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हमारे पौराणिक पात्र- महर्षि पाणिनि

पाणिनि (५०० ई पू) संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण हुए हैं. इनका जन्म तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था. इनके ग्रंथ का नाम अष्टाध्यायी है जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं. संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय है. अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण का ग्रंथ नहीं है बल्कि इसमें तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है. उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, ख़ान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं.

पाणिनि का जन्म शलातुर ग्राम में हुआ था. जहाँ काबुल नदी सिंधु में मिली है उस संगम से कुछ मील दूर यह गाँव था. उसे अब लहुर कहते हैं. अपने जन्मस्थान के अनुसार पाणिनि शालातुरीय भी कहे गए हैं. अष्टाध्यायी में स्वयं उन्होंने इस नाम का उल्लेख किया है. पाणिनि के गुरु उपवर्ष पिता पणिन और माता का नाम दाक्षी था.

पाणिनि से पहले शब्दविद्या के अनेक आचार्य हो चुके थे. उनके ग्रंथ पढ़कर और उन ग्रंथों के परस्पर भेदों को देखकर पाणिनि के मन में व्याकरणशास्त्र को व्यवस्थित करने का विचार आया. पाणिनि से पूर्व वैदिक संहिताओं, शाखाओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् आदि का जो विस्तार हो चुका था उस वाङ्मय से उन्होंने अपने लिये शब्दसामग्री ली जिसका उन्होंने अष्टाध्यायी में उपयोग किया है. दूसरे निरुक्त और व्याकरण की जो सामग्री पहले से थी उसका उन्होंने संग्रह और सूक्ष्म अध्ययन किया. इसका प्रमाण भी अष्टाध्यायी में है, जैसा शाकटायन, शाकल्य, भारद्वाज, गार्ग्य, सेनक, आपिशलि, गालब और स्फोटायन आदि आचार्यों के मतों के उल्लेख से ज्ञात होता है.

अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं. पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं वाक्य में आए क्रिया और संज्ञा शब्दों के पारस्परिक संबंध के नियामक प्रकरण भी हैं, जैसे क्रिया के लिए आत्मनेपद-परस्मैपद-प्रकरण, एवं संज्ञाओं के लिए विभक्ति, समास आदि. तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सभी प्रकार के प्रत्ययों का विधान है. तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत निर्वचन बताया गया है.

ये प्रत्यय जिन अर्थविषयों को प्रकट करते हैं उन्हें व्याकरण की परिभाषा में वृत्ति कहते हैं, जैसे वर्षा में होनेवाले इंद्रधनु को वार्षिक इंद्रधनु कहेंगे. वर्षा में होनेवाले इस विशेष अर्थ को प्रकट करनेवाला 'इक' प्रत्यय तद्धित प्रत्यय है. तद्धित प्रकरण में 1,190 सूत्र हैं और कृदंत प्रकरण में 631. इस प्रकार कृदंत, तद्धित प्रत्ययों के विधान के लिए अष्टाध्यायी के 1,821 अर्थात् आधे से कुछ ही कम सूत्र विनियुक्त हुए हैं.

पाणिनि ने अपने समय की संस्कृत भाषा का सूक्ष्म विश्लेषण किया और इसके आधार पर उन्होंने व्याकरण शास्त्र का प्रवचन किया, वह न केवल तत्कालीन संस्कृत भाषा का नियामक शास्त्र बना, अपितु उसने आगामी संस्कृत रचनाओं को भी प्रभावित किया. पाणिनि से पूर्व भी व्याकरण शास्त्र के अन्य आचार्यों ने संस्कृत भाषा को नियमों में बाँधने का प्रयास किया था, परन्तु पाणिनि का शास्त्र विस्तार और गाम्भीर्य की दृष्टि से इन सभी का सिरमौर सिद्ध हुआ.

पाणिनि ने अपनी गहन अन्तदृर्ष्टि, समन्वयात्मक दृष्टिकोण, एकाग्रता, कुशलता, दृढ़ परिश्रम और विपुल सामग्री की सहायता से जिस अनूठे व्याकरण शास्त्र का उपदेश दिया, उसे देखकर बड़े-बड़े विद्वान आश्चर्य चकित होकर कहने लगे – 'पाणिनीयं महत्सुविरचितम्' – पाणिनि का शास्त्र महान और सुविरचित है; 'महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य' उनकी दृष्टि अत्यन्त पैनी है; 'शोभना खलु पाणिनेः सूत्रस्य कृतिः' उनकी रचना अति सुन्दर है; 'पाणिनिशब्दो लोके प्रकाशते' सारे लोक में पाणिनि का नाम छा गया है, इत्यादि. भाष्यकारों ने पाणिनि को प्रमाणभूत आचार्य, माङ्गलिक आचार्य, सृहृद्, भगवान आदि विशेषणों से सम्बोधित किया है.

उनके अनुसार पाणिनि के सूत्रों में एक भी शब्द निरर्थक नहीं हो सकता. उन्होंने जो सूत्र बनाए हैं, वे बहुत सोच विचार कर बनाए गए हैं. उन्होंने सुहृद् के रूप में व्याकरण शास्त्र का अन्वाख्यान किया है. रचना के समय उनकी दृष्टि भविष्य की ओर थी और वह दूर की बात सोचते थे. इस प्रकार उनकी प्रतिष्ठा बच्चे-बच्चे तक फैल गई और विद्यार्थियों में उन्हीं का व्याकरण सर्वाधिक प्रिय हुआ.

19वी सदी में यूरोप के एक भाषा विज्ञानी फ़्रेंज बोप्प ने पाणिनि के कार्यो पर शोध किया. उन्हें पाणिनि के ग्रंथों में तथा संस्कृत व्याकरण में आधुनिक भाषा प्रणाली को और परिपक्व करने के नए मार्ग मिले. इसके बाद संस्कृत के कई विदेशी विद्वानों ने उनके कार्यो में रूचि दिखाई और गहन अध्ययन किया.

व्याकरणशास्त्र में पाणिनि ने नैरुक्त एवं गार्ग्य सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया. नैरुक्त संप्रदाय एवं शाकटायन के अनुसार, संज्ञावाचक शब्द धातुओं से ही बने हैं. गार्ग्य तथा दूसरे वैय्याकरणों का मत इससे कुछ भिन्न था. उनका कहना था, खींचतान करके प्रत्येक शब्द को धातुओं से सिद्ध करना उचित नहीं हैं. पाणिनि ने 'उणादि'शब्दों को अव्युत्पन्न माना है, तथा धातु से प्रत्यय लगाकर, सिद्ध हुये शब्दों को 'कृदन्त'प्रकरण में स्थान दिया है.

पाणिनि के अनुसार, 'संज्ञाप्रमाण' एवं 'योगप्रमाण' दोनों अपने अपने स्थान पर इष्ट एवं आवश्यक हैं. शब्द से जाति का बोध होता है या व्यक्ति का, इस संबंध में भी पाणिनि ने दोनों मतों को समयानुसार मान्यता दी है. धातु का अर्थ 'हो' अथवा 'भाव' हो, यह भी एक प्रश्न आता है. पाणिनि ने दोनों को स्वीकार किया है.

पाणिनि ने अपनी 'अष्टाध्यायी' की रचना गणपाठ, धातृपाठ, उणादि, लिंगानुशान तथा फिटसूत्र ये ग्रंथों का आधार ले कर की है. उच्चारण-शास्त्र के लिये अष्टाध्यायी के साथ शिक्षा ग्रंथों के पठन-पाठन की भी आवश्यकता रहती है. पाणिनि प्रणीत व्याकरणशास्त्र में इन सभी विषयों का समावेश होता है.

परस्पर भिन्न होते हुए भी व्याकरण के एक नियम के अंतर्गत आ जानेवाले शब्दों का संग्रह 'गणपाठ' में समाविष्ट किया गया है. गणपाठ में संग्रहीत शब्दों का अनुक्रम प्रायः निश्चित रहता है. गण में छोटे छोटे नियमों के लिये अंतर्गतसूत्रों का प्रणयन भी दिखलायी पडता है. गणपाठ की रचना पाणिनिपूर्व आचार्यो द्वारा की गयी होगी. फिर भी वह पाणिनि व्याकरण का महत्त्वपूर्ण अंग है.

अंग्रेज़ी में ऐसा कोई वाक्य नहीं जिसके प्रत्येक शब्द का 800 धातुओं से एवं प्रत्येक विचार का पाणिनि द्वारा प्रदत्त सामग्री के सावधानीपूर्वक वेश्लेषण के बाद अविशष्ट 121 मौलिक संकल्पनाओं से सम्बन्ध निकाला न जा सके.

आज दुनिया भर में कंप्यूटर वैज्ञानिक मानते है कि आधुनिक समय में संस्कृत व्याकरण कंप्यूटर की सभी समस्याओं को हल करने में सक्षम है. अष्टाध्यायी में विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के 4000 सूत्र बहुत ही वैज्ञानिक और तर्कसिद्ध ढंग से संगृहीत हैं.

नासा के वैज्ञानिक श्री रिक ब्रिग्स ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) और पाणिनी व्याकरण के बीच की शृंखला की खोज की है. इस खोज के पहले भाषाओं को कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए अनुकूल बनाना बहुत कठिन कार्य था.उसके बाद इस प्रोजेक्ट पर कई देशों के साथ करोड़ों डॉलर खर्च किये गये.

पाणिनीय व्याकरण पर आधुनिक समय के विद्वानों के विचार

'पाणिनीय व्याकरण मानवीय मष्तिष्क की सबसे बड़ी रचनाओं में से एक है' प्रोफेसर टी. शेरवात्सकी

'पाणिनीय व्याकरण की शैली अतिशय-प्रतिभापूर्ण है और इसके नियम अत्यन्त सतर्कता से बनाये गये हैं' कोल ब्रुक.

'संसार के व्याकरणों में पाणिनीय व्याकरण सर्वशिरोमणि है... यह मानवीय मष्तिष्क का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अविष्कार है' (सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हण्डर).

'पाणिनीय व्याकरण उस मानव-मष्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना है जिसे किसी दूसरे देश ने आज तक सामने नहीं रखा'. (प्रो. मोनियर विलियम्स)

महर्षि पाणिनि के संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप प्रदान के अतुल्य योगदान के लिए संसार उन्हें सदैव स्मरण करेगा.

हमारे प्रेरणास्रोत- अहिल्याबाई होल्कर

महारानी अहिल्याबाई इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव की पत्नी थीं. वे भारत के मालवा साम्राज्य की महारानी थीं. अहिल्याबाई का राज्य बहुत बड़ा नहीं था. उनका कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था. फिर भी उन्होंने जो कुछ किया, उससे हमें प्रेरणा प्राप्त होती है.

अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर के छौंड़ी ग्राम में हुआ. उनके पिता मंकोजी राव शिंदे, अपने गाँव के पाटिल थे.

इनका विवाह इन्दौर राज्य के संस्थापक महाराज मल्हार राव होल्कर के पुत्र खंडेराव से हुआ था. सन् 1745 में अहिल्याबाई के पुत्र मालेराव हुआ और तीन वर्ष बाद एक कन्या मुक्ताबाई हुई.. अहिल्याबाई की प्रेरणा से कुछ ही दिनों में अपने महान पिता के मार्गदर्शन में खण्डेराव एक अच्छे सिपाही बन गये. मल्हारराव पुत्र-वधू अहिल्याबाई को भी राजकाज की शिक्षा देते रहते थे.उनकी बुद्धि और चतुराई से वह बहुत प्रसन्न होते थे. मल्हारराव के जीवन काल में ही उनके पुत्र खंडेराव का निधन 1754 ई. में हो गया. अतः मल्हार राव के निधन के बाद अहिल्याबाई ने राज्य का शासन सम्भाला. रानी अहिल्याबाई ने अपनी मृत्यु पर्यन्त (1795 ई.) बड़ी कुशलता से राज्य का शासन चलाया. उनकी गणना आदर्श शासकों में की जाती है. वे अपनी उदारता और प्रजावत्सलता के लिए प्रसिद्ध हैं. उनका पुत्र मालेराव 1766 ई. में दिवंगत हो गया. राज्य की सत्ता पर बैठने के पूर्व ही उन्होंने अपने पति-पुत्र सहित अपने सभी परिजनों को खो दिया था इसके बाद भी प्रजा के हित के लिए किए गए उनके कार्य प्रशंसनीय हैं.

वह हमेशा अपने साम्राज्य को मुस्लिम आक्रमणकारियो से बचाने की कोशिश करती रहीं. युद्ध के दौरान वह खुद अपनी सेना में शामिल होकर युद्ध करती थीं. रानी अहिल्याबाई ने अपने साम्राज्य महेश्वर और इंदौर में काफी मंदिरो का निर्माण करवाया था. उन्होंने लोगो के रहने के लिए बहुत सी धर्मशालाएँ भी बनवायीं, ये धर्मशालाएँ उन्होंने मुख्य तीर्थस्थल जैसे गुजरात के द्वारका, काशी विश्वनाथ, वाराणसी के गंगा घाट, उज्जैन, नाशिक, विष्णुपद मंदिर और बैजनाथ के आस-पास ही बनवायीं. उन्होंने सोमनाथ में शिवजी का मंदिर बनवाया.

रानी अहिल्याबाई अपनी राजधानी महेश्वर ले गईं. उस दौरान महेश्वर साहित्य, मूर्तिकला, संगीत और कला के क्षेत्र में एक गढ़ था.

एक बुद्धिमान, तीक्ष्ण सोच और स्वस्फूर्त शासक के रूप मे अहिल्याबाई को याद किया जाता है. हर दिन वह अपनी प्रजा से उनकी समस्याएँ सुनती थीं. अपने साम्राज्य को उन्होंने समृद्ध बनाया. उन्होंने बेहद बुद्धिमानी से कई किले, विश्राम गृह, कुएँ और सड़कें बनवाने पर राजकोष का पैसा खर्च किया. वह लोगों के साथ त्योहार मनाती और मंदिरों को दान देती थीं.

अहिल्याबाई का मानना था कि धन, प्रजा व ईश्वर की दी हुई धरोहर स्वरूप निधि है, जिसकी मैं मालिक नहीं बल्कि उसके प्रजाहित में उपयोग की जिम्मेदार संरक्षक हूँ.

उनके राज्य में जाति भेद की कोई मान्यता नहीं थी व सारी प्रजा समान रूप से आदर की हकदार थी. इसका असर यह था कि अनेक लोग निजामशाही व पेशवाशाही शासन छोड़कर इनके राज्य में आकर बसने की इच्छा किया करते थे. अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी व संतुष्ट थी क्योंकि उनके विचार में प्रजा का संतोष ही राज्य का मुख्य कार्य होता है. अहिल्याबाई का मानना था कि प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है. वे शिव की अनन्य भक्त थीं,सारा राजकाज उन्होंने शिव की सेविका बनकर किया.वे राजाज्ञाओं पर अपना हस्ताक्षर न करके केवल श्री शंकर लिख देती थीं.

रानी अहिल्याबाई ने भारत भर के प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में मंदिर बनवाए, कुएँ और बावड़ियाँ बनवाईं, मार्ग बनवाए भूखों के लिए अन्नक्षेत्र खोले,प्याऊ बनवाए और आत्मप्रतिष्ठा का मोह त्यागकर सदैव न्याय करने का प्रयत्न करती रहीं.

अहिल्याबाई ने जनकल्याण के लिए जो कुछ किया, वह आश्चर्यचकित करने वाला और चिरस्मरणीय है.

सफलता की कहानी- अब मुश्किल नहीं कुछ भी

बालिका का नाम-कु. भूमिका बघेल

माता का नाम- श्रीमती कामेश्वरी बघेल

पिता का नाम- श्री राजीम बघेल

कक्षा -पाँचवी

यह कहानी है बस्तर जिले के छोटे से गाँव पोटियावंड में निवासरत परिवार के सदस्यों की जो अपने बच्चों की पढ़ाई अनवरत रखने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं.

मार्च 2020 में जब कोरोना माहमारी के चलते सभी स्कूल बंद हुए, तब आवासीय विद्यालयों की बालिकाओं को हॉस्टल से अपने घर आना पड़ा. ऐसी ही एक बालिका भूमिका बघेल कस्तूरबा गाँधी बालिका आवासीय बालिका विद्यालय, बकावंड की कक्षा आठवीं में अध्ययनरत है. मार्च से अब तक वह अपने परिवार के साथ अपने घर पर है लेकिन कभी भी भूमिका की पढ़ाई में कोई व्यवधान नहीं आया.

लॉकडाउन की शुरुआत में वह और उसके भाई किताबों से पढ़ाई करते थे, उन्हें समझने के लिए अपने शिक्षकों की कमी महसूस होती थी. लेकिन समाधान के उपाय समझ नहीं आते थे क्योंकि उस समय कोरोना संक्रमण से सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए स्कूल नहीं खोले जा सकते थे.

तब बच्चों की पढ़ाई को अनवरत जारी रखने के उद्देश्य से स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा 'पढ़ई तुंहर दुआर' योजना चलाई गयी जिसके अंतर्गत बच्चों को ऑनलाईन क्लास के माध्यम से शिक्षा से जोड़े रखने की योजना बनायी गयी.

भूमिका को जब उनकी मैडम से पता चला कि स्कूल के द्वारा ऑनलाईन कक्षाओं का संचालन किया जा रहा है, तो भूमिका ने भी उन कक्षाओं में शामिल होने की इच्छा जताई, लेकिन उस समय उनके घर पर स्मार्ट फ़ोन नहीं था जिसकी मदद से वह ऑनलाईन कक्षाओं से जुड़ सकती. तब भूमिका नें इस बारे में अपनी मम्मी से बात करने की सोची. भूमिका की मम्मी ने उस समय स्मार्ट फोन लेने से मना कर दिया. लेकिन भूमिका दृढ़ता से अपनी बात समझाने में लगी रही. भूमिका ने अपने माता पिता दोनों को अपनी जरुरत के बारे में समझाया साथ ही स्मार्ट फ़ोन मिल जाने से सभी भाई-बहनों को उनकी पढ़ाई जारी रखने में मिलने वाली मदद के बारे में भी बताया. भूमिका के बार-बार प्रयास करने से उनके माता-पिता मान गए और उन्होंने स्मार्ट फ़ोन खरीद कर अपने बच्चों को दिया. अब सभी बच्चे बारी-बारी से अपनी अपनी कक्षाओं में सम्मिलित होते हैं. बच्चों के समय का सही उपयोग होता हुआ देखकर उनके माता पिता भी बहुत खुश रहते हैं.

भूमिका कहती है कि 'स्मार्ट फ़ोन खरीदने के लिए अपने माता-पिता को मनाना चुनौती भरा था, लेकिन इस कार्य में उसके द्वारा सीखी हुई जीवन कौशल की शिक्षा से उसे बहुत मदद मिली.'

भूमिका कहती है कि उसने जीवन कौशल के जरिये समस्याओं को सुलझाने के साथ-साथ अपनी बातों को दृढ़ होकर स्पष्ट रूप से रखने का कौशल सीखा है, इसी कौशल के कारण वह अपने माता पिता को स्मार्ट फ़ोन खरीदने के लिए मना पाई. शुरुआत में स्मार्ट फोन को इस्तेमाल करने और ऑनलाईन कक्षा जॉइन करने, म्यूट अनम्यूट करने में बहुत समस्या होती थी, इसके लिए उसने अपने पड़ोस के जानकर लोगों के साथ ही अपनी मैडम से भी मदद ली'. भूमिका को लगता है कि उसके लिए अब कुछ भी मुश्किल नहीं है.

भूमिका की माँ आंगनबाडी कार्यकर्त्ता के रूप में काम करती हैं. वह कहती हैं कि 'अपने बच्चों की पढ़ाई बनाए रखने में वह हर संभव प्रयास करती हैं. लेकिन जब बात स्मार्ट फ़ोन खरीदने की आई तो उनके सामने आर्थिक समस्या के साथ-साथ स्मार्ट फ़ोन से होने वाले नुकसानों की भी चिंता थी. लेकिन भूमिका के नेतृत्व में सभी बच्चों ने उन्हें यकीन दिलाया कि वे अपने समय और स्मार्ट फोन की सुविधा का दुरूपयोग नहीं करेंगे, तब जाकर उन्होंने स्मार्ट फोन खरीदने की योजना बनायीं.

वे आगे कहती हैं कि भूमिका अब पहले से काफी समझदार हो गयी है वह बहुत ही अच्छे तरीके से अपनी बात रखने लगी है. भूमिका में आया यह परिवर्तन जीवन कौशल की शिक्षा के साथ-साथ उनकी शिक्षिका और अधीक्षिका मैडम से समय समय पर मिलने वाले मार्गदर्शन का प्रभाव है. भूमिका में हुए इस परिवर्तन को देखकर उन्हें बहुत खुशी महसूस होती है.

भूमिका की शिक्षिका श्रीमती संतोषी गायकवाड़ कहती हैं कि 'जहाँ कुछ बच्चों ने परिस्थिति से हार मानकर प्रयास करना छोड़ दिया है और कक्षाओ में अनुपस्थित रहते हैं, वहीँ भूमिका का स्मार्ट फोन खरीद कर पढ़ाई जारी रखने के लिए उठाया गया कदम अत्यंत सराहनीय है.'

भूमिका की अधीक्षिका श्रीमती हेमलता ध्रुव, 'भूमिका और उनके माता-पिता की इस सराहनीय पहल से बहुत खुश हैं. साथ ही वह दूसरी बालिकाओं और पालकों को भी इनसे प्रेरणा लेने की अपील करती हैं.”

गोवा के 14 वर्षीय लियोन मेंडोंका भारत के नये ग्रैंडमास्टर

रचनाकार- हेमंत खूटे

लियोन मेंडोंका आई एम टाइटल के बारे में पहले से जानते थे. इसलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान आई एम टाइटल के लिए लगाया. काफी मेहनत की. अपने स्वाभाविक खेल के लिए विशेष लाइन तय की. ओपनिंग पर मजबूत पकड़ बनाई. सटीक गणना और अच्छी ट्यूनिंग के चलते किशोरावस्था में ही उन्होंने आई एम की उपाधि प्राप्त कर ली. उनके खेलग्राफ को देखने से पता चलता है कि 2018 में कुछ उतार चढ़ाव आये. रेटिंग प्रभावित भी हुई. मार्च 2018 में 2286 से कम होकर 1998 हो गई थी परंतु उन्होंने इससे विचलित हुए बिन पूरे आत्मविश्वास के साथ खेलना जारी रखा और मार्च के अंत तक बेहतर प्रदर्शन कर 350 पॉइन्ट की वृद्धि की.

मेंडोंका के कोच विष्णु प्रसन्ना ने कहा कि कई बार मेंडोंका रेटिंग हासिल करने के करीब पहुँचे थे और उन्होंने जरुरी अंक हासिल कर लिए. यह उपलब्धि आश्चर्यचकित करने वाली नही थी लेकिन फिर भी वे थोड़ा दबाव में थे. उनके अंदर गजब की प्रतिभा है.

ग्रैंडमास्टर बनने का सपना देखने वाले खिलाड़ियों के लिए मेंडोंका एक प्रेरणा हैं.

पूर्व विश्व चैंपियन विश्वनाथन आंनद ने ट्वीट कर अपने बधाई संदेश में कहा कि देश के 67 वें ग्रैंडमास्टर बनने पर मेंडोंका को बधाई. ग्रैंडमास्टर बनने का सपना देखने वालों के लिए आप एक प्रेरणा है.मुझे आपकी प्रतिबद्धता और एकाग्रता पर गर्व है. जी एम नार्म हासिल करने के लिए आपका परिवार और आप महामारी के दौरान जिस तरह यूरोप में रुके रहे उस पर गर्व है.इस उपलब्धि का आनंद ले.

भोजली पर्व

रचनाकार- विभा सोनी

छत्तीसगढ़ में सावन के महीने में मनाया जाता है. सप्तमी तिथि को छोटी-छोटी टोकरियों में मिट्टी डालकर अन्न के दाने बोए जाते हैं.भोजली नई फसल का प्रतीक होता है. इसे रक्षाबंधन के दूसरे दिन विसर्जित कर दिया जाता है और अच्छी फसल की कामना की जाती है. भोजली के सम्मान में भोजली सेवा गीत गाया जाता है यह गीत छत्तीसगढ़ की शान है. किसानों की लड़कियाँ अच्छी वर्षा एवं भरपूर भंडार देने वाली फसल की कामना करते हुए आयोजन करती हैं. भोजली हमारे स्वास्थ्य की कई परेशानियों को दूर करती है. भोजली पर्व हमारे छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत है. छत्तीसगढ़ का यह त्यौहार किसानों के मन में नए जोश और ऊर्जा का संचार करता है. भोजली दोस्ती भी होती है. एक दूसरे के कान में भोजली खोंचकर एक दूसरे से दोस्ती करते हैं. इसे भोजली बदना कहते हैं.पूरी जिंदगी इस मैत्री के सूत्र में बँधने का वादा करते हैं.भोजली देकर बड़ों को प्रणाम किया जाता है छत्तीसगढ़ की संस्कृति में भोजली का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है.R

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