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रेत के हसात

मुख्तसर सी ज़िंदगी में, तल्खियों की तहों में,
शिकवे और शिकायतों के, बोझ तले दब गए.

रश्क करते थे हमारी किस्मत-ए- किरदार से,
सुना है कि हसद में वो, राख बन कर रह गए.

कश्तियां पीछे जलाकर हम चले आए यहाँ,
साहिलों की रेत के हसात, बन कर रह गए.

दोस्त तेरी दोस्ती का क्या सिला हमको मिला?
शहर इस अनजान में...रकीब बन कर रह गए.

गुनचए-गुलाब सबकी किस्मतों मे, हैं कहाँ?
मजाज़-ए -हक़ीकत की हम, हाथ मलते रह गए.

ताब ए जिगर छुपाने में, उम्र यह तमाम की,
हिज्र में उदासियों के, बस सहारे रह गए.

यूं ‘अणिमा’ ज़िंदगी ना हो किसीकी भी गुज़र,
गैरतो-ईमान गरीबों की शौकत रह गए।

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