छत्तीसगढ़ी बालगीत

गोबरधन

रचनाकार- नेमेन्द्र कुमार गजेन्द्र

गोबर धन हे गाँव के, झन कचरा मा सान.
खेत खार मा छिंच दे, होही सुग्घर धान..
होही सुग्घर धान, सबो के कोठी भरही.
भूख प्यास के रोग, गाँव ले दुरिहा टरही..
भरही सबके पेट,अन्न पूर्णा ह बरोबर.
झन कचरा मा सान, गाँव के धन हे गोबर..

नाचव

रचनाकार- योगेश्वरी साहू

घूम-घूम के नाचव
झूम झूम के नाचव.

हाथ उठा के नाचव
आंखी मटका नाचव.

कनिहा हला के नाचव
माँदर बजा के नाचव.

मगन हाबन सब झन
नाचव नाचव नाचव.

शिक्षा

रचनाकार- नेमेन्द्र कुमार गजेन्द्र

पढ़े लिखे जिनगी गढ़े,जग मा नाम कमाय.
अनपढ़ घूमत गाँव मा,दुख भर भारी पाय..

समय रहत ले ध्यान दौ,पढ़ लेवव सब धीर.
जीवन विद्या पाय के,बन जावव जी वीर..

नेट सेट सब छोड़ के,पुस्तक लेवव हाथ.
पढ़ना अउ बढ़ना हवे,अउ का तुंहर साथ..

घूम घूम काटत समय,बीत जथे चहु मास.
पेपर आवत पास मा,टूटे लगथे आस..

जेन समय कहुँ बीत गे,तेन बाद नइ आय.
फकत फेर रोना पड़े,दोष करम ल लगाय..

इक संदेसा जान के,गाँठ बाँध लव बात.
पढ़े नही जे फेर तो,पड़थे खाना लात..

कलम

रचनाकार- नेमेन्द्र कुमार गजेन्द्र

तेज कलम मा लागे, राहय धार.
जउन गुलामी नइया, करगे पार..

आजादी बर बनके, इक तलवार.
मौन कलम तक भरगे, बड़ हुंकार..

कलम धरम ला मानत, लिखगे सार.
भगत बोस के गाथा, कर स्वीकार..

झाँसी दुर्गा के वो, जौहर देख.
कलम लहू मा बुड़के, लिखगे लेख..

वीर लहू के होगे, अमर ह नाम.
रखे कलम हे लेखा, मानत काम..

मान कलम ला मनले, सब जन देव.
आजादी बर रचगे, जे हर नेव..

धान के रुनझुन मोला संगीत लागे जी

रचनाकार- स्नेहलता 'स्नेह'

हमर भाखा हमर बोली हमन ला मीत लागे जी
पपीहा कोयली मैना के गुरतुर गीत लागे जी

हमन छत्तिसगढ़ी मनखे हमर दिल पुन्नी के चंदा
हमर दिल के अंजोरी मा अमावस दीत लागे जी

इहां चाँउर के आटा से बनाथे अंगाकर रोटी
पताल लसुन मिरच चटनी झमाझम तीत लागे जी

देवारी मा फरा खुर्मी सुहारी ठेठरी बनथे
छुही माटी लिपे अँगना सुघ्घर ए रीत लागे जी

चंदैनी गोंदा ममहाथे खिले मंदार अउ चंपा
गहूँ तिल धान के रुनझुन मोला संगीत लागे जी

कुकुर

रचनाकार- बलदाऊ राम साहू

घर मा पोसे - पाले कुकुर
दूध - भात तैं खाले कुकुर.

पर ल तैं हर गजब डरवाथस
अबड़ हिम्मतवाले कुकुर.

तोर आय ले नइ आये कौनो
भूँक-भूँक डरना ले कुकुर.

मैं ह आये हौं घूम-घाम के
पूछी अपन हलाले कुकुर.

गाँव के सुरता

रचनाकार- नेमेन्द्र कुमार गजेन्द्र

आथे सुरता अब हमर, पुरखा मन के गाँव.
आमा अमली संग मा, बर पीपर के छाँव..
बर पीपर के छाँव,जिहाँ मन होवय चंगा.
तरिया डबरी ताल,गाँव के पबरित गंगा.
शहर-नगर के शोर,कान ला कहाँ सुहाथे.
निरमल नीरव गाँव,अबड़ के सुरता आथे..

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