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छत्तीसगढ़ में कलचुरी राजवंश

कलचुरी नाम के दो राजवंश थे - एक मध्य एवं पश्चिमी भारत में जिसे चेदि, या हैहय या उत्तरी कलचुरि कहते हैं तथा दूसरा दक्षिणी कलचुरी जिसने कर्नाटक के क्षेत्रों पर राज्य किया. चेदी प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था.

कलचुरी शब्द के विभिन्न रूप- कटच्छुरी, कलत्सूरि, कलचुटि, कालच्छुरि, कलचुर्य तथा कलिचुरि प्राप्त होते हैं। इसे तुर्की भाषा के 'कुलचुर' शब्द से मिलाया जाता है जिसका अर्थ उच्च उपाधियुक्त होता है. इनके व्दारा 248-49 ई. से कलचुरी संवत् प्रारंभ किया गया था. पहले वे मालवा के आसपास रहनेवाले थे, परन्तु छठी शताब्दी के अंत में अन्य राजाओं से युध्दों के कारण जबलपुर के पास त्रिपुरी में बस गए और नवीं शताब्दी में उन्होंने यहां राज्य की स्थापना की. त्रिपुरी के कलचुरी वंश का प्रथम राजा कोकल्ल प्रथम बहुत पराक्रमी था. उसने प्रतिहार राजा भोज को हराया था. उसके 18 पुत्रों का उल्लेख मिलता है.

9 वीं सदी के उत्तरार्ध में कोकल्ल के पुत्र शंकरगण ने बाण वंशीय शासक विक्रमादित्य प्रथम को परास्त कर कोरबा के पाली क्षेत्र में कब्ज़ा कर लिया और छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश की नीव रखी. इनकी राजधानी तुम्माण थी. कल्चुरी ज्यादा समय तक यहां शासन नही कर पाये. उड़ीसा के सोनपुर के सोमवंशी राजा ने कल्चुरियों को पराजित किया. लगभग 1000 ई में कोकल्ल व्दितीय के पुत्र कलिंगराज ने पुन: कल्चुरी राजवंश की स्थापना की. आमोद ताम्रतपत्र में कलिंगराज की तुम्माण विजय का उल्लेख है. इसलिये कलचुरी राजवंश का वास्तविक संस्थापक कलिंगराज को माना जाता है.

हैहयवंशी कल्चुरियों ने रतनपुर और रायपुर में दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक शासन किया. कोकल्ल महाप्रतापी राजा थे. उनके वंशजों में जाज्वल्यदेव (प्रथम) ने अपना प्रभुत्व विदर्भ, बंगाल, उड़ीसा एवं आन्ध्रप्रदेश तक स्थापित कर लिया था. उन्होने अनेक तालाब खुदवाये एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया. उसके शासनकाल में सोने के सिक्के चलते थे. वे विद्या और कला के प्रेमी थे. जाज्वल्यदेव गोरखनाथ को गुरू मानते थे. गोरखनाथ की शिष्य परम्परा में भर्तृहरि और गोपीचन्द थे - जिनकी कथा आज भी छत्तीसगढ़ में गाई जाती है.

रतनदेव ने 1050 ई में नवीन राजधानी रतनपुर की स्थापना की. रतनदेव वीर थे और विद्या तथा कला प्रेमी भी थे. रतनदेव ने भी अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया और तालाब खुदवाये. रतनपुर के महामाया मंदिर का निर्माण भी रतनदेव ने 11 वीं शताब्दी में कराया था. पृथ्वीदेव व्दितीय भी बड़े योध्दा थे. उसके समय सोने और ताँबे के सिक्के जारी किये गये थे. इन्होने सकल कोसलाधिपति की उपाधि धारण की थी. पृथ्वीदेव ने रतनपुर में एक बड़े तालाब का निर्माण कराया एवं तुम्माण में पृथ्वीदेवेश्वर मंदिर का निर्माण कराया.

रतनपुर के कल्चुरि १४ वी सदी के अंत में दो शाखाओ में विभाजित हो गए. गौण शाखा रायपुर में स्थापित हुई. 14 वीं सदी के अंत में रतनपुर के राजा का रिश्तेदार लक्ष्मीदेव प्रतिनिधि के रूप में खल्वाटिका भेजा गया. लक्ष्मीदेव के पुत्र सिंघण ने शत्रुओ के १८ गढ़ जीते. सिंघण ने रतनपुर की प्रभुसत्ता नहीं मानी और स्वतंत्र राज्य की स्थापना की. सिंघण के पुत्र रामचंद्र ने रायपुर नगर की स्थापना 1409 ई में की. रायपुर की लहूरी शाखा की स्थापना केशवदेव ने की थी. परन्तु कल्चुरी शासको में रतनपुर शाखा के शासको ने ज्यादा प्रभाव डाला.

हैदय-वंश के अन्तिम काल के शासक में योग्यता और इच्छा-शक्ति न होने का कारण हैहय-शासन की दशा धीरे-धीरे बिगड़ती चली गयी और अन्त में सन् 1741 ई. में भोंसला सेनापति भास्कर पंत ने छत्तीसगढ़ पर आक्रमण कर हैदय शासक की शक्ति प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया।

रतनपुर शाखा के मुख्य शासक निम्न है :

  1. कोक्कल प्रथम (850 ई. - 890 ई.)
  2. कलिंगराज (1000 ई. - 1020 ई.)
  3. रत्नराज (1045 ई. - 1065 ई.)
  4. पृथ्वीदेव प्रथम (1065 ई. - ई.)
  5. जाज्वल्यदेव प्रथम (1090 ई. - 1120 ई.)
  6. रत्नदेव व्दितीय (1120 ई. - 1135 ई.)
  7. पृथ्वीदेव व्दितीय (1135 ई. - 1165 ई.)
  8. जाज्वल्यदेव व्दितीय (1165 ई. - 1168 ई.)
  9. जगतदेव (1168 ई. - 1178 ई.)
  10. रत्नदेव तृतीय (1178 ई. - 1198 ई.)
  11. एवं रघुनाथ सिंह (1732 ई. - 1741 ई.) आखिरी शासक थे

रायपुर शाखा के आखिरी शासक शिवराजसिंहदेव (1750 ई. - 1757 ई.) थे

महत्वपूर्ण मंदिर

शिव मंदिर :

  1. रत्नेस्वर महादेव मंदिर - रतनपुर
  2. बांकेश्वर मंदिर - तुम्माण
  3. मल्हार का शिव मंदिर
  4. इनके अलावा मल्हार, पाली, नारायणपुर, खरौद एवं जांजगीर से प्राप्त शिव की प्रतिमाएँ

विष्णु मंदिर :

  1. विष्णु मंदिर - जांजगीर(अर्ध निर्मित), रतनपुर, शिवरीनारायण
  2. नारायण मंदिर - खल्लारी
  3. रतनपुर से लक्ष्मी की मूर्ति प्राप्त हुई है

कलचुरि कालीन छत्तीसगढ़ की समाजिक एवं शासन व्यवस्था

कल्चुरी काल में छत्तीसगढ़ ३६ गढ़ो में बटा हुआ था. एक गढ़ के अधीन ७ बारह, एक बारह के अधीन १२ गाँव थे. कानून व्‍यवस्था बनाए रखना दीवान, दाऊ और गोंटिया की जिम्मेदारी थी. राज्य में महाराज के बाद युवराज अथवा महाराजपुत्र का स्थान था. महारानियाँ भी राज्यकार्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं. मंत्रियों का राज्य में अत्यधिक प्रभाव था. कभी-कभी वे सिंहासन के लिए राज्य परिवार में से उचित व्यक्ति का निर्धारण भी करते थे. राजगुरु का भी राज्य के कार्यों में गौरवपूर्ण महत्व था. सेना के अधिकारियों में महासेनापति के अतिरिक्त महाश्वसाधनिक का उल्लेख आया है जो सेना में अश्वारोहियों के महत्व का परिचायक है. नगर का प्रमुख पुर प्रधान कहलाता था. पद वंशगत नहीं थे, यद्यपि व्यवहार में किसी अधिकारी के वंशजों को राज्य में अपनी योग्यता के कारण विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता था. ब्राह्मणों में सवर्ण विवाह का ही चलन था किंतु अनुलोम विवाह अज्ञात नहीं थे. कुछ वैश्य क्षत्रियों के कर्म भी करते थे. कायस्थ भी समाज के महत्वपूर्ण वर्ग थे. स्त्रियों का स्थान उच्च था तथा वे प्रशासन में भी भाग लेती थीं. जाजल्ल देव प्रथम में अपनी माता के कहने पर ही बस्तर के राजा सोमेश्वेर देव को कैद से मुक्त किया था. बहुविवाह का प्रचलन उच्च कुलों में विशेष रूप से था. सती का प्रचलन था किंतु स्त्रियाँ इसके लिए बाध्य नहीं थीं. संयुक्त-परिवार-व्यवस्था के कई प्रमाण मिलते हैं. व्यवसाय और उद्योग श्रेणियों के रूप में संगठित थे. नाप की इकाइयों में खारी, खंडी, गोणी, घटी, भरक इत्यादि के नाम मिलते हैं. राजशेखर उस समय के प्रसिध्द कवि थे. वे पढ़ने के लिए कन्नौज गए थे. राजशेखर ने कन्नौज जाने से पूर्व ही छ: प्रबंध काव्यों की रचना कर डाली थी और बालकवि की उपाधि प्राप्त की थी. युवराजदेव प्रथम के शासनकाल में वह फिर त्रिपुरी लौटे जहाँ उन्होने विध्दशालभंजिका और काव्यमीमांसा की रचना की. कर्पूरमंजरी उनका प्रसिध्द नाटक है. जाजल्लदेव के समय मे सोने के सिक्के चलते थे. उन्होने तालाब खुदवाए, एवं मंदिर बनवाए. वे गोरखनाथ के शिष्य थे. गोरखनाथ की शिष्य परंपरा में भृतहरि एवं गोपीचंद भी आते हें, जिनकी कथा आज भी छत्तीसगढ़ में गाई जाती है. पृथ्वीदेव व्दतीय के समय सोने और ताँबे के सिक्के जारी किये गये थे. रतनदेव ने नई राजधानी रतनपुर का निर्माण कराया. उन्‍होने भी मंदिर बनवाए. कलचुरी शैव धर्म को मानते थे. उनके ताम्रपत्र हमेशा ‘‘ओम नम: शिवाय’’ से प्रारंभ होते हैं. परन्तु उन्होने अन्य धर्मो में बाधा नहीं डाली. उनके समय में बौध्द धर्म का प्रचार भी हुआ.

कल्याण साय की जमाबंदीभूव्यवस्थापन के सिलसिले में हमेशा अकबर के दरबारी टोडरमल को याद किया जाता है, परन्तु रतनपुर कलचुरी शाखा के कल्याण साय (1544-81 ई.) व्दारा भूमि व्यवस्थापन के लिए बनाई गई जमाबंदी निचिश्त ही इनके पूर्व की है. सन् 1861 से 68 के मध्य बि‍लासपुर ज़ि‍ले का पहला बंदोबस्तत करते हुए अंग्रेज़ बंदोबस्त अधिकारी चीज़म में ने इसी जमाबंदी को आधार बनाया था. इसी प्रकार 1909-10 में बि‍लासपुर का ज़ि‍ला गज़ेटियर तैयार करने में भी इसका उपयोग किया था.

शिवाजी की रतनपुर यात्रा यद्यपि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है, परन्तु ऐसा कहा जाता है कि जब शिवाजी औरंगज़ेब की कैद से छूटकर भागे तो वे आगरा से कानपुर-इलाहाबाद-वाराणसी-मि‍र्जापुर होकर सरगुजा रियासत के घने जंगलों से होते हुए रतनपुर-रायपुर-चन्द्रपुर-गुलबर्गा के रास्ते महाराष्ट्र के रायगढ़ पहुंचे थे.

कलचुरी कालीन छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था

लोगों की आय का प्रमुख स्रोत कृषि, पशुपालन और व्यापार था. वनोपज को एकत्रित करना और खनन भी महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियां थीं. व्दिफसली क्षेत्र को बेहतर माना जाता था. हल, निवर्तन और वाटक भूमि मापन की इकाइयां थीं. सभी भूमि राजा की मानी जाती थी और राजा खेती के लिए उसे किसानों में वितरित कर देता था. किसान अपनी फसल में से राजा को राजस्व देते थे. किसान की मृत्यु हो जाने पर भूमि उसके उत्तराधिकारियों को मिल जाती थी. कभी-कभी राजा पूरे ग्राम को भी मूल्य लेकर कर उगाहने के लिये विक्रय कर देता था. ताहनकापर के पंपाराजदेव के ताम्रपत्र में कुछ गांवों से प्राप्ते होने वाले राजस्व का मौद्रिक मूल्य लिखा है. दंतेवाड़ा के खंब पर राजकुमारी मसकादेवी का आदेश अंकित है जिसमें कहा गया है कि कर जमा करने की अंतिम तिथि के पूर्व किसानों को कर वसूली के लिए तंग न किया जाये. व्यापारियों को चुंगी कर देना होता था. इसके अतिरिक्त अन्य करों का भी उल्लेख है जैसे धान्य, दर्द्रानक, पथकर, तटकर, आदि. मित्र राज्यों से प्राप्त होने वाले उपहार और सामंतों से प्राप्त कर भी राज्य की आय के स्रोत थे. राज्य का व्यय मुख्य रूप से सेना पर, धार्मिक कार्यों पर तथा प्रजा के सुख के लिए किया जाता था. राजा सिक्के जारी करते थे. जाजल्लदेव प्रथम के समय सोने के सिक्के प्रचलित थे. पृथ्वीदेव प्रथम ने सोने और तांबे से सिक्के जारी किए थे.

स्थापत्य के क्षेत्र में कलचुरियों का योगदान

कलचुरि राजाओं ने अनेक मंदिरों, नगरों एवं तालाबों का निर्माण कराया. कलचुरियों का छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला में बड़ा योगदान था. राजा रतनदेव ने रतनपुर का निर्माण कराया. रतनपुर शाखा के कलचुरियों की कला के उदाहरण आठवीं सदी ई. से चौदहवीं सदी तक मिलते हैं. इनमें रतनपुर के 'कंठी देउल' से प्राप्त तीन शिल्पखंड तथा रतनपुर किला में अवशिष्ट प्रवेश व्दार हैं. इन शिल्पखंडों में से एक 'पार्वती परिणय' प्रतिमा है, जो अब रायपुर संग्रहालय में है. दो अन्य- 'शालभंजिका' एवं 'ज्योतिर्लिंग-ब्रह्‌मा', 'विष्णु प्रतिस्पर्धा' हैं. दसवीं सदी में पाली का बाणवंशीय महादेव मंदिर है तथा घटियारी के शिव मंदिर की प्रतिमाएं है. ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में कलचुरि शिल्प और मंदिरों की श्रृंखला है. इनका आरंभ तुमान से होता है. इसके अतिरिक्त जांजगीर और शिवरीनारायण के दो-दो मंदिर, नारायपुर का मंदिर युगल, आरंग का भांड देवल, गनियारी, किरारीगोढ़ी, मल्हार के दो मंदिर आदि तथा रायपुर संभाग सीमा के कुछ मंदिर हैं. तेरहवीं सदी के मंदिरों मे सरगांव का धूमनाथ मंदिर, मदनपुर से प्राप्त मंदिर अवशेष, धरहर (राजेन्द्रग्राम, जिला शहडोल) का मंदिर है. तुमान के मंदिर और मल्हार के केदारेश्वर (पातालेश्वर) मंदिरों में मंडप और गर्भगृह समतल पर नहीं है. गर्भगृह बिना जगती के सीधे भूमि से आरंभ होकर उपर उठता है, जबकि मंडप उन्नत जगती पर है, अतः पूरी संरचना विशाल जगती पर निर्मित जान पड़ती है. समतल पर विमान और मंडप का न होना किरारीगोढ़ी में भी है. तुमान के व्दार-प्रतिहारियों और नदी-देवियों में त्रिपुरी कलचुरियों की शैली की झलक है. समतल पर विमान और मंडप का न होना किरारीगोढ़ी में भी है. रतनपुर किला में अवशिष्ट प्रवेश व्दार के सम्मुख में लता-वल्ली व सरीसृप का अंकन है तथा वाह्य पार्श्व में 'रावण का शिरोच्छेदन व शिवलिंग को अर्पण', नंदी पूजा आदि कथानकों का अंकन है. रतनपुर महामाया मंदिर (14-15वीं सदी) के व्दारशाखों पर अपारंपरिक ढंग से कलचुरि नरेश बाहरसाय के अभिलेख दोनों ओर हैं. जांजगीर के मंदिरों में से विष्णु मंदिर में वाह्य पार्श्व युगल अर्धस्तंखभों का है जिसमें धनद देवी-देवता तथा संगीत-समाज अंकित है, वहीं जांजगीर के शिव मंदिर में शिवपूजा के दृश्य हैं. गनियारी के मंदिर के हीरक आकृतियां तथा पुष्प अलंकरण हैं. अंतःपार्श्वों पर कथानक व देव प्रतिमाओं के अंकन की परम्परा ताला, देवरानी मंदिर और मल्हार, देउर मंदिर में हैं. मल्हार में शिव-पार्वती का द्यूत प्रसंग, पार्वती-परिणय, वरेश्वर शिव, अंधकासुर वध, विनायक-वैनायिकी आदि हैं, जबकि शिवरीनारायण में इस स्थान पर विष्णु के चौबीस रूपों का संयोजन है.

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