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छत्तीसगढ़ में मजदूर और किसान आंदोलन (1920 से 1940)

मजदूर आंदोलन

छत्तीसगढ़ में मजदूर आंदोलनों का केन्द्र राजनांदगांव की बी.एन.सी. मिल थी क्यों कि यह छत्तीसगढ़ का एकमात्र बड़ा उद्योग था. इस मिल की स्थापना 23 जून 1890 को सी पी मिल के नाम से की गई थी. इसके निर्माता बम्बई के जे.बी. मेकवेथ थे. रियासत के राजा बलरामदास मिल के संचालक मंडल के अध्यक्ष थे. मिल में 1894 से उत्पादन शुरू हुआ. 1897 में हानि होने के कारण मेकवेथ ने इसे कलकत्ते की शावलीन कंपनी को बेच दिया जिसने इसका नाम बदलकर बांगाल-नागपुर काटन मिल कर दिया.

  1. पहला आंदोलन ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने मजदूरों को संगठित किया और 1920 में 36 दिन की लंबी हड़ताल करवा दी. असंतोष का मुख्य कारण प्रतिदिन 12 से 13 घंटे काम करना था. अंत में मालिकों को झुकना पड़ा और काम के घंटे कम किए गए. ठाकुर साहब को राजनांदगांव से निष्कासित कर दिया गया. जब ठाकुर साहब ने मध्यप्रांत के गर्वनर से शिकायत की तो उन्होने निष्कासन रद्द कर दिया.
  2. दूसरा आंदोलन1924 में ठाकुर साहब ने फिर से हड़ताल कराई. इस समय मजदूरों ने एक भोज का आयोजन किया. एक सिपाही ने बर्तनों को जूता मार दिया. मजदूर उत्तेजित हो गए. लौटते समय मजदूरों ने एक भ्रष्ट बाबू गंगाधरराव को थप्पड़ मार दिया. पुलिस ने 13 मजदूरों को गिरफ्तार कर लिया. मजदूरों ने न्यायलय को घेर लिया और अपने साथियों को छुडा लिया, परन्तु पुलिस से उन्हे फिर पकड़ लिया. एक मजदूर के न मिलने पर पुलिस ने ठाकुर साहब का मकान घेर लिया. जब जनता को खबर लगी तो वे पोलिटिकल एजेंट का पीछा करने लगे. इस पर पुलिस ने गोली चला दी जिसमें एक मजदूर मारा गया और 12 घायल हुए. ठाकुर साहब ने गर्वनर से शिकायत की पर शासन ने उन्हें रियासत से निष्कासित कर दिया. इसके बाद ठाकुर साहब रायपुर चले गए.
  3. तीसरा आंदोलन मिल प्रबंधन ने मजदूरों के वेतन में 10 प्रतिशत की कटौती कर दी. मजदूर फिर हड़ताल पर गए और उन्होने ठाकुर साहब से सहायता की मांग की. ठाकुर साहब राजनांदगांव रेल्वे स्टेशन के विश्रामग्रह से हड़ताल का संचालन करते रहे. मिल प्रबंधन ने मजदूरों के प्रतिनिधि श्री रुईकर के नेतृत्व में समझौता किया परंतु 600 मजदूरों को काम से निकाल दिया गया और मजदूरों को चार लाख रुपये का नुकसान हुआ. ठाकुर साहब ने नया समझौता प्रारूप बनाकर प्रस्तुत किया जिसे समझौता बोर्ड ने स्वीकार कर लिया. निकाले गए मजदूरों को वापस ले लिया गया. ठाकुर साहब का निष्कासन आदेश भी रद्द कर दिया गया. इस प्रकार यह हड़ताल पूरी तरह सफल रही.

किसान आंदोलन

देश के अन्य हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ में भी सामंती युग और उसके बाद अंग्रेज़ों के समय में भी किसानो की दशा अच्छी नहीं थी. बेगारी प्रथा, अत्यधिक लगान, महाजनों व्दारा शोषण, फसल का उचित मूल्य न मिल पाना आदि के कारण किसानों में बहुत गरीबी थी. समय-समय पर किसानों के शोषण के विरुध्द आंदोलन होते रहे. राजनांगांव के सेवता ठाकुर ने बेगारी प्रथा के विरुध्द आवाज़ उठाई. भूमिहीन किसानो व्दारा भूमि की मांग भी की जाती रही. पं. सुंदरलाल.शर्मा व्दारा चलाया गया कण्डेल सत्याग्रह किसान आंदोलन ही था. इसमें बाबू छोटेलाल, नत्थू जगताप आदि ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसके अतिरिक्त अलग-अलग स्थानों पर हुए जंगल सत्याग्रह भी मूलत: किसानों के आंदोलन ही थे.

दुर्ग-डोडी का किसान आंदोलन 1937 में डोडी लोहारा के ज़मीन्दार मनीराम पाण्डेय का बड़ा आतंक था. 28 अगस्त 1937 को ज़मीन्दार के समक्ष किसानों ने मांलीथेड़ी के बाज़ार में आम सभा का आयोजन करके बहुत सी शिकायतें कीं, परन्तु् ज़मीन्दार ने किसी की न सुनी. उस समय श्री नरसिंह प्रसाद अग्रवाल वहां के बड़े गांधीवादी नेता थे. किसानों ने उनके नेतृत्व में आंदोलन प्रारंभ किया. श्री अग्रवाल पूरे क्षेत्र में घूमकर 3 साल तक जनजागृति फैलाते रहे. आंदोलन अंबागढ़-चौकी, पानबरस आदि अन्य ज़मीन्दारियों में भी फैल गया. उनके आंदेालन में उनके भाई सरयूप्रसाद अग्रवाल एवं अन्य लोगों ने भी सहयोग दिया जिनमें प्रमुख थे श्री वासुदेव देशमुख और पं. रत्नाकर झा. डोडी लोहारा में वली मोहम्‍मद ने सत्याग्रह किया जिसमें 94 व्यक्ति कैद कर लिये गए. अग्रवाल बंधु भी गिरफ्तार कर सिवनी जेल भेज दिये गए. इस समय प्रदेश पर कांग्रेस का शासन था. रविशंकर शुक्ल शिक्षा मंत्री एवं व्दारिका प्रसाद मिश्र गृह मंत्री थे. उन्होने श्री अग्रवाल को चर्चा के लिय नागपुर बुलाया परन्तु समझौता न हो सका. 5 मई 1939 को कुसुमकसा ग्राम में विशाल जनसभा हुई. सरयुप्रसाद अग्रवाल ने 9 दिन का उपवास किया. शासन को अंतत: एक सीमा तक ग्रामीणों के निस्तारी के अधिकार स्वीकार करने पड़े और बाद में निस्तार नियम भी बनाए गए. परन्तु कांग्रेस का स्वयं का शासन होने के कारण कांग्रेस इस आंदोलन को तोड़ना चाहती थी और उसने किसानों का साथ इस आंदोलन में नहीं दिया. जमीन्दार ने आंदोलनकारियों पर मुकदमा दायर कर दिया जिसकी पैरवी आंदोलनकारियों की ओर से रायपुर के वकील त्रिवेणीलाल श्रीवास्तव और नागपुर के श्री ज़कातदार ने की.

1938 में छुई खदान ज़मीन्दारी में कर न पटाओ आंदोलन हुआ. सरकार ने इनके खिलाफ कार्यवाही की और अनेक सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर लिया.

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