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भारत की संविधान में मौलिक अधिकार - भाग -6

अनुच्‍छेद 32. इस भाग द्वारा प्रदत्‍त अधि‍कारों को प्रवर्तित कराने के लि‍ए उपचार

(1) इस भाग द्वारा प्रदत्‍त अधि‍कारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचि‍त कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय मे समावेदन करने का अधि‍कार प्रत्याभूत कि‍या जाता है.

(2) इस भाग द्वारा प्रदत्‍त अधि‍कारों मे से कि‍सी को प्रवर्तित कराने के लि‍ए उच्चतम न्यायालय को ऐसे नि‍देश या आदेश या रि‍ट, जि‍नके अंतगर्त बंदी प्रत्‍यक्षीकरण, परमादेश, प्रति‍षेध, अधि‍कार-पृच्छा और उप्रेषण रि‍ट हैं, जो भी समुचि‍त हो, नि‍कालने की शक्ति होगी.

(3) उच्चतम न्यायालय को खंड (1) और खंड (2) द्वारा प्रदत्‍त शक्तियों पर प्रति‍कूल प्रभाव डाले बि‍ना, संसद, उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (2) के अधीन प्रयोक्तव्य कि‍न्हीं या सभी शक्ति‍यों का किसी अन्य न्यायालय को अपनी अधि‍कारि‍ता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रयोग करने के लि‍ए वि‍धि द्वारा सशक्त कर सकेगी.

(4) इस संवि‍धान द्वारा अन्यथा उपबंधि‍त के सि‍वाय, इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत अधि‍कार नि‍लंबि‍त नहीं कि‍या जाएगा.

यहां यह ध्‍यान रखने योग्‍य है कि उपरोक्‍त पांचों रिट उच्‍च न्‍यायालय व्दारा भी अनुच्‍छेद 226 में जारी की जा सकती है. जहां अनुच्‍छेद 32 में सर्वोच्‍च न्‍यायालय का दारा केवल मौलिक अधिकारों तक ही सीमित है, वहीं अनुच्‍छेद 226 में उच्‍च न्‍यायालय का अधिकार क्षेत्र अधिक विस्‍तृत है.

[अनुच्‍छेद 33. इस भाग द्वारा प्रदत्‍त अधि‍कारो का, बलों आदि को लागू होने मे, उपांतरण करने की संसद की शक्ति – संसद, विधि द्वारा, अवधारण कर सकेगी कि इस भाग द्वारा प्रदत्‍त अधि‍कारों मे से कोई,–

(क) सशस्त्र बलों के सदस्यों को, या

(ख) लोक व्यवस्था बनाए रखने का भारसाधन करने वाले बलों के सदस्यों को, या

(ग) आसूचना या प्रति आसूचना के प्रयोजनों के लि‍ए राज्य द्वारा स्थापि‍त कि‍सी ब्यूरो या अन्य संगठन मे नि‍योजि‍त व्यक्तियों को, या

(घ) खंड (क) से खंड (ग) मे नि‍दि‍र्ष्ट कि‍सी बल, ब्यूरो या संगठन के प्रयोजनों के लि‍ए स्थापि‍त दूरसंचार प्रणाली मे या उसके संबंध में नियोजि‍त व्यक्ति‍यों को,

लागू होने में, कि‍स वि‍स्तार तक नि‍र्बंन्धि‍त या नि‍राकृत कि‍या जाए जिससे उनके कर्तव्‍यों का उचि‍त पालन और उनमे अनुशासन बना रहना सुनिश्चि‍त रहे.]

अनुच्‍छेद 34. जब कि‍सी क्षेत्र मे सेना वि‍धि प्रवृत्‍त है तब इस भाग द्वारा प्रदत्‍त अधि‍कारों पर नि‍बर्न्धन–

इस भाग के पूवर्गामी उपबंधों मे कि‍सी बात के होते हुए भी, संसद वि‍धि द्वारा संघ या कि‍सी राज्य की सेवा मे कि‍सी व्यक्तक को या कि‍सी अन्य व्यक्ति को कि‍सी ऐसे कार्य के संबंध में क्षति‍पूर्ति कर सकेगी जो उसने भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर कि‍सी ऐसे क्षेत्र मे, जहां सेना वि‍धि प्रवृत्‍त थी, व्यवस्था के बनाए रखने या पुनःस्थापन के संबंध मे कि‍या है या ऐसे क्षेत्र मे सेना विधि के अधीन पारित दंडादेश, दि‍ए गए दंड, आदि‍ष्ट समपहरण या कि‍ए गए अन्य कार्य को वि‍धि‍मान्य कर सकेगी.

अनुच्‍छेद 35. इस भाग के उपबंधों को प्रभावी करने के लि‍ए वि‍धान–इस संवि‍धान मे कि‍सी बात के होते हुए भी,–

(क) संसद को शक्ति होगी और कि‍सी राज्य के वि‍धान-मंडल को शक्ति नहीं होगी कि वह–

(i) जि‍न वि‍षयों के लि‍ए अनुच्छेद 16 के खंड (3), अनुच्छेद 32 के खंड (3), अनुच्छेद 33 और अनुच्छेद 34 के अधीन संसद वि‍धि द्वारा उपबंध कर सकेगी उनमे से कि‍सी के लि‍ए, और

(ii) ऐसे कार्य के लि‍ए, जो इस भाग के अधीन अपराध घोषि‍त किए गए हैं, दंड वि‍हि‍त करने के लि‍ए, वि‍धि बनाए और संसद इस संवि‍धान के प्रारंभ के पश्चात्य थाशक्य शीघ्र ऐसे कार्य के लि‍ए, जो उपखंड (ii) मे नि‍दि‍र्ष्ट है, दंड वि‍हि‍त करने के लि‍ए वि‍धि बनाएगी ;

(ख) खंड (क) के उपखंड (i) मे नि‍दि‍र्ष्ट वि‍षयों मे से कि‍सी से संबंधि‍त या उस खंड के उपखंड (ii) मे निदि‍र्ष्ट कि‍सी कार्य के लिए दंड का उपबंध करने वाली कोई प्रवृत्‍त वि‍धि, जो भारत के राज्यक्षेत्र मे इस संवि‍धान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रवृत्‍त थी, उसके नि‍र्बंधन के और अनुच्छेद 372 के अधीन उसमेकि‍ए गए कि‍न्हीं अनुकूलनों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए तब तक प्रवृत्‍त रहेगी जब तक उसका संसद द्वारा परि‍वतर्न या निरसन या संशोधन नहीं कर दि‍या जाता है.

स्पष्टीकरण–इस अनुच्छेद मे, “प्रवृत्‍त वि‍धि” पद का वही अर्थ है जो अनुच्छेद 372 में है.

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32 सभी व्यक्तियों को न्याय पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार देता है. शीर्ष अदालत को संविधान द्वारा प्रदत्त किसी भी अधिकार के क्रियान्वयन के लिए निर्देश या आदेश जारी करने का अधिकार है.

अनुच्छेद 32 के तहत, संसद सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति का प्रयोग करने के लिए किसी अन्य न्यायालय को भी सौंप सकती है. बिना संवैधानिक संशोधन किये, इस अनुच्छेद द्वारा प्रदत्त अधिकारों को निलंबित नहीं किया जा सकता. इस अनुच्छेद द्वारा मौलिक अधिकारों के लिए सुनिश्चित अधिकार की गारंटी दी गई है. मौलिक अधिकारों के हनन के मामलों में निचली अदालतों में जाने की लंबी प्रक्रिया का पालन किए बिना सीधे सुप्रीम कोर्ट जाने का का अधिकार है.

डॉ. अम्बेडकर ने कहा था:

'अगर मुझसे इस संविधान में किसी विशेष अनुच्छेद को सबसे महत्वपूर्ण बताने के लिए कहा जाए - एक ऐसा अनुच्छेद जिसके बिना यह संविधान निरर्थक होगा - तो मैं इस अनुच्छेद के अलावा किसी अन्य अनुच्छेद का उल्लेख नहीं कर सकता. यह संविधान की आत्मा और हृदय है और मुझे खुशी है कि सदन ने इसके महत्व को महसूस किया है.'

सर्वोच्‍च न्‍यायालय 5 प्रकार की रिट जारी करता है. इनके बारे में विस्‍तार से जानते हैं -

  1. बंदी प्रत्यक्षीकरण - इस रिट का उद्देश्य गैरकानूनी हिरासत से राहत पाना है. इसका अंग्रेज़ी में इसे 'हेबियस कार्पस' कहते हें, जिसका अर्थ है 'सशरीर पेश किया जाये.' यह रिट संविधान के अनुच्छेद 19, 21 और 22 के तहत मौलिक अधिकारों में प्रदत्‍त व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए है. यह रिट गैरकानूनी हिरासत के मामले में तत्काल राहत प्रदान करती है.

    बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट के लिए निम्‍नलिखित लोग आवेदन कर सकते हैं -

    1. वह व्यक्ति जो अवैध रूप से बंधक या हिरासत में रखा गया हो.
    2. जिस व्यक्ति को मुकदमे के लाभ की जानकारी हो.
    3. वह व्यक्ति जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित है.

    निम्‍नलिखित कारणों से बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट अस्वीकार की जा सकती है:

    1. यदि न्यायालय का क्षेत्रीय अधिकार न हो.
    2. यदि अदालत के आदेश से हिरासत में लिया गया हो.
    3. यदि हिरासत में लिया गया व्यक्ति पहले ही मुक्त कर दिया गया हो.
    4. यदि कारावास को वैध हो.
    5. यदि सक्षम न्यायालय ने गुण-दोष के आधार पर याचिका खारिज दी हो.

    आपातकाल के दौरान भी बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट कायम रहती है, क्योंकि 1978 में 44वें संशोधन के बाद विधिक स्थिति यह है, कि अनुच्छेद 20 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों को आपातकाल में भी निलंबित नहीं किया जा सकता.

    बंदी प्रत्यक्षीकरण पर महत्वपूर्ण निर्णय

    1. एडीएम जबलपुर बनाम शिवाकांत शुक्ला के मामले में, यह माना गया कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट को आपातकाल के दौरान निलंबित किया जा सकता है. इस निर्णय को अब पुट्टास्‍वामी प्रकरण के निर्णय व्दारा सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने उलट दिया है.
    2. शीला बरसे बनाम महाराष्ट्र राज्य 1983 एससीसी 96 में न्‍यायालय ने माना कि हिरासत में लिया गया कोई व्यक्ति यदि रिट के लिए आवेदन नहीं कर सकता तो कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से इसे दायर कर सकता है. इससे लोकस स्टैंडाई का दृष्टिकोण को रद्द हो गया.
    3. सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन 1980 एआईआर 1579 में, अदालत द्वारा यह माना गया कि बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट याचिका न केवल कैदी के गलत या अवैध कारावास के लिए दायर की जा सकती है, बल्कि किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार और भेदभाव से उसकी सुरक्षा के लिए भी दायर की जा सकती है.
    4. नीलाबती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य में, याचिकाकर्ता के बेटे को पूछताछ के लिए उड़ीसा पुलिस अपने साथ ले गई थी. याचिका के लंबित रहने के दौरान याचिकाकर्ता के बेटे का शव रेलवे ट्रैक पर मिला. न्‍यायालय ने याचिकाकर्ता को मुआवजा देने का आदेश दिया.
    5. कानू सान्याल बनाम जिला मजिस्ट्रेट दार्जिलिंग और अन्य। 1974 एआईआर 510 में, यह माना गया कि बंदी को अदालत के सामने पेश करना अनिवार्य नहीं है.
    6. ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य में, निवारक निरोध कानून की संवैधानिक वैधता के आधार पर जांच की गई. विधायिका को ऐसा कानून बनाने में सक्षम होना चाहिए. बंदी प्रत्यक्षीकरण के आवेदन पर उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है.
  2. 'परमादेश' - 'परमादेश' का अर्थ है 'आदेश'. यह किसी व्यक्ति, निगम, निचली अदालत या सरकार को अपना सार्वजनिक कर्तव्य निभाने का आदेश है. कोई व्यक्ति जो ऐसे किसी सार्वजनिक कर्तव्य के उल्लंघन या दुरुपयोग से प्रभावित है, परमादेश की रिट जारी करने के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में आवेदन कर सकता है.

    परमादेश जारी करने की शर्तें

    1. जिस प्राधिकारी के विरुद्ध रिट जारी करने की मांग की गई है, उसका कोई सार्वजनिक कर्तव्य होने चाहिए, जिसे करने में वह विफल रहा हो.
    2. सार्वजनिक कर्तव्य विवेकाधीन नही होना चाहिये बल्कि अनिवार्य होना चाहिए.
    3. याचिकाकर्ता ने प्राधिकारी से अपना सार्वजनिक कर्तव्य निभाने का आग्रह किया हो और उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया हो.

    परमादेश के अनुप्रयोग के अपवाद

    1. राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों के विरुद्ध परमादेश की रिट नहीं दी जा सकती.
    2. निजी व्यक्तियों और कंपनियों के विरुद्ध नहीं दी जाएगी जिनका कोई सार्वजनिक कर्तव्य नहीं है.
    3. विधायिका को कानून बनाने का आदेश नहीं दिया जा सकता या और कानून बनाने से रोका भी नहीं जा सकता.

    परमादेश के संबंध में न्‍यायालयीन फैसले

    1. जॉन पेली और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य डब्ल्यूपीसी 428/2021 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि कोर्ट परमादेश की रिट जारी करके ट्रिब्यूनल की स्थापना का निर्देश नहीं दे सकता. कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 और 246 के अनुसार, कोर्ट किसी राज्य की विधायिका को किसी भी मामले पर कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकता.
    2. सोहनलाल बनाम भारत संघ (1957) में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि परमादेश की रिट निजी व्यक्ति के खिलाफ तब ही होगी यदि यह साबित हो जाए कि वह एक सार्वजनिक प्राधिकरण के साथ एकीकृत है.
    3. शरीफ अहमद बनाम एचटीए, मेरठ (1977) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिवादी को ट्रिब्यूनल के आदेशों का पालन करने का आदेश देते हुए एक परमादेश जारी किया.
    4. एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ (1981) के ऐतिहासिक मामले में, न्‍यायालय ने फैसला सुनाया कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या तय करने और रिक्तियों को भरने के लिये भारत के राष्ट्रपति अपने खिलाफ रिट जारी नहीं की जा सकती.
    5. सी.जी. गोविंदन बनाम गुजरात राज्य (1991), में न्यायालय ने अनुच्छेद 229 के तहत उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा निर्धारित अदालती कर्मचारियों के वेतन को मंजूरी देने के लिए राज्यपाल के खिलाफ परमादेश की रिट जारी करने से इनकार कर दिया.
  3. प्रतिशेध - यह निचली अदालतों, न्यायाधिकरणों या अर्ध-न्यायिक निकायों के खिलाफ उन्‍हें क्षेत्राधिकार के बाहर काम करने और बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करने से रोकने के लिये जारी किया जाता है. इसे 'स्थगन आदेश' के रूप में भी जाना जाता है.

    निम्‍नलिखित आधारो पर प्रतिशेध की रिट जारी की जा सकती है

    1. अधिकार क्षेत्र के बिना या अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य करना, यानी, क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटि;
    2. अमान्य कानून केआधार पर;
    3. प्राकृतिक न्याय मानकों का उल्लंघन करते पर;
    4. रिकॉर्ड में प्रत्‍यक्ष त्रुटि होने पर;
    5. निर्णय साक्ष्य से समर्थित नहीं होते पर

    प्रतिशेध की रिट के संबंध में न्‍यायालयीन निर्णय

    1. एस. गोविंद मेनन बनाम भारत संघ (1967) में केरल उच्‍च न्‍यायालय में कहा कि प्रतिषेध की रिट क्षेत्राधिकार की अधिकता और क्षेत्राधिकार के अभाव दोनों ही परिस्थितियों में जारी की जा सकती है.
    2. हरि विष्णु बनाम सैयद अहमद इशाक (1955) में सर्टिओरीरी और निषेध रिट के बीच अंतर किया गया और कहा गया कि जब निचली अदालत कोई निर्णय जारी करती है, तो याचिकाकर्ता को सर्टिओरीरी याचिका दायर करनी होगी क्योंकि निषेधाज्ञा रिट केवल तभी प्रस्तुत की जा सकती है जब निर्णय अभी तक नहीं दिया गया हो.
    3. प्रूडेंशियल कैपिटल मार्केट्स लिमिटेड बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य, (2000) में, कोर्ट ने कहा कि आदेश के क्रियान्वयन के बाद निषेधाज्ञा जारी नहीं की जा सकती.
  4. अधि‍कार-पृच्छा रिट - को वारंटो का अर्थ है, "किस अधिकार से". यह रिट किसी सार्वजनिक पद पर गलत तरीके से कब्जा करने से रोकने के लिए जारी की जाती है. सार्वजनिक पद पर नियुक्त होने वाले व्यक्ति को यह दिखाना होगा कि वह किस अधिकार से इस पर कार्यरत है, ताकि इसे वैध नियुक्ति माना जा सके.

    कोई भी व्यक्ति अधिकार पृच्‍छा की रिट का आवेदन कर सकता है यदि उसके मौलिक या किसी अन्य कानूनी अधिकार का उल्लंघन हो रहा हो. जिन मामलों में अधिकार का उल्लंघन नहीं भी है, वहां भी सार्वजनिक हित का प्रश्न निहित होने पर कोई भी आवेदन कर सकता है. आवेदन जनहित में होना चाहिए किसी अनैतिक लाभ की आशा में नहीं.

    अधिकार पृच्‍छा की रिट से संबंधित न्‍यायालयीन निर्णय

    1. अमरेन्‍द्र चंद्रा बनाम नरेन्‍द्र कुमार बसु, 1951 में न्‍यायालय ने निजी स्‍कूल की प्रबंध समिति के सदस्‍यों के विरुध्‍द अधिकार पृच्‍छा की रिट जारी करने से इसलिये इंकार कर दिया क्‍योंकि यह सार्वजनिक पद नही है.
    2. महेश चंद्र गुप्ता बनाम डॉ. राजेश्वर दयाल और अन्य, (2003) में न्‍यायालय ने कहा कि अपीलकर्ता का नियुक्ति से कोई संबंध या हित नहीं था और वह किसी भी तरह से प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं हुआ था, इसलिये उसका आवेदन रिनस्‍त कर दिया गया.
    3. एन एस चंद्रमोहन नायर बनाम जॉर्ज जोसेफ, (2010), में न्यायालय ने प्रतिवादी को अनावश्‍यक और 'घुसपैठिया' करार दिया और केरल उच्‍च न्‍यायालय व्दारा नियुक्ति को रद्द किये जाने को गलत माना.
    4. राजेश अवस्थी बनाम नंद लाल जयसवाल, (2013) में, न्‍यायालय ने माना कि मुख्य बिंदु यह देखना है कि क्या पद धारक के पास वैधानिक प्रावधानों के आधार पर कानून के अनुसार पद धारण करने की योग्यता है अथवा नहीं.
  5. सर्टिओरारी की रिट - मूलतः इसका अर्थ है "प्रमाणित होना". इसे निचली अदालत द्वारा पहले ही पारित आदेश को रद्द करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा जारी किया जा सकता है. इसका उपयोग सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किसी विशेष मामले को विचार के लिए अपने पास या किसी अन्य वरिष्ठ न्यायिक प्राधिकारी को हस्तांतरित करने के लिए भी किया जा सकता है.

    सर्टिओरारी की रिट के लिये आवश्‍यक तत्‍व

    1. अधिकार विहीन कार्य
    2. प्राकृतिक न्‍याय के विपरीत कार्य
    3. यह उन्‍हीं मामलों में जारी की जा सकती है जहां प्राधिकारी की न्‍याय‍िक रूप में कार्य करने की ड्यूटी हो.
    4. जब प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन या धोखाधड़ी, मिलीभगत या भ्रष्टाचार जैसे तत्वों की उपस्थिति के कारण न्याय की विफलता होती है.
    5. विधि की त्रुटि

    राधेश्याम और अन्य विरुध्‍द छबि नाथ और अन्य, (2015) में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने माना कि सिविल अदालतों के न्यायिक आदेश उत्प्रेषण रिट के अधीन नहीं हैं.

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