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मुद्रा स्फीति, संकुचन आदि

मुद्रा स्फीति

मुद्रा स्फीति (inflation) गणितीय आकलन पर आधारित एक अर्थशास्त्रीय अवधारणा है जिससे बाज़ार में मुद्रा का प्रसार व वस्तुओ की कीमतों में वृद्धि या कमी की गणना की जाती है। उदाहरण के लिएः 1990 में एक सौ रुपए में जितना सामान आता था, अगर 2000 में उसे ख़रीदने के लिए दो सौ रुपए व्यय करने पड़े है तो माना जाएगा कि मुद्रा स्फीति शत-प्रतिशत बढ़ गई. चीज़ों की क़ीमतों में बढ़ोतरी और मुद्रा की क़ीमत में कमी को वैज्ञानिक ढंग से सूचीबध्द करना मुद्रा स्फीति का काम होता है. इससे ब्याज दरें भी तय होती हैं.

विभिन्न विव्दानों ने मुद्रा सफीति की भिन्न-भिन्न परिभाषा दी हैं :

  1. बहुत कम माल के लिए बहुत अधिक धन की आपूर्ति हो जाने से इसका जन्म हो जाता है
  2. माल या सेवा की आपूर्ति की तुलना में मांग अधिक हो जाने पर भी इसका जन्म हो जाता है
  3. आपूर्ति में दोष, गत्यावरोध तथा ढांचागत असंतुलन के चलते भी मुद्रा स्फीति पनपती है

सामान्य रूप से इसका अर्थ ये होगा की ये बिना रुके बढ़ती दर से किसी दिए गए काल खंड में मूल्य स्तर की वृध्दि है जो भविष्य में और अधिक वृध्दि की संभावना को बढ़ाती है.

मुद्रा स्फीति के कारक

मांग कारक

  1. बढ़ता सरकारी व्यय - जो की विगत कई सालों से बढ़ रहा हो जिस से सामान्य जनता के हाथों में अधिक धन आ जाता हैं जो उनकी खरीद क्षमता को बढाता है. यह मुख्य रूप से गैर योजना व्यय (Unplanned expenditure) है जो की अनुत्पादक प्रकृति का होता है तथा केवल क्रय क्षमता में तथा मांग में वृद्धि करता है.
  2. घाटे की पूर्ति तथा मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि से बढ़ते सरकारी व्यय की पूर्ति, घाटे के बजट (Deficit Budget) से तथा नई मुद्रा छाप कर की जाती हैं जो मुद्रा स्फीति तथा आपूर्ति दोनों में वृध्दि कर देते हैं.

मूल्य वृध्दि कारक

  1. उत्पादन-आपूर्ति में उतार चढ़ाव: जब कभी उत्पादन में अत्याधिक उतार चढ़ाव आता है या प्राप्त उत्पादन को मुनाफाखोर जमा कर लेते हैं.
  2. उत्पादकता से अधिक वेतन वृद्धि लागत मूल्य को बढ़ाते हैं जो नतीजतन मूल्य में वृध्दि कर देते हैं, साथ ही मांग तथा क्रय क्षमता में भी वृध्दि होती हैं जो पहले वाले शीर्षक के अंतर्गत वृध्दि कर देती हैं.
  3. अप्रत्यक्ष कर भी लागत मूल्य बढ़ा कर सामग्री के मूल्य में वृध्दि के कारक बनते हैं.
  4. ढांचागत विकास में कमी या दोष से प्रति इकाई लागत मूल्य बढ़ता हैं जो कि सामान्य कीमत में वृध्दि कर देता है.
  5. प्रशासित मूल्य में वृध्दि जैसे खाद्यान्न के न्यूनतम समर्थन मूल्य या पेट्रोल तथा अन्य उत्पादों के मूल्य जिन्हें सरकार स्वेच्छा से निर्धारित करती हैं क्योंकि वे आम आदमी के बजट का एक बड़ा भाग होते हैं.
  6. मुद्रा स्फीति के प्रभाव

    1. उत्पादन में अनिश्चितता के परिणामस्वरूप उत्पाद की माँग अनिश्चित हो जाती है व संसाधनों का वितरण असंगत हो जाता है. पूँजी संसाधन दीर्घ कालीन रूप में नहीं वरन् लघु कालीन प्रयोग में आने लगते हैं तथा उत्पादकों का झुकाव ज़रूरी से गैर जरूरी उत्पाद की ओर हो जाता है क्योंकि गैर ज़रूरी उत्पाद की कीमत बढ़ जाने पर उनमें निवेश लाभप्रद हो जाता है.
    2. मुद्रा स्फीती से अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में मंदी आ जाती है जैसे भारत में कपड़ा उत्पाद मूल्य बढ़ जाने पर इन उत्पादों की मांग में गिरावट आ जाती है, लोग केवल बेहद ज़रूरी माल ही खरीदते हैं. इससे उद्योग ठप्प पड़ जाते हैं.
    3. देश में आय वितरण गड़बड़ा जाता है. मुनाफाखोरों को लाभ होने लगता है और नौकरीपेशा संकट में पड़ जाते हैं. भ्रष्टाचार, कालाबाजारी और सट्टेबाजी बढ़ती है. कठोर श्रम की इच्छा शक्ति में भी कमी आ जाती है.

    भारत में मुद्रा स्फीती का नापन थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) तथा उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index) से होता है.

    मुद्रा अपस्फिीति (Disinflation) - मुद्रास्फीति के दुष्परिणामों को दूर करने के उद्देश्य से जानबूझकर मुद्रा की मात्रा कम की जाती है तो उसे मुद्रा अपस्फीति की संज्ञा दी जाती है.

    मुद्रा संकुचन - जब मुद्रा की माँग की अपेक्षा उसकी पूर्ति कम होती है, वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन बढ़ जाता है तथा कीमतें गिरने लगती हैं तथा मुद्रा का आन्तरिक मूल्य बढ़ जाता है. इस स्थिति को मुद्रा संकुचन कहा जाता है.

    मुद्रा संकुचन के प्रभाव

    1. मांग में कमी
    2. उत्पामदन एवं व्याुपार में कमी
    3. बेरोज़गारी में वृध्दि
    4. कर्ज़दाता को फायदा एवं कर्ज़दार को नुकसान

    मुद्रा संस्फीदति (Reflation) - जब अत्यधिक मुद्रा संकुचन के कारण मूल्यों में अत्यधिक कमी हो जाती है, उद्योग व्यापार बंद हो जाते हैं, बेरोजगारी फ़ैल जाती है, बैंकिंग एव बीमा व्यवसाय समाप्त हो जाते हैं अर्थात अर्थव्यवस्था भयंकर मंदी में फंस जाते है, तब अर्थव्यवस्था को इन दुष्परिणामों से मुक्त करवाने के लिए मुद्रास्फीति को धीरे धीरे बढ़ावा देने की नीति अपनाई जाती है. इसके अंतर्गत मुद्रा तथा साख की मात्रा बढ़ाई जाती है. मुद्रा संस्फीति कहा जाता है.

    निस्पंद-स्फीति मुद्रास्फीति जनित मंदी (Stagflation)जब मुद्रास्फीति के साथ-साथ मंदी की स्थिति भी हो. मुद्रास्फीति की दर और बेरोजगारी दर दोनों ही उच्च रहते हैं. मुद्रास्फीति जनित मंदी के 2 कारण हो सकते हैं –

    1. जब अचानक से हुए प्रतिकूल आपूर्ति के द्वारा किसी अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता कम हो जाती है, जैसे तेल आयात करने वाले देश के लिए तेल की कीमतों में वृध्दि.
    2. स्थिरता और मुद्रास्फीति दोनों ही अनुचित व्यापक आर्थिक नीतियों के परिणाम हो सकते हैं. उदाहरण के तौर पर, केंद्रीय बैंक, धन आपूर्ति के अत्यधिक विकास की अनुमति देकर मुद्रास्फीति का कारण बन सकती है और सरकार माल बाजार और श्रम बाजार के अत्यधिक विनियमन व्दारा स्थिरता का कारण बन सकती है.

    मुद्रा आपूर्ति का मापन -

    Money Supply अर्थव्यवस्था में प्रचलित (circulated) मुद्रा की मात्रा (amount of money) है. यहाँ पर मुद्रा का मतलब सिर्फ नोट और सिक्के से नहीं हुआ, इसमें बैंक में जमा किये गए Demand और Time Deposits, Post Office Deposits etc. शामिल हैं. अर्थव्यवस्था में ये मुद्रा कहाँ-कहाँ व्याप्त हैं, इसके लिए RBI code words का प्रयोग करती है= M0, M1, M2, M3, M4.

    M0= पैसा जो चलन में है + बैंकों का RBI के पास deposits + RBI के साथ अन्य जमा

    M1= लोगों के पास करेंसी (नोट, सिक्का आदि) + जो पैसा बैंक में जमा है (Current या सेविंग अकाउंट में) + RBI के साथ अन्य जमा

    M2= M1 + Post Office में जमायें (Only Demand Deposits)

    M3= M1 + बैंकों के साथ समय जमायें (Time Deposits)

    M4= M3 + Post Office में जमायें (time deposit + recurring deposit) पर National Savings Certificates को छोड़कर

    1967-68 के पहले: सिर्फ "M" का प्रयोग होता था जहाँ "M"= लोगों के पास करेंसी (रुपया, सिक्का आदि) + बैंक में सावधि जमा (demand deposits) + अन्य जमा

    अथवा M=C+DD+OD जहाँ C=Currency, DD= Demand Deposit, OD=Other Deposits

    1968-1977 तक: M3 स्वीकार किया गया.

    1977 के बाद: M0, M1, M2, M3, M4 जो अभी तक चल रहा है.

    मापक टाइप तरलता
    M1 संकीर्ण मुद्रा सबसे ज्यादा
    M2 संकीर्ण मुद्राM1 से कम
    M3 व्यापक मुद्रा M2 से कम
    M4 व्यापक मुद्रा सबसे कम
    1. तरलता (Liquidity) का अर्थ है, कितनी आसानी से किसी वस्तु को कैश में बदला जा सकता है.
    2. M1 आपके पॉकेट में रखा हुई धन है अथवा आपके अकाउंट में जमा धन है जिसे आप जब चाहे निकाल सकते हैं. इसलिए यह सबसे अधिक तरल है.
    3. M3 को Aggregate Monetary Resources (AMR) भी कहते हैं. यह money supply के आकलन करने के लिए सबसे उपयुक्त है क्योंकि यह सबसे अधिक व्यापक/विस्तृत है.
    4. तरलता की दृष्टि से देखा जाए तो ये चारों descending order में है – m1>m2>m3>m4
    5. जैसा हमने ऊपर पढ़ा कि M4 में post office time deposit एवं fixed deposit भी शामिल है. फिक्स ड डिपाज़ि‍ट तुड़वाने में कुछ समय लगता है इसलिए इसको सबसे कम तरल (lowest liquidity) माना गया है.

    मौद्रिक नीति

    किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए मुद्रा पर उपयुक्त नियन्त्रण रखना अति आवश्यक होता है। मुद्रा से सम्बन्धित समस्त नीतियों को हम ‘मौद्रिक नीति’ की संज्ञा देते हैं। किसी देश के सरकारी अथवा केन्द्रीय बैंक व्दारा अर्थव्यवस्था में विशेष आर्थिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुद्रा की मात्रा के प्रसार तथा संकुचन के प्रबन्ध को मौद्रिक नीति कहा जाता है। मौद्रिक नीति एक ऐसी नीति है जिसके अनर्तगत सरकार या केन्द्रीय बैंक अर्थव्यवस्था के अंर्तगत मुद्रा को इस प्रकार नियंत्रित करते हैं कि आर्थिक नीतियों का उद्देश्य पूरा हो सके.

    मौद्रिक नीति के उद्देश्य

    1. कीमतों में स्थायित्व
    2. रोजगार में वृद्धि
    3. आर्थिक विकास
    4. विनिमय दर मे स्थायित्व
    5. बचत और विनियोग में साम्य
    6. विकास के लिए साधनों को जुटाना
    7. मुद्रा की मांग व पूर्ति में सामंजस्य स्थापित करना

    मौद्रिक नीति के उपकरण

    1. जब अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी दबाव प्रकट होने पर तरलता अथवा मुद्रा की पूर्ति अत्यधिक बढ़ने से रोकना, तथा
    2. उत्पादन को बढ़ाने तथा प्रोत्साहन देने के लिए नियमित साख का प्रवाह करना, जिससे आर्थिक वृध्दि की गति को बढ़ाया जा सके.

    भारतीय रिजर्व बैंक व्दारा वर्ष में दो बार अप्रैल एवं अक्टूबर में मौद्रिक एवं ऋण नीति घोषित की जाती है. इसके अतिरिक्त रिजर्व बैंक मध्यावधि त्रैमासिक समीक्षा भी करती रहती है. रहती है.

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