाली थी?

कई साल से अपने मन में दुखों को समेटे हुए, चेहरे पर हमेशा मुस्कान रखने वाली सरोज से रहा नहीं गया. उसकी आंखें छलक आई और वो जोर-जोर से रोने लगी.

राजू समझ नहीं पा रहा था कि क्या हुआ है? सरोज अचानक क्यों रोने लगी?उसने पूछा, अम्मा क्या बात है? बेटा-बहू सब ठीक है न?कुछ अपशकुन तो नहीं हुआ?

सरोज ने आखिर राजू को बताना शुरू किया. बेटा जब से बेटा-बहू और पोता-पोती मुजफ्फरनगर गए हैं.मुझे कोई फोन तक नहीं करता. मैं अपना मान-सम्मान पड़ोस में बनाये रखने के लिए हमेशा झूठ बोलती रहती हूँ.कि मुझे उनका फोन आता है. राजू ने अम्मा से पूछा अम्मा आपको कैसे पता चला कि आपके बेटे के यहाँ जगराता होने वाला है?

सरोज ने कहा- मुजफ्फरनगर में मेरे बेटे के पड़ोस में ही मेरे परिचित रहते हैं.उन्हीं से मुझे बेटे की खबर मिलती रहती है. बेटे ने जगराता करा लिया और अपनी माँ को बुलाया भी नही. मुझे तो इस बात की तसल्ली है कि मेरे बेटा-बहु सब कुशल है. माँ जगदंबे से यही प्रार्थना करती हूँ कि उन्हें हमेशा खुश रखें.

सरोज ने राजू को सब बता तो दिया लेकिन उन्होंने राजू को कसम भी दे दी.कि वह ये बातें किसी को नहीं बतायेगा.

सरोज अब भी पहले की तरह ही हमेशा मुस्कुराती दिखती हैं.लेकिन इस मुस्कुराहट के पीछे छिपे दर्द को राजू साफ पहचान लेता है.

पंचतंत्र की कथाएँ- धूर्तों की संगत

किसी वन में मदोत्कट नामक सिंह रहता था.वह बड़ा बलवान था. अनुचर के रूप में एक बाघ, एक सियार और एक कौआ सदा उसके साथ ही रहते थे. ये तीनों बड़े ही धूर्त थे. मदोत्कट जब भी किसी प्राणी का शिकार करता तो उसके खा लेने के बाद ये तीनों बचे हुए माँस को छककर खाते. बिना किसी परिश्रम के इन्हें सभी प्रकार के पशुओं का माँस भरपेट मिल जाता था. बड़े आनंद से इनका जीवन व्यतीत हो रहा था.

एक बार कहीं से एक ऊँट भटकता हुआ उस वन में आ गया. जब इन तीनों ने ऊँट को देखा तो इन्हें बड़ा आश्चर्य और भय हुआ.ऐसा विचित्र प्राणी उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था. उन्हें लगा कि अवश्य ही यह बड़ा शक्तिशाली प्राणी होगा.मदोत्कट ने अपने अनुचरों से कहा, जाकर पता लगाओ, वह कौन है और इस वन में क्यों आया है?

ये तीनों ऊँट के पास पहुंचे और उसके साथ संवाद किया.उससे जुड़ी सारी सूचनाएँ एकत्रित कर वापस आए और मदोत्कट को बताया कि महाराज! यह ऊँट नाम का प्राणी है. उसका नाम कथनक है. वह मरुस्थल में रहता है. फूल-पत्तियाँ उसका भोजन हैं. वह अपने समूह से बिछड़ गया है और भटककर इस जंगल में आ गया है. मदोत्कट ने सोचा, इस विशाल और शक्तिशाली जीव से मित्रता कर लेनी चाहिए. उसने अपने इन अनुचरों से कहा कि वह हमारा अतिथि है हमें उसे अपने साथ रखना चाहिए. जाओ और उसे मेरी मित्रता का संदेश देकर मेरे पास ले आओ. वे तीनों फिर कथनक ऊँट के पास गए और आदर सहित उसे मदोत्कट के पास ले आए.

मदोत्कट ने कथनक से कहा, आप जब तक चाहें इस वन में निर्भय होकर आनंदपूर्वक रहिए. कथनक उस हरे-भरे वन में निश्चिन्त भाव से रहने लगा.धीरे-धीरे वह बहुत हृष्ट-पुष्ट हो गया. बाघ और सियार जब भी कथनक को देखते उनके मुँह में पानी आ जाता. पर सिंह से भय के कारण वे मन मसोसकर रह जाते.

एक बार वन में मदोत्कट और गजराज का आमना-सामना हो गया. मदोत्कट को अपने शक्तिशाली पंजों और तेज जबड़ों पर बहुत घमंड था. वह बिना आगा-पीछा सोचे गजराज से भिड़ गया. बड़ा भयंकर युद्ध हुआ. गजराज ने अपने विशाल दाँतों से मदोत्कट की दुर्दशा कर दी. गजराज ने सूँड़ और पैरों से मार-मार कर मदोत्कट को अधमरा कर दिया. उसके प्राण तो बच गए पर वह बुरी तरह घायल होकर चलने-फिरने के योग्य भी नहीं रहा. कोई साथी इस लड़ाई में मदोत्कट की कोई सहायता न कर सका.

घायल मदोत्कट अब अपने भोजन के लिए किसी प्राणी का शिकार करने की स्थिति में नहीं रहा.उसके तीनों अनुचर बाघ,सियार, कौआ भी भोजन न जुटा सके. यह उन्होंने सीखा ही नहीं था.अब चारों की स्थिति भूख के कारण दयनीय होती जा रही थी.

एक दिन जब कथनक कहीं दूर पेड़ों की पत्तियाँ खा रहा था तब सियार ने सिंह से निवेदन किया कि महाराज! यदि ऐसा ही चलता रहा तो शीघ्र ही भूख से हमारी मृत्यु हो जाएगी. आपकी आज्ञा हो तो कथनक को मार कर हम सब अपनी भूख शांत कर सकते हैं.

मदोत्कट ने गुर्राकर कहा, सावधान मूर्ख! जो प्राणी हमारी शरण में आया है वह शत्रु भी हो तो उसकी रक्षा करना हमारा धर्म है. फिर कभी ऐसी बात न करना. सियार यह सुन कर चुप हो गया. किसी और को कुछ बोलने का साहस नहीं हुआ. सिंह ने तीनों को डाँटते हुए कहा. तुम तीनों सदा मेरे छोड़े हुए भोजन पर आश्रित थे. आज जब मैं अशक्त हो गया हूँ तो मेरे लिए भोजन जुटाना तुम सबका दायित्व है. जाओ और मेरे लिए भोजन लेकर आओ.

तीनों धूर्त तो थे ही,आलसी भी थे. भोजन जुटाने के लिए परिश्रम करना उनके स्वभाव में ही नहीं था. तीनों ने आपस में विचार-विमर्श किया और कथनक के विरुद्ध एक षड्यंत्र रच डाला.

एक दिन वे सभी सिंह के आसपास बैठे हुए थे.तभी योजना के अनुसार कौआ धीरे-धीरे चलकर सिंह के सामने पहुँचा और बड़े कातर स्वर में बोला, महाराज! मुझसे आप की यह दशा देखी नहीं जाती. मेरा यह शरीर आपके छोड़े हुए भोजन पर ही पलता रहा है. अच्छा होगा, आज मुझे आप भोजन के रुप में ग्रहण कर लें. मेरे हृदय को थोड़ी सांत्वना मिल जाएगी. अपने स्वामी के थोड़े काम तो आऊँगा.

कौए की बात सुनकर सियार उठा और आवेश भरे स्वर में कौए को डाँटते हुए कहा, चल हट, बड़ी स्वामीभक्ति दिखा रहा है. अरे!! तेरे शरीर में तो पंख ही पंख हैं.तुझे खाकर क्या महाराज की भूख मिटेगी?

फिर वह सिंह के सामने खड़ा होकर बोला, महाराज! आप मुझे खाकर मुझ पर उपकार कीजिए.

अब योजना के अनुसार बाघ की बारी थी. वह उठा और सियार को पीछे धकेलते हुए बोला, अरे मूर्ख!!दूर हट, तेरे शरीर में तो बाल ही बाल हैं. तुझे खाकर क्या मिलेगा?

अब बाघ ने सिंह से कहा, हे वनराज! आप मुझे अपना आहार बनाइए. जीवन भर मैंने आपका दिया हुआ ही खाया है. आज ऋण चुकाने का अवसर है. यह अवसर मुझे दीजिए.

तीनों धूर्तों द्वारा छलपूर्वक रचे गए इस दृश्य को भोला-भाला कथनक सच समझ बैठा. उसे लगा यदि वह अपने आप को प्रस्तुत नहीं करता तो यह उसकी कृतघ्नता होगी. वह उठा और बोला, महाराज! मैं भी आपका बहुत कृतज्ञ हूँ. मुझे आपने अभयदान दिया जिससे मैं इस वन में सुखपूर्वक रह सका. यदि आज मेरे होते आपके प्राणों पर संकट आता है तो मेरे होने का अर्थ ही क्या है. आप मुझे खा लीजिए. कथनक के इतना कहते ही बाघ और सियार उस पर टूट पड़े. पल भर में ही कथनक के प्राण निकल गए. वह यह समझ न सका कि छली और धूर्त साथियों से सावधान रहना चाहिए और विवेकहीन स्वामी पर विश्वास भी नहीं करना चाहिए.

बिना नाम की नदी

रचनाकार- शालिनी पंकज दुबे

नदी शब्द सुनते ही सहसा बचपन की याद आ जाती है.हम जब भी किसी समारोह में या रिश्तेदारी में गाँव जाते थे तो नदी घूमने जरूर जाते थे. कई गाँवो के नाम तो याद हैं पर नदी के नाम याद नहीं. जेहन को टटोलने पर घाट का नाम याद आता है,पर नदी का नाम नही. कुछ प्रसिद्ध नदियों के नाम पता हैं पर छोटी,संकरी,इस पार से उस पार तक दिखने वाली नदी का नही... बचपन जिसकी आगोश में बीता जो हमारा,उस जमाने का स्वीमिंग पूल हुआ करती थी,उस नदी का नाम तक याद नहीं.

पीपल की वो डाल जिसका एक सिरा आसमान छूने की फिराक में रहता और दूसरी वो जो नदी को छूते हुए अठखेलियाँ करती. उस डाल पर लटक कर खेलना एक अलग ही एहसास था. दौड़कर नदी में छलाँग लगाना,जैसे माँ की गोद में छोटा नटखट बच्चा कूद पड़ता है. गर्मी में घण्टों तक नहाना. सब याद है पर कभी सूझा ही नही कि इस नदी को कोई नाम दें,कोई अपना सा, प्यारा सा नाम.

जाने क्यों घाट के नाम में ही हमने नदी के अस्तित्व को स्वीकार किया,जबकि घाट ने नदी तक पहुँचने की कभी सुगम राह भी नही दी.

बड़ी विडम्बना है कि हमारे बचपन की माँ स्वरूपा इस नदी के लिए हमने कुछ किया ही नही,न कुछ करने की सोच रखी. प्रेम में नाम गौण हो जाता है. नदी बेनाम होने से व्याकुल नहीं है. उसकी निगाहें तो आज भी पथ की ओर देखती हैं कि कोई बच्चा, अतीत का ही सही, फिर उसकी गोद में आ बैठे.पर आत्मीयता से हम कभी करीब भी न बैठे. शहरों की रौनक से लौटकर जब गाँव की गलियों में घूमने निकले,तो सब अच्छा लगा. गाँव की मिट्टी, हरियाली,बाग-बगीचे,खेत- खलिहान. नदी ने अपने आँचल में खेलने वाले बच्चों को न देखा तो स्वयं ही सूखने लगी. जलकुम्भी,कीचड़ सबने अपनी जगह बना ली. नदी निष्प्राण होने लगी.

प्रतिमा और प्रति- माँ

रचनाकार- प्रिया देवांगन 'प्रियू'

नवरात्रि लगते ही सब भक्त माँ अम्बे के प्रतिमा का नव रूपो का अलग अलग दिन विधि विधान से अपने सामर्थ्य के अनुसार पूजा पाठ और माँ को मिठाई, फल का भोग लगाते हैं.

पर उस प्रति माँ का क्या ? जो आज अपने ही घर में बेबस और लाचार पड़ी है. आज भी कई माँ वृद्धाश्रम में है. जो आज भी अपने बहू -बेटो अपने पोता -पोती का राह ताक रही है और इस आस में बैठी है की मेरा बेटा मुझे लेने आयेगा. नवरात्री में जितनी सेवा, पूजा माँ के प्रतिमा का करते है, अगर उसका आधा सेवा भी अपने माँ के लिये करते, तो आज घर एक मंदिर बन जाता.

माँ अम्बे की प्रतिमा में माँ अम्बे विराजती है लेकिन दुनिया के प्रति माँ में पूरा ब्रम्हाण्ड विराज मान है.

सिर्फ मंदिर जा कर दान - दक्षिणा देने से ही माँ अम्बे खुश नहीं रहती है. अगर माता रानी को खुश करना चाहते हो तो सबसे पहले अपनी माँ को खुश रखना सीखो. अगर आप घर की माँ को खुश रखोगे तभी मंदिर की माँ खुश होगी. और अपना आशीर्वाद देगी.

माँ अम्बे यह नही चाहती कि भक्त नव दिन तक मेरे द्वार आये. नारियल, फल और मेवा चढ़ाये. माँ फल और मेवा की भूखी नही होती है. माँ तो केवल सच्ची सेवा, सच्ची भक्ति चाहती है. अगर आज सब मिलकर अपनी - अपनी माँ को खुश करते, माँ की सेवा करते तो आज शायद पृथ्वी पर यह संकट नही आता.

आज इस जगत में कितनी सारी माँ वृद्धाश्रम में रहती है. रोते बिलखते अपने बेटे - बेटियों को याद करती है. उस माँ को कभी ना तड़पाओ जो माँ आपका पालन पोषण की है. आपको आपने हाथों से भोजन खिलाई है. माँ को भी अपने बेटो से यही आशा रहती है कि जब हम बूढ़े हो जाएंगे तो ऐसे ही हमारे बच्चे हमारी सेवा करेंगे.माँ तो माँ होती है. अपने बच्चे के बारे में कभी गलत नही सोंच सकती है. लेकिन आज माँ को क्या पता कि माँ - बाप बूढ़े होते ही बोझ हो जाएंगे.

आज माँ को क्या पता कि जब हम बूढ़े हो जाएंगे तो हमारे बेटे - बहू हमें वृद्धाश्रम में छोड़ आएंगे.

अरे मानव कुछ तो समझो, कुछ तो दया दिखाओ अपने माँ - बाप के ऊपर जिस माँ ने तुम्हे ऊँगली पकड़ के चलना सिखाया आज उसी माँ को तुम बेसहारा बना दिये. बहुत खुश नसीब वाले होते हैं वो इंसान जिसके माँ - बाप उनके साथ हमेशा रहते हैं. अनाथ आश्रम के बच्चे अपने माता - पिता को देखने के लिए तड़पते है और एक तरफ ये इंसान हैं जो माँ - बाप होते हुए भी उन्हें छोड़ आते है. माता - पिता की कीमत उस गरीब अनाथ बच्चों से पूछो की माता - पिता क्या होते हैं.

बड़ा - बड़ा घर, गाड़ी, बंगला और पैसे रखने वाले ही अमीर नही होते. जिस घर में बूढ़े माँ - बाप की सेवा होती है वही इंसान दुनिया की सबसे अमीर इंसान होते हैं.

अगर सेवा करना चाहते हो तो अपने माता - पिता की करो, मंदिर जा कर दिखावा करने से माँ नही आएगी. आज अगर संसार मे माता - पिता को बोझ नही समझते, माँ अम्बे की तरह उनकी पूजा सेवा करते तो कही भी वृद्धाश्रमों की जरूरत नही पड़ती.

आज आप ऐसा करोगे तो कल आपके बच्चे भी आपके साथ ऐसा ही व्यवहार करेंगे तब आप उस पर ऊँगली नही उठा पाओगे.

आने वाले कल के बारे में सोचो जैसा व्यवहार आप अपने माता - पिता के साथ करोगे वैसा ही व्यवहार कल आपके बच्चे आपके साथ करेंगे.

अगर प्रतिमा को खुश रखना है तो अपने प्रति माँ को पहले खुश करो. अच्छे से भोजन खिलाओ, माँ की सेवा करो. तभी मंदिर वाली माँ अम्बे आपके घर बिना बुलाये आएगी और अपना आशीर्वाद देगी.

सजीव एंव निर्जीव

रचनाकार- पेश्वर राम यादव

हमेशा अपने शिष्यों को परखने की आदत और अनुभव के आधार पर अध्ययन में मनोरंजक, शिक्षाप्रद, क्रियाकलाप एवं गतिविधि आधारित शिक्षा देने में माहिर थे एक गुरूजी. एक बार अपने शिष्यों को सामूहिक कार्य के अंतर्गत उन्होंने सूखा तालाब और पानी भरा तालाब ढूँढकर आने को कहा. सभी शिष्य तालाब की खोज में निकल पड़े.उन्हें एक सूखा तालाब मिला. तालाब में घोंघे के टूटे शल्क सूखी लकड़ी की टहनियाँ, कंकड़ पत्थर, मिटटी में लिपटे हुए सूखे पत्ते एवं बड़ी बड़ी दरारें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं. तालाब के आसपास की जमीन भी सूखी थी.

फिर वे सभी गुरूजी की आज्ञानुसार पानी से भरे तालाब की खोज में आगे बढ़े. कुछ दूर चलने पर एक पानी वाला तालाब दिखाई दिया. सभी के मन में एक स्फूर्ति, शरीर में एक उत्तेजना सी जागृत हुई.तालाब में लबालब पानी भरा है,आसपास हरे भरे पेड़ पौधे है, तट पर फलदार आम का पेड़,तालाब के अंदर मछलियाँ तैर रही हैं, मेंढक उछलकूद कर रहे हैं. अन्य जलीय जीव जंतु भी पानी में दिखाई दे रहे हैं. जलीय पौधे भी दिखाई दे रहे हैं.

दोनों दृश्य देखकर सभी शिष्य आश्रम लौट आए. वे सब गुरूजी के पास गए और आँखों देखा हाल गुरूजी को सुनाया.गुरूजी शिष्यों की बातों को सुनकर प्रसन्न हुए.उन्होंने कहा जो कुछ तुम लोगों ने सूखे तालाब में देखा,पत्थर, सुखी पत्तियाँ, घोंघा के शल्क, सूखी लकड़ी एवं मिटटी की दरारें ये सभी निर्जीव हैं.ये चल फिर नहीं सकते. उसी तरह पानी से भरे तालाब में मेंढ़क, मछली, सांप, जोंक, जलीय जीव, पौधे एवं तट में स्थित पेड़-पौधे यह सब सजीव हैं.जिनमें जैविक क्रियाएँ होती हैं. इस तरह से गुरूजी अपने शिष्यों को नैतिक शिक्षा के साथ साथ गतिविधि आधारित शिक्षा भी देते थे.

Visitor No. : 6745311
Site Developed and Hosted by Alok Shukla