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सन् 1857 की क्रांति और छत्तीसगढ पर उसका प्रभाव

सोनाखान का विद्रेाह

सोनाखान के ज़मीन्दार बिंझवार राजपूत थे. कलचुरियों ने इन्हें सोनाखान की ज़मीन्दारी सैनिक सेवा के पुरस्कार स्‍वरूप कर मुक्त जागीर के रूप में दी थी. इस ज़मीन्दा़री में 12 गांव थे. अंग्रेज़ों के समय में भी यह ज़मीन्दारी कर मुक्त ही रही. इतना ही नहीं रामराजे के समय में इस ज़मीन्दारी को 300 रुपये का नामनूक भी प्रदान किया और खरौद के संरक्षण के लिए 90 रुपयों की अतिरिक्त व्यवस्था की गई थी. इस प्रकार यहां से अंग्रेज़ों को कोई टकोली नहीं मिलती थी परन्तु 303 रुपये 12 आने का राजस्व मिलता था. जेन्किन्सक ने लिखा है कि सोनाखान का ज़मीन्दार रामराय अंग्रेज़ों के खिलाफ विरोध और आक्रोश प्रदर्शित करता था जिसके कारण उसे कैप्टेन मैक्सन ने बंदी बनाया और बाद में इस शर्त पर उसे ज़मीन्दारी वापस की गई कि वह भविष्य में अनुचित व्यवहार नहीं करेगा. प्रथम अंग्रेज़ डिप्टी कमिश्नर ने भी सोनाखान के ज़मीन्दार के विरुध्द लिखा हे कि उसकी क्रूरता और अहंकार की सूचनाएं प्राप्त होती रहती थीं. नारायण सिंह ने 35 साल की उम्र में अपने पिता रामराय की मृत्यु के बाद ज़मीन्दारी का प्रभार ग्रहण किया. वे जनहित के कार्यों में रुचि रखते थे. वर्ष 1856 में भीषण अकाल पड़ा. लोग भूखों मरने लगे. लोगों की जान बचाने के लिए उन्होने कसडोल के एक व्यापारी माखन के गोदाम में रखा अनाज अपनी भूखी जनता को बांट दिया. उन्होने अपने इस कृत्य की सूचना स्वयं ही रायपुर डिप्टी कमिश्नर को भी भेजी. डिप्टी कमिश्नर ने इसे कानून विरोधी मान कर नारायण सिंह को बुलाया और उनके न आने पर उनका गिरफ्तारी वारंट जारी किया. 24 अक्टूबर 1856 को बड़ी कठिनाई से उन्हें संबलपुर से बंदी बनाकर रायपुर लाया गया और डकैती का आरोप लगाकर जेल में डाल दिया गया. 10 माह 4 दिन रायपुर जेल में रहाने के बाद नारायण सिंह वहां से भाग निकले. कहते हैं कि उन्हें जेल से भागने में सैनिको ने ही मदद की थी. सूचना मिलने पर उन्‍हे खोजने के लिए लेफ्टिनेन्ट नेपियर और लेफ्टिनेन्ट स्मिथ को भेजा गया. उसी समय संबलपुर के क्रांतिकारी सुरेन्द्र साय भी हज़ारीबाग जेल से निकल भागे थे. नारायणसिंह ने सोनाखान में 500 सैनिकों की सेना बनाई. अंगेज़ों की मदद देवरी और अन्य ज़मीन्दारियों ने की. सोनाखान से कुछ दूर नाले के पास नारायण सिंह ने स्मिथ पर अक्रमण किया. इस बीच 2 दिसंबर को कटगी से एक बड़ी फौज आकर स्मिथ से मिल गई. उन्होने पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया. अंत में नारायण सिंह को गिरफ्तार कर लिया और पुन: रायपुर जेल में डाल दिया. अंग्रेज़ सेना ने सोनाखान में घुसकर गांव को आग लगा दी. नारायण सिंह को 10 दिसंबर 1887 को फांसी की सज़ा दी गई. उिप्टी कमिश्नर ने सोनाखान ज़मीन्दारी को खालसा क्षेत्र में बदल दिया. नारायण सिंह की संपत्ति से माखन बनिये को तेरह सौ सत्तहत्तर रुपये आठ आने क्षतिपूर्ति के रूप में दिये गए. नारायण सिंह की गिरफ्तारी से संबंधित सिपाहियों को बीस रुपये और अधिकारियों को सौ रुपये का पुरस्कार दिया गया. नारायणसिंह की वीरता के बारे में स्मि‍थ ने लिखा है कि – ‘‘नारायण सिंह ने उत्क‍ट शौर्य, साहस और उत्साह के साथ हम लोगों से गुरिल्ला पध्दति से मुकाबला किया.’’

सम्बलपुर के सुरेन्द्र साय का विद्रोह

सन् 1827 में सम्बलपुर के राजा महाराजसाय की मृत्यु बिना उत्तराधिकारी के हो गई. परंपरा के अनुसार गद्दी पर सुरेन्द्र साय का अधिकार बनता था, परन्तु अग्रेजों ने महाराजसाय की विधवा रानी मोहनकुमारी को गद्दी पर बैठाया. जन असंतोष उभरने पर अपने पिट्ठू बरपाली के चौहान परिवार के राजकुमार नारायणसिंह को अवैध रूप से संबलपुर की गद्दी पर बैठा दिया. सुरेन्द्र साय ने अनेक ज़मीन्दारों के साथ मिलकर इसका विरोध प्रारंभ किया. इसी बीच अपने एक समर्थक की हत्या का बदला लेने के लिए सुरेन्द्र साय ने रामपुर के किले पर आक्रमण किया और वहां के ज़मीन्दार दुर्जनसिंह की हत्या कर दी. इस अपराध में सुरेन्द्र साय उनके भाई उदन्त साय और चाचा बलराम साय को आजीवन कारावास का दंड देकर हज़ारीबाग जेल भेज दिया गया. 31 अक्टूतबर 1857 को सुरेन्द्र साय वहां से भाग निकले. सुरेन्द्र साय और उनके परिवार जनों ने लगातार अंग्रेज़ों के साथ संघर्ष किया. 23 जनवरी 1864 को सुरेन्द्र साय को परिवार सहित गिरफ्तार कर लिया गया. छत्तीसगढ़ के कमिश्नर ने उन्हे आजन्म कारावास का दंड दिया. अपील में ज्यूडीशियल कमिश्नर कैम्पेबेल ने यह आदेश इस आधार पर निरस्त कर दिया कि सुरेन्द्रसाय के विरुध्द आरोप सिध्द नहीं हुए हैं, परन्तु ब्रिटिश अधिकारियो ने 1818 के तीसरे रेगुलेशन के तहत उन्हें कैद करके असीरगढ़ जेल भेज दिया जहां 28 फरवरी 1884 को उनकी मृत्यु हो गई.

रायपुर में सैन्य विद्रोह

वीरनारायण की शहादत ने ब्रिटिश शासन में कार्य कर रहे सैनिक हनुमान सिंह में विद्रोह का भाव जगा दिया. नारायण सिंह के बलिदान स्थल पर इन अमर बलिदानियों के नेता हनुमान सिंह ने नारायण सिंह को फाँसी पर लटकाए जाने का बदला लेने की प्रतिज्ञा की. रायपुर में उस समय फौजी छावनी थी जिसे तृतीय रेगुलर रेजीमेंट का नाम दिया गया था. ठाकुर हनुमान सिंह इसी फौज में मैग्जीन लश्कर के पद पर नियुक्त थे. सन् 1857 में उनकी आयु 35 वर्ष की थी. विदेशी हुकूमत के प्रति घृणा और गुस्सा था. रायपुर में तृतीय रेजीमेंट का फौजी अफसर था मेजर सिडवेल. दिनांक 18 जनवरी 1858 को रात्रि 7:30 बजे हनुमान सिंह अपने साथ दो सैनिकों को लेकर सिडवेल के बंगले में घुस गये और तलवार से सिडवेल पर घातक प्रहार किये. सिडवेल वहीं ढेर हो गया. हनुमान सिंह के साथ तोपखाने के सिपाही और कुछ अन्य सिपाही भी आये. उन्हीं को लेकर वह आयुधशाला की ओर बढ़े और उसकी रक्षा में नियुक्त हवलदार से चाबी छीन ली. बंदुको में कारतूस भरे. दुर्भाग्यवश फौज के सभी सिपाही उसके आवाहन पर आगे नहीं आये. इसी बीच सिडवेल की हत्या का समाचार पूरी छावनी में फैल चुका था. लेफ्टिनेंट रैवट और लेफ्टिनेंट सी.एच.एच. लूसी स्थिति पर काबू पाने के लिये प्रयत्न करने लगे. हनुमान सिंह और उसके साथियों को चारों ओर से घेर लिया गया. हनुमान सिंह और उसके साथी साथ छ: घंटों तक अंग्रेजों से लोहा लेते रहे. किन्तु धीरे-धीरे उनके कारतूस समाप्त हो गये. अवसर पाकर हनुमान सिंह फरार होने में सफल हो गये. किन्तु उनके 17 साथियों को अंग्रजों ने गिरफ्तार कर लिया. इस क्रांति के नायक बने सत्रह भारतीय सिपाहियों को फिरंगियों ने पुलिस लाइन रायपुर में खुलेआम तोप से उड़ा दिया था. इनके नाम हैं – हवलदार गाज़ी खां और 16 सिपाही, गोलंदाज़ शिवनारायण, मूलीस या मुल्लू , अब्दुल हयात, पन्नालाल, मातादीन, बल्ली या बलिहू दुबे, ठाकुर सिंह, अकबर हुसैन, लालसिंह, परमानंद, बदलू (बुध्दू़), दुर्गाप्रसाद, शोभाराम, नूर मोहम्मयद, देवदीन और शिवगोविन्द.

उदयपुर का विद्रोह

उदयपुर पर सरगुजा परिवार की एक शाखा का राज था. यहां के राजा कल्याण सिंह और उनके भाई पर मानव हत्या का आरोप लगाकर उन्हें कैद कर लिया गया तथा रियासत पर अंग्रेज़ो ने अधिकार कर लिया. 1857 के विद्रोह के समय राजा अपने भाइयों के साथ उदयपुर पहुंचे और 1858 में उन्होने सैनि‍क संगठन करके विद्रोह किया तथा कुछ समय के लिये अपना राज्य स्थापित कर लिया. 1859 में सरगुजा के राजा की सहायता से इन्हें गिरफ्तार करके कालापानी की सज़ा दी गई और अंडमान भेज दिया गया. इस सहायता के लिये यह रियासत सरगुजा महाराज के भाई बिन्देसश्वरी प्रसाद सिंह को दे दी गई.

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