कहानियाँ

पंचतंत्र की कथाएँ- वाचाल कछुआ

एक तालाब में कंबुग्रीव नामक एक कछुआ रहता था. वह बुद्धिमान तो था पर बातें बहुत करता था. कोई भी विचार उसके मन में आए तो वह बिना बोले नहीं रह सकता था. उसी तालाब के किनारे संकट और विकट नाम के दो हंस भी रहते थे. दीर्घकाल से साथ-साथ रहने के कारण उनमें गहरी मित्रता हो गई थी. विश्राम के समय वे आपस में वार्तालाप करते थे. ऐसे ही उनके दिन आनंद से बीत रहे थे.

एक बार वर्षा ऋतु में ठीक से वर्षा नहीं हुई. तालाब का सीमित जल धीरे-धीरे सूखने लगा. संकट और विकट को चिंता होने लगी. उन्हें आने वाले दिनों की कल्पना भयभीत करने लगी. उन्हें चिंतित देख कंबुग्रीव ने कहा, 'मित्रो! विपत्ति आने पर धैर्य के साथ उसके निवारण के उपायों पर विचार करना उचित होता है. आप दोनों किसी एक सरोवर का पता लगाएँ जहाँ पर्याप्त जलराशि हो. हम वहां चले जाएंगे.'

दोनों हंसों को कंबुग्रीव की बात अच्छी लगी. उन्होंने शीघ्र ही एक विशाल जलाशय का पता लगा लिया. परन्तु वह जलाशय तालाब से कई कोस दूर था. यह एक नई समस्या थी. कंबुग्रीव वहाँ तक चल कर नहीं जा सकता था. वह इतना बड़ा और भारी था कि संकट और विकट उसे अपनी पीठ पर बैठाकर उड़ नहीं सकते थे. विकट ने बहुत सोच कर एक प्रस्ताव रखा. उसने कहा, 'मित्र कंबुग्रीव! मैं और संकट एक टहनी को अपनी चोंच में दबा लेंगे. आप उसे अपने मुँह से बलपूर्वक पकड़ लेना. फिर हम उस जलाशय की ओर आपको साथ लिए उड़ चलेंगे.'

'हाँ, यह उपाय अच्छा है. किंतु मित्र! किसी भी दशा में आप अपना मुँह ना खोलें, यह अत्यंत आवश्यक है.' संकट ने कंबुग्रीव को समझाते हुए कहा.

कंबुग्रीव ने हंसकर कहा, 'क्या आप दोनों को लगता है कि मैं ऐसी मूर्खता करूंगा?'

इस युक्ति के अनुसार संकट और विकट कंबुग्रीव को अपने साथ ले उड़े. बड़ा ही अद्भुत और अभूतपूर्व दृश्य था. जब वे एक गाँव के ऊपर से उड़ रहे थे. तभी एक बालक की दृष्टि उन पर पड़ी वह बड़ा अचंभित हुआ. 'देखो-देखो' ऐसा चिल्लाते हुए हंस के उड़ने की दिशा में दौड़ पड़ा. धीरे-धीरे अन्य लोग भी कौतूहलवश उसके पीछे दौड़ने लगे.

इससे कंबुग्रीव को हंसी आने लगी. वह सोचने लगा, मनुष्य नामक यह प्राणी भी कितना मूर्ख है. धीरे-धीरे कोलाहल बढ़ता हुआ देख उससे रहा न गया. वह बोल पड़ा 'चुप हो जाओ मूर्खो....

पर यह क्या? जैसे ही उसने अपना मुँह खोला, टहनी उसके मुँह से छूट गयी और वह जमीन की तरफ गिरने लगा. पर अब तो कुछ भी नहीं हो सकता था. जमीन पर गिरते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए.

यह देख संकट और विकट का हृदय विषाद से भर गया.

संकट ने कहा, 'आह! बुद्धिमान भी यदि अपनी चंचलता पर नियंत्रण न रखे तो अनर्थ को रोका नहीं जा सकता.

गगन की सैर

रचनाकार- डॉ.जयभारती चंद्राकर

भोर का तारा टिमटिमाते देख एक नन्ही सी चिड़िया चहचहाने लगी उसके साथ सभी पक्षी भी चहचहाने लगे. धीरे-धीरे रात्रि का अँधेरा बीत गया और भोर की किरणें चारों ओर फैलने लगी.

आज नव वर्ष का प्रथम दिवस, सूर्य की पहली किरण के अद्भुत सौंदर्य को निहारती नन्ही चिड़िया अपने पंख फैला कर नील गगन में उड़ने का प्रयत्न करने लगी.उसे देख कर उसकी माँ ने कहा- 'नन्ही तुम अभी एक-दो उड़ान और भरो और यह क्रिया बार-बार दोहराती रहो तो तुम जल्दी ही उड़ना सीख जाओगी.' नन्ही चिड़िया चहकने लगी और मुस्कुराते हुए कहने लगी- 'मैं तो अभी आज से ही नीले आकाश में उड़ना चाहती हूँ.' वह अपने पंख फैलाकर उड़ने का प्रयास करने लगी. प्रयास करते हुए वह उड़- उड़कर जमीन पर गिरने लगी. उसकी माँ ने उसे इस तरह उड़ते गिरते देख कर कहा - 'तुम आज ही उड़ना क्यों चाहती हो नन्हीं?' नन्हीं ने चहचहाते हुए कहा - 'माँ आज नये वर्ष का पहला दिन है और आज से ही मैं उड़कर नीले आकाश को देखना चाहती हूँ.'

उसकी बातें सुनकर माँ ने मुस्कुराते हुए कहा -' चलो नन्हीं, आज इस नव वर्ष के प्रथम दिवस पर मैं तुम्हें आकाश की सैर कराती हूँ.' ऐसा कहती हुई माँ, नन्ही चिड़िया को अपनी चोंच में दबाकर दूर नील गगन की सैर के लिए उड़ चली.

दादी की तरकीब

रचनाकार- जतिन वर्मा, वाघोली, पुणे

समर राजनगर में अपने माता पिता के साथ रहता था. वह पढाई में होशियार था मगर थोड़ा आलसी था. उसे चाट पकौड़ा खाना बहुत पसंद था. एक दिन बाजार का दूषित चाट खाने से उसे बुखार हो गया. दो दिनों तक दवा लेने से उसका बुखार तो उतर गया,मगर कमजोरी आ गई. डाक्टर ने कहा --'डट कर खाओ कमजोरी दुम दबाकर भाग जाएगी. 'मगर समर के मुख का स्वाद खराब हो गया था, उसकी भूख मर गई थी. उसे कुछ भी खाना अच्छा नहीं लग रहा था. माँ उसके पसंद का खाना पकाती पर वह एक रोटी भी बड़ी मुश्किल से खा पाता.सभी समर की भूख से परेशान थे.

तभी दादी गाँव से आईं. समर को देखकर उन्हें हैरानी हुई, उन्होंने पूछा -''अरे समर इतना कमजोर कैसे दिख रहा है''

समर बोला--'दादी, बुखार के बाद मेरी भूख गायब हो गई है.'

दादी ने सोचा, कुछ करना पडेगा.

अगली सुबह दादी ने समर को जगा कर कहा --''चल समर टहल कर आते हैं, मुझे यहाँ के रास्ते नहीं पता, तू साथ चलेगा तो ठीक रहेगा. ''

समर को दादी के साथ मन मार कर जाना पड़ा. बाहर निकले तो सुहानी बयार चल रही थी,पक्षी चहक रहे थे,कुछ बच्चे फुटबाल खेल रहे थे, कुछ कसरत कर रहे थे. दोनों पार्क पहुँचे.

पार्क पहुँच कर दादी एक बेंच पर बैठ गईं और समर से कहा -''जाओ देखो आसपास कहीं नीम का पेड़ है, उसकी नरम पत्तियां और दातून के लिए डंठल तोड़ कर लेते आना. ''

समर नीम का पेड़ ढूँढने निकला. पार्क के तीन चक्कर लगाने के बाद भी जब उसे कहीं नीम का पेड़ नहीं दिखा तो उसने माली काका से पूछा -'काका, ये नीम का पेड़ कहाँ मिलेगा ?''

काका ने हँसते हुए कहा --''अरे ये सामने तो नीम का पेड़ है. ''

समर ने देखा, सामने ही नीम का पेड़ था. उसने झटपट एक डंठल तोड़ी और मुलायम पत्ते लेकर दादी के पास चला. फिर वे घर पहुँचे.

घर पहुँच कर दादी ने ऐलान किया --''आज नाश्ता मै बनाउँगी, देखना समर को नाश्ता पसंद आएगा.''

फिर दादी समर से बोलीं --''बेटा जल्दी से जाकर धनिया पत्ती, हरी मिर्च ले आ, जब तक मै बाकी नाश्ते की तैयारी करती हूँ. ''

समर बोला --''ठीक है दादी मै अभी गया और अभी आया. ''मगर साइकिल पंचर थी, उसे पैदल ही जाना पड़ा. दादी मुस्कुरा रहीं थीं.

फिर दादी ने पोहा बनाया. सभी ने मजे से खाया, समर बोला --''दादी थोड़ा पोहा और मिलेगा, ''मगर तब तक पोहा ख़त्म हो चुका था. दादी ने कहा --''बेटा कल से थोड़ा ज्यादा नाश्ता बना दूँगी. ''

नाश्ता करके समर पढ़ने बैठा. दो घंटे बाद ही उसे भूख लग आई. वह किचन में पहुँचा, शायद कुछ बिस्किट मिल जाएँ, मगर वहाँ मैदान साफ़ था.

दादी ने समर से कहा --''जाओ नहा कर आओ. ''समर नहा कर आया. दोपहर के बारह बज रहे थे. फिर उसने भोजन माँगा तो दादी ने बताया, थोड़ा वक्त लगेगा. फिर दादी ने कहा, ''--बेटा, देखो माँ कपड़े धो रही है, उन्हें सुखाने के लिए छत पर डाल आओ. ''

एक घंटे बाद समर को भोजन मिला. दादी ने चमत्कारिक भोजन बनाया था. समर ने छक कर खाया.उसकी भूख खुल चुकी थी.

शाम को दादी फिर उसे घूमने के लिए बाहर ले गई. वहाँ मैदान में बच्चे फुटबाल खेल रहे थे.

दादी ने कहा --''मुझे फ़ुटबाल का खेल बहुत पसंद है,तुम जाकर खेलो, मै यहाँ बैठकर देखती हूँ. ''

समर मैदान में उतरा. पहले वह बे मन से खेलता रहा. बाद में उसे फुटबाल खेलने में मजा आने लगा.

एक घंटे बाद दादी और समर जब वापिस लौटे तो समर पसीने से लथ पथ था. घर पहुँच कर उन्होंने चाय पी. रात को भी समर ने मजे से खाया.

दादी सात दिन रहीं. सातों दिन समर उनके साथ रहा. जब दादी जाने लगी तो समर उदास हो चला.

दादी ने कहा--''बेटा सुबह की सैर करते रहना और शाम को फ़ुटबाल खेलते रहना.''

समर ने कहा--''हाँ दादी, मैं अब अच्छी सेहत का राज जान गया हूँ.''

दादी जाते जाते उसे एक पैकेट दे गईं. दादी के जाने के बाद उसने व्यग्रता से पैकेट खोला. उसमे ढेर सारे बिस्किट और नमकीन के पैकेट थे. मगर अब वो ये सब खाना भूल चुका था. दादी की तरकीब ने समर की जिंदगी ही बदल दी.

ठग

रचनाकार- श्वेता तिवारी

दीपक के पिताजी शहर में नौकरी करते थे. दीपक उन्हीं के साथ रहता था और शहर के विद्यालय में पढ़ता था. दीपक के दादा दादी चाचा चाची गाँव में रहते थे और खेती-बाड़ी का काम करते थे. एक बार दीपक अपने दादा दादी के पास आया तो देखा गाँव में रेलवे स्टेशन के पास बहुत रौनक है एक बड़ा सा तंबू लगा हुआ है स्पीकर लगा हुआ है, लोग आ-जा रहे हैं वहाँ कुछ संत आए हुए थे,वे कई चमत्कार करते थे.चाचाजी ने दीपक को बताया, जानते हो ये संत किसी के शरीर से भूत निकालना जानते हैं, भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में बताते हैं, धन दुगना कर देते हैं. चाचा संत का गुणगान करने लगे.आप क्या कर रहे हैं चाचा, जादू से कभी धन दुगना होता है? सही कह रहा हूँ दीपक, चाचा ने विश्वास से कहा. कोई ठग होंगे चाचा, आप फँस मत जाना. इस तरह नहीं बोला करते चाचा ने डाँटते हुए दीपक से कहा. संत के लिए इस तरह के शब्द बोलने से कुछ भी हो सकता है चाचा घबराए हुए स्वर में बोले.दीपक ने चाचा से बहस करना उचित नहीं समझा थोड़ी देर में दादा- दादी भी संत के दर्शन करके लौट आए. वे भी उनका गुणगान करने लगे, बोले संत गाँव वालों से बहुत प्रसन्न है वह कल चले जाएँगे. जाते-जाते वे गाँव वालों की गरीबी दूर करना चाहते हैं. वह कैसे? चाचा ने पूछा.आज रात संत धन को दुगुना करने का कार्य करेंगे गाँव में जिस किसी को भी अपना धन दुगुना करवाना हो वह संत के पास चमत्कारी संदूक में अपना धन रखवा दें.संत संदूक में ताला लगा देंगे और चाबी गाँव के ही किसी व्यक्ति को दे देंगे सुबह तक धन दुगुना हो जाएगा और दुगुना ही लौटाया जाएगा,दादाजी ने बताया. दादाजी की बातें सुनकर दीपक तुरंत अपने पिताजी को बताने दौड़ पड़ा जो खेत पर चले गए थे.खेत पर पहुँचकर दीपक ने धन दुगना करने वाली बात अपने पिताजी से कही. पिताजी बोले,हम क्या कर सकते हैं? गाँव में आज भी लोग अंधविश्वासी हैं. लेकिन इस तरह तो वे लोग पूरे गाँववालों का धन लूट कर भाग जाएँगे, हमें पुलिस को अवश्य सूचना देनी चाहिए,दीपक बोला. हाँ, यह बात ठीक है दीपक के पिताजी बोले.फिर दीपक के पिताजी ने पुलिस वालों को बुलाया और पूरी योजना उन्हें समझा दी. रात तक गाँव के लगभग सभी व्यक्तियों ने अपनी जमा पूँजी कपड़े की पोटलियों में भरकर संत के पास रखे संदूक में डाल दीं. बाद में एक संत ने संदूक में ताला लगाया और गाँव के ही एक आदमी को चाबी सौंप दी,फिर सभी लोगों से कहा गया कि वे सुबह आकर दुगना धन प्राप्त कर लें. सभी लोग अपने अपने घर की ओर चल दिए. अब पुलिस वालों ने अपना काम शुरू किया वे पास ही पेड़ों और झाड़ियों की ओट में छिप गए. थोड़ी देर बाद सभी संत तंबू से निकल कर जाने लगे. एक संत के सिर पर वह चमत्कारी संदूक भी रखा था. पुलिस वालों ने तुरंत संतों के भेष में आए ठगों को वहीं दबोच लिया और थाने में बंद कर दिया अगले दिन थानेदार ने गाँव वालों को पूरी बात बताई तो सभी गाँव वाले दीपक की होशियारी की तारीफ करने लगे जिसने उन्हें कंगाल होने से बचा लिया.

गोदना वाली गेंदा

रचनाकार- रजनी शर्मा बस्तरिया

​‘गेंदा’ नाम था उसका, धूप में सुनहरे हो चुके बालों की चंपई आभा में वह मेड़ पर खिले ‘भटकटईया’ के फूल सी हमेशा खिली-खिली रहती थी.उसकी ठुड्डी में गोदने के टप्पे उसके व्यक्तित्व को और विशेष बनाते थे. आज उसके स्कूल में एक नई छात्रा आई थी. उसके हाथो में, गले में ‘टैटू’ का चिन्ह भी था. गेंदा ने अपनी कलाई की ओर देखा. उसने दोस्ती करने के लिए पूछा. क्या नाम है तुम्हारा ? उसने कोई जवाब नहीं दिया. गेंदा स्कूल की छुट्टी होने पर वापस अपने घर आ गई. वह सभी से बातें करती फुदकती गौरैया सी पूरे शाला परिसर में फिरा करती थी.

​साधारण से कपड़े, हौसलों की बिंदी, साहस का बस्ता, यही उसकी जमा पूँजी थी. सब कुछ सामान्य चल रहा था. पर धीरे-धीरे उस टैटू वाली लड़की ने गोंदा के हाथ में गोदने को लेकर चिढ़ाना शुरू कर दिया था. अब यह रोज की बात हो गई थी. उसका नाम रख दिया गया था 'देहाती गेंदा'.

​गेंदा बहुत रुँआसी हो गई थी. उसने अपनी मां को इस घटना के बारे में बताया और जिद करने लगी कि मेरी कलाई से यह गोदना का निशान मिटवा दो. यह क्या सुन कर माँ ने गेंदा को प्यार से पुचकारा और खुब समझाया.

​अगले सप्ताह स्कूल मे वाद-विवाद प्रतियोगिता थी. विषय था पारंपरिक गोदना वर्सेज आधुनिक टैटू. गेंदा बेमन से प्रतियोगिता में सम्मिलित हुई थी. विपक्षी प्रतिभागी के रूप में बड़े ही आत्मविश्वास के साथ टैटू वाली लड़की ने बोलना शुरू किया.

​टैटू आधुनिक पद्धति, रंग-बिरंगे मन-मोहक रंगों द्वारा इलेक्ट्रानिक सुईयों द्वारा किया जाता है जो बदलते फैशन की मांग है. यह हमारे व्यक्तित्व को और निखारता है वगैरह.... वगैरह...... खूब तालियाँ बजी. अब गेंदा की बारी थी. उसकी हथेलियाँ पसीने से भीग चुकी थीं. धड़कते दिल से वह मंच की ओर बढ़ी और माईक पकड़ कर अभिवादन मे 'जय जोहार' कहा. गेंदा कह रही थी, गोदना हमारी संस्कृति का हिस्सा है जो पारंपरिक श्रृंगार के साथ विशेष अंगो पर ही गोदा जाता है इसके चिकित्सकीय लाभ भी होते हैं. यह प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से तैयार की गई स्याही से बबूल के कांटो द्वारा गोदा जाता है. शरीर के विशेष एक्यूपंचर पाईंट पर स्याही से त्वचा पर पारंपरिक आकृतियाँ उकेरी जाती हैं. टैटू के समान इसके साइड इफेक्ट नहीं होते हैं. ना ही टैटू में प्रयोग किये जाने वाले हानिकारक केमिकल का प्रयोग होता है. यह कह कर गेंदा चुप हो गई. उसकी ऑंखें भर आईं. ​अचानक गेंदा चौंक गई, तालियों की गड़गड़ाहट से परिसर गूँज उठा. मंच से विजेता के रूप में गेंदा का नाम पुकारा गया. विजेता की ट्राफी लिये गोदना वाली गेंदा ससम्मान उतर रही थी. अपनी सांस्कृतिक विरासत पर शर्मिंदा नहीं वरन गर्व का भाव लिये 'गोदना वाली गेंदा'

नेकी करो

रचनाकार- कु कल्याणी दलेई, कक्षा बारहवीं, शा.उ.मा.वि. पहंडोर, दुर्ग

सोनपुर गाँव में दीनू नाम का एक बालक अपने माता पिता के साथ रहता था. वह सातवी कक्षा में पढ़ता था. दीनू बहुत संस्कारी बालक था,पढ़ाई लिखाई में बहुत अच्छा था,बड़ों का सम्मान करता था. यदि उसे रास्ते में कोई घायल जीव मिल जाए तो उसकी देखभाल करता था. स्कूल में बालं दिवस धूम- धाम से मनाने की तैयारियाँ चल रही थीं. दीनू बहुत खुश था. वह बालदिवस के दिन प्रातः स्कूल जा रहा था, तभी उसने रास्ते में एक बच्चे को देखा जिसके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था, वह बच्चा बहुत भूखा और बीमार था. दीनू को उस बच्चे पर दया आई. वह उस बच्चे को तुरंत अपने घर ले गया और उसे खाना खिलाया,पहनने के लिए कपड़े दिये. वह गरीब बच्चा बहुत खुश हुआ उसने दीनू को धन्यवाद दिया और दीनू से कहा कि जीवन में यदि कभी भी मुझे तुम्हारी सहायता करने का अवसर मिले तो मैं अवश्य तुम्हारी सहायता करूँगा मित्र,ऐसा कहकर वह चला गया. दीनू को बहुत खुशी हुई फिर वह स्कूल गया.

कुछ महीने बीत गए, दीनू का जन्मदिन आया उसके माता - पिता उसे इस अवसर पर मंदिर ले गए.वे भगवान का आशीर्वाद लेकर घर लौट रहे थे तभी एक चोर दीनू की माँ के हाथ से उनका थैला छीनकर भागने लगा.उसी समय वह गरीब बच्चा जिसकी दीनू ने सहायता की थी, उसने चोर के हाथ से वह थैला छीन लिया.फिर उन्होंने उस चोर को पुलिस के हवाले कर दिया. दीनू ने उस बच्चे को धन्यवाद कहा. इस पर उस बच्चे ने कहा इसकी कोई आवश्यकता नहीं है मित्र, पहले तुमने मेरी सहायता की थी और आज मैंने तुम्हारी सहायता की इस तरह हमें सबकी सहायता करनी है, यह बोलकर वह बच्चा चला गया.

बच्चों ने बंजर धरती में आलू-भुट्टे उगाये

रचनाकार- आसिया फारूकी, फतेहपुर, उ. प्र.

सुबह सुबह राशिद बहुत खुश था. आज हमारी कक्षा में भुट्टे बाँटे जाएँगे. एक हफ्ते के इंतजार के बाद आज कक्षा 4 के बच्चों को भुट्टे मिलने का क्रम आया था. मारिया चुपचाप सब देखती रही. उसका नया नामांकन हुआ था. बड़ी मासूमियत से पूछने लगी, क्या इस स्कूल में भुट्टे भी उगते हैं ? दिलकश शान से बताने लगा, 'उगते नहीं हैं हम उगाते हैं.' सभी बच्चे एक-दूसरे से अपने विद्यालय में उगी सब्जियों मूली, टमाटर, आलू-बैंगन, भुट्टों के विषय में बातकर खुश हो रहे थे. कोई कह रहा था कि हम बीज लाये थे. कोई बता रहा था कि हम रोज पानी, खाद, गुड़ाई करते थे. कैफ बोला, 'बकरियों से अगर मैं न बचाता तो क्या आज भुट्टे और आलू मिल पाते ? तभी उन सबकी चहेती माया दीदी (रसोइया) भुने हुए भुट्टे नमक लगाकर सभी को बांटने लगी. बच्चे बहुत खुश होकर भुट्टे खा रहे थे. मेरी आँखों में अतीत के चित्र गुजरने लगे. मेरा इस विद्यालय का पहला दिन जब प्रमोशन के बाद यहाँ पहला कदम रखा था. सब कुछ अस्त-व्यस्त था. आज भी आँखों के सामने वही मंजर, वीरान जंगल-सा विद्यालय परिसर घूम जाता है. सोचती थी इस बेजान धरती को सजीव कैसे बनाऊँ ? सभी बच्चों और रसोइयों को बुलाकर अपने इरादे के बारे में बताया तो रसोइयों ने कहा, 'काम तो अच्छा है पर आसान नहीं. सालों से यहाँ एक पौधा भी नहीं उगा. जमीन ही बंजर है.' मैंने कहा, 'कोशिश करने में क्या हर्ज है, धरती को सजीव बनाना सीखना चाहिये.' पूरे परिसर में वर्षों से जमा कूड़ा जमकर सख्त हो गया था. कूड़ा हटाने के लिऐ मैंने विभाग को कई बार अर्जी लिखी. फिर कुछ अभिभावकों को श्रमदान के लिये राजी किया. गाँव के कुछ लोग सहयोग हेतु आगे आए. एक हफ्ते तक परिसर में जुताई का कार्य चला. हमने और बच्चों ने खुद मेहनत करके सारी गंदगी साफ की.मैं यही बोलती रही, 'ये परिसर हमारा है, इसे साफ सुथरा हरा-भरा बनाना हमारा फर्ज है.' कुछ दुष्ट लोग अभी भी विद्यालय में कूड़ा डालते, ईंट, पत्थर चलाते जिससे हम सभी परेशान थे. तब हमने नन्हे बच्चों की एक 'ग्रीन आर्मी' तैयार की जो आसपास के लोगों को ऐसा न करने और साफ-सफाई के लिये जागरूक करती. कुछ असामाजिक लोगों को हमारा काम अखर रहा था और वे हमें विद्यालय छोड़ने की धमकियाँ भी दे रहे थे. पुलिस प्रशासन की मदद से उनपर रोक लगाई गई. इस बदलाव को देख लोग जुड़ने लगे. मैं उन्हें यही समझाती कि विद्यालय हमारे बच्चों का भविष्य है. इसमें आप साथ देंगे तो हम बेहतर कर पाएँगे. मैं स्कूल को सँवारने में जी जान से जुट गई. बच्चे किसी को कुछ करते हुए देखने के बाद अपने हाथों से करके सीखते हैं. तो रोज सुबह मैं बच्चों से कहती, 'चलो बच्चो काम शुरू करें.' बच्चे खुरपी, फावड़े और कुदालें ले आते. अभिभावक शमीम चाचा किसान थे, वो जब भी विद्यालय में आते उन्हें देखकर बच्चे खुश हो जाते क्योंकि वे बच्चों को खेती बाड़ी के तौर-तरीके बता जाते. बच्चों में उत्साह जाग जाता. उनकी देखादेखी खाद छिड़कते, कतारें बनाते, निराई-गुड़ाई करते. बच्चे पसीने से तरबतर हो जाते पर रुकते नहीं.

मैदान के पीछे का हिस्सा जहां गाँव के लोग कई वर्षों से कूड़ा डाला करते थे. डंप होकर पहाड़ नुमा हो गया था. मैंने सोचा ये भी साफ कर लूँ तो इतनी जमीन और निकल आएगी.बच्चों के लिये सब्जियाँ उगाई जा सकेंगी. पर उसे साफ करना काफी कठिन काम था. नगर पालिका में अर्जी पर अर्जी लगाती रही. एक दिन सफाई कर्मी आये और कूड़ा देख कर घबरा गये, बोले मैडम ये तो पंद्रह दिन से कम में नहीं हो पायेगा. काम शुरू करवाया. बच्चे और अभिभावक भी साथ लग गये. धीरे-धीरे जमीन साफ होती रही और उससे निकलने वाली ईंटों से हमने क्यारियां बना लीं. कूड़े वाली जमीन के साफ होते ही आमिर अपने पापा को बुला लाया जो मिट्टी डालने का काम करते थे. उनके सहयोग से बच्चों ने क्यारियों में उपजाऊ मिट्टी डाली. अगली सुबह बच्चे मेरे पास आए, वे अपने-अपने घर से अंकुरित आलू लेकर आए थे. बोले कि घर वालों ने बोने के लिए दिये हैं. चांदनी ने उन आलुओं को टोकरी में जमा किया. क्यारियाँ तो पहले ही तैयार थीं. बच्चों ने कतारों में बीज बो दिए. समय समय पर खाद पानी डालते रहे. उस दिन तो बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं था, जब गाँव के कुछ सहयोगी लोग अमरुद, टमाटर, नींबू, गुलाब, बेला और एलोवेरा के पौधे लेकर स्कूल पहुँचे. उनको भी उचित जगह पर रोपा गया. जल्दी ही पौधे बड़े होने लगे. बच्चे अपने नन्हें हाथों से बोये बीजों को पहली बार धरती की कोख से बाहर झाँकते, पनपते देख रहे थे. यह आनंद अनूठा था. फसलें बढ़ती रहीं और बच्चों के सपने भी.

आलुओं की फसल जब पक गई तो खुदाई का दिन तय हुआ. बच्चों ने अपनी अपनी क्यारियां बाँट लीं. खुरपी से वो खोदते जाते और मुझे दिखा-दिखा कर खुश होते. मजाल है जो इस कार्य में कोई कोताही हो जाए. कोई आलुओं को बीन रहा था, कोई धोकर टोकरी में रखता जाता. अरशद, माया दीदी से आलुओं के परांठे बनाने की फरमाइश कर रहा था तो नेहा चिप्स बनाने की जिद कर रही थी. कितने प्यारे लग रहे थे ये सब. और सैफ तो आलुओं से भरी टोकरी सिर पर रखकर 'आलू ले लो आलू' आवाजें लगाता घूम रहा था, सारे बच्चे खिलखिला कर हँस पड़े. सलोनी दौड़ती हुई मेरे पास आयी और बोली मैम आज की सब्जी बहुत स्वादिष्ट बनी है. अयान बोल उठा 'अरे जानती नहीं कि यह सब्जी विद्यालय में उगे आलू-टमाटर से बनी है.' तभी लंच की घण्टी बजी और मैं यादों से बाहर निकली. बच्चे चेहरों पर खुशी ओढ़े लंच के लिए भोजन कक्ष की ओर बढ़ रहे थे.

करनी का फल

रचनाकार- टीकेश्वर सिन्हा 'गब्दीवाला'

ताँदुला नदी के किनारे एक बहुत बड़ा वृक्ष था. वृक्ष पर कई तरह के पक्षी रहते थे. सभी पक्षियों की एक-दूसरे से खूब मित्रता थी. एक दिन सुबह सभी पक्षी अपने बच्चों को छोड़कर भोजन की तलाश में निकल पड़े. बच्चे मजे से खेल रहे थे. उन्हें बड़ा मजा आ रहा था. खेलते हुए बच्चों पर एक कौए की नजर पड़ी. बच्चों के नन्हें व कोमल अंगों को देखकर कौए के मुँह में पानी आ गया. वह वृक्ष की डाल पर जाकर बैठ गया. कई बच्चों के कोमल अंगों से अपनी भूख मिटायी; तो कई को नोंच-नोंच कर मार डाला. पक्षियों के घोसलों को उजाड़कर उनके आने से पहले ही वह वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गया.

शाम को जब पक्षी वृक्ष पर वापस आए. वृक्ष पर अपने बच्चों को न पाकर वे परेशान हो गए. अस्त-वयस्त घोंसलों को देखकर उन्हें परिस्थिति समझने में देर न लगी. सभी पक्षी फूट-फूटकर रोने लगे. वृक्ष पर मातम छा गया.एक तोता पक्षियों को बिलखते देख वृक्ष पर आया. रोने का कारण पूछा. पक्षियों ने तोते को घटना की पूरी जानकारी दी. तोता पक्षियों को धीरज बंधाते हुए कहा- 'मित्रों! जो हो गया सो हो गया. व्यर्थ आँसू बहाने से कोई फायदा नहीं. दुश्मन ने तुम सबकी आँखों में धूल झोंककर अपना उल्लू सीधा किया है. वह कभी न कभी फिर आएगा. उसे सबक सिखाने के लिए कमर कसकर तैयार रहो.'तोते की बात सुनकर एक पक्षी सिसकते हुए बोला- 'अब हम यहाँ नहीं रह सकते. यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है. हम सब कल अन्यत्र चले जाएँगे.'जवाब में तोते ने कहा - 'तुम सब हिम्मत क्यों हार रहे हो? यह तो कायरता हुई. इससे दुश्मन का साहस और बढ़ जाएगा.अपनी मातृभूमि को त्यागना भी अच्छी बात नहीं है.'तोते की बात सुनकर पक्षियों का मुखिया तोते से कहने लगा- 'आपका कहना बिल्कुल उचित है.जैसा आप कह रहे हैं, हम सब वैसा ही करते हैं. हम यहाँ से कहीं नहीं जाएँगे.'कुछ समय पश्चात तोता उड़ गया.

लगभग साल भर बीतने के बाद कौआ उसी वृक्ष पर आया; और एक डाल पर बैठ गया. इस बार कौआ अपनी हरकतें शुरू करे, इससे पहले ही सभी पक्षी उस पर टूट पड़े. पक्षियों ने अपनी एकता का परिचय देते हुए कौए को चोंच और पंजों से नोच-नोचकर अधमरा कर दिया. रक्तरंजित कौआ वहाँ से भाग पाने में असमर्थ रहा. लड्खड़ाते हुए कौए का शरीर जवाब देने लगा. वह दर्द से कराहने लगा. कौए को मदद की आवश्यकता थी; पर उसकी मदद करने कोई नहीं आया.

कौए को आकाश में उड़ता हुआ तोता दिखाई दिया. मदद के लिए आवाज लगाई- 'ओ तोता भैया! कृपया मेरी सहायता करें. मेरे प्राण बचा लो. मुझे बचा लो...बचा लो.'कौए की हालत देखकर तोते को उस पर दया आई; समीप जाकर पूछा कि तुम्हारी यह हालत किसने की है. फिर कौए ने तोते को पूरी बात बताई. कौए की बात सुनकर तोते को पक्षियों के साथ घटी घटना याद आ गयी. उसका खून खौल उठा,तोता कौए पर बरसते हुए बोला - 'अरे मूर्ख! तुमने पक्षियों के साथ जो किया है, वह क्षमा योग्य नहीं है. किसी की शांति भंग करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है. पक्षियों ने तुम्हारे साथ बिल्कुल उचित किया है. तुम इसी लायक हो. अगर तुमने उनके साथ मित्रता का हाथ बढ़ाया होता तो तुम्हारी यह दशा नहीं होती. तुम जैसे गद्दार के लिए मैं कुछ नहीं कर सकता', कहकर तोते ने अपनी राह पकड़ ली. दर्द से कराहते हुए कौए को अपनी करनी पर पश्चाताप हो रहा था. अंततः उसकी साँस की डोर टूट गयी.

सोनू की पायल

रचनाकार- अनिता चंद्राकर

सोनू को लंबे बाल पसंद थे, उसे रंगबिरंगी चूड़ियाँ पहनना बहुत भाता था. घुँघरू वाली पायल पहनकर छमछम बजाने का मन करता था. सभी लड़कियाँ ऐसा ही तो करती हैं. पर सोनूकी इच्छा पूरी नहीं हो पाती थी. पिताजी उसके बाल कटवा देते थे और उसे लड़कों की वेशभूषा में रखते थे. कभी कभी वह माँ से दुपट्टे की दो चोटी बनवाकर अपनी इच्छा पूरी करती थी. उसका कोई भाई नहीं था. पिताजी को बेटे की लालसा थी, इसीलिए वे सोनू को लड़कों की तरह कपड़े पहनाते थे. पर सोनू का मन कुछ और ही चाहता था. सुंदर सुंदर फ्रॉक,रंग बिरंगी चूड़ियाँ और तरह तरह की क्लिप देखकर उसका बालमन ललचा उठता था. दादाजी उसके मासूम मन को पढ़कर दुखी हो जाते, पर उनकी भी नहीं चलती थी.एक बार सोनू ने दादाजी से कहा, ' दादू मेरे लिए पायल ले दो न, मैं उसे पहनकर छम छम नाचूँगी. दादाजी सोनू को सुनार के पास लेकर गए और उसके नाप की घुँघरू वाली सुंदर पायल खरीदकर पहना दी. सोनू पायल पहनकर बहुत खुश हुई,और नाचने लगी. अब उसे पिताजी का डर नहीं था.सोनू की खुशी देखकर दादाजी का मन भी ख़ुशियों से भर गया. दादाजी के लिए सोनू की खुशी अधिक महत्वपूर्ण थी.

लकड़हारा

रचनाकार- विनीता एक्का, कक्षा पांचवीं

एक गांव में एक लकड़हारा और उसकी पत्नी रहते थे. वे लोग बहुत लंबे समय से एक साथ रहते थे. लेकिन अब वे बूढ़े हो चुके थे. एक दिन लकड़हारा जंगल में लकड़ी काटने गया और वह रास्ता भटक गया और एक झरने के पास पहुंँच गया. उसको बहुत प्यास भी लगी थी. उसने जैसे ही झरने का पानी पिया, वैसे ही वह बीस साल का जवान हो गया. वह समझ गया कि वह जवानी का झरना था. लकड़हारा खुशी- खुशी अपने घर को आया लेकिन उसकी पत्नी ने उसको नहीं पहचाना. जब लकड़हारा ने उसे सारी बात बताई तब उसकी पत्नी ने जवान होने की इच्छा की और झरने की तरफ भागी. लकड़हारे ने जवानी के झरने तक अपनी पत्नी का पीछा किया परंतु उसे वह वहाँ नहीं मिली उसे वहाँ केवल एक छोटी सी बच्ची मिली. उसने सोचा कि मेरी पत्नी ने झरने का ज्यादा पानी पी लिया है और छोटी सी बच्ची बन गई है. लकड़हारे ने उस बच्ची को घर ले आया और दोनों फिर से बहुत लंबे समय तक खुशी-खुशी रहने लगे.

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