लेख

हमारे पौराणिक पात्र- ब्रह्मगुप्त

ब्रह्मगुप्त एक महान गणितज्ञ थे. उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीय गणित को सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा दिया था. इसीलिए बारहवीं शताब्दी के विख्यात ज्योतिष गणितज्ञ भास्कराचार्य ने उन्हें 'गणक चक्र चूड़ामणि' के नाम से संबोधित किया था. गणित के क्षेत्र में ब्रह्मगुप्त की सबसे बड़ी उपलब्धि है अनिवार्य वर्ग समीकरण –

अय2 +1= र2 का हल प्रस्तुत करना.

पाश्चात्य गणित के इतिहास में इस समीकरण के हल का श्रेय जोल पेल (1688ई.) को दिया जाता है और 'पेल' समीकरण के नाम से ही जाना जाता हैं. परंतु वास्तविकता यह है कि पेल से 1000 वर्ष पहले ब्रह्मगुप्त ने इस समीकरण का हल प्रस्तुत कर दिया था. इसके लिए ब्रह्मगुप्त ने जिन प्रमेयिकाओ की खोज की थी उन्हें भारतीय गणित में 'भावना' कहा गया है.

ब्रह्मगुप्त का जन्म 598 ई. में पश्चिम भारत के भिन्नमाल (वर्तमान मध्य प्रदेश) में हुआ था. उस समय यह नगर गुजरात की राजधानी था. भास्कराचार्य ने उनका जन्म-स्थान पंजाब में भिलनाल्का बतलाया है. ब्रह्मगुप्त के पिता का नाम विष्णुगुप्त था और विष्णु गुप्त के पिता का नाम जीश्नुगूप था. वह वैश्य परिवार के थे. डॉक्टर वी. ए. अस्मित के अनुसार ब्रह्मगुप्त उज्जैन में रहते थे और वहीं उन्होंने अपना कार्य किया. भास्कराचार्य के अनुसार वह चांप वंशी राजा के राज्य में रहते थे.

ब्रह्मगुप्त ने ज्योतिषशास्त्र के दो प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की थी. इन ग्रंथों के नाम हैं – ब्रह्म स्फुट सिद्धांत और खंड-खाघ. ब्रह्म सिद्धांत की रचना ब्रह्मगुप्त ने 30 वर्ष की अवस्था में (सन् 628) की थी. ब्रह्मगुप्त के इन दोनों ज्योतिष ग्रंथों का अनुवाद अरबी भाषा में 'सिंद-हिंद' और अलत-अरकन्द नाम से किया गया. महान ज्योतिषी और गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त के इन ग्रंथों से ही अरबो को पहली बार भारतीय गणित और ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त हुआ. बाद में अरबों ने ही इस ज्ञान को यूरोप तक पहुँचाया. अब यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है. हमें स्मरण रखना चाहिए कि अरबी गणितज्ञों और ज्योतिषियों के गुरु ब्रह्मगुप्त थे.

ब्रह्मगुप्त से पहले भारत में अनेक सिद्धांत ग्रंथ थे. उनमें से एक था ब्रह्म सिद्धांत. ब्रह्म सिद्धांत की बातें पुरानी हो गई थीं तथा नवीन ज्ञान से उनका मेल नहीं था अतः ब्रह्मगुप्त ने नया सिद्धांत लिखा. 'स्फुट' का अर्थ है फैलाया हुआ अथवा संशोधित.

'ब्रह्मस्फुटसिद्धांत' उनका पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है. यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है. ये नियम आज की समझ के बहुत करीब हैं. हाँ, एक अन्तर अवश्य है कि ब्रह्मगुप्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये: ०/० = ०.

ब्रह्मगुप्त के ग्रंथ में बीजगणित सबसे महत्वपूर्ण विषय हैं. बीजगणित को उन्होंने कुत्तक की संज्ञा दी हैं और कुत्तकाध्याय मे इसका ज्ञान प्रदान किया है. ब्रह्मगुप्त ने बीजगणित का पर्याप्त विकास किया और ज्योतिष के प्रश्न हल करने में उसका प्रयोग किया. समीकरणों के विषय में ब्रह्मगुप्त ने नए हल सुझाए. इस प्रकार उन्होंने अंक गणित, बीजगणित तथा रेखागणित तीनों पर प्रकाश डाला और π का मान 10 मानकर चले. वर्गीकरण की विधि का वर्णन सर्वप्रथम ब्रह्मगुप्त ने ही किया तथा विलोम विधि का वर्णन भी बड़ी अच्छी तरह से किया. गणित अध्याय शुद्ध गणित में ही है. इस में जोड़ना, घटाना आदि ट्रेराशिक भांड, प्रतिभांड आदि हैं. अंकगणित परिपाटी गणित में है – त्रेनि व्यवहार, क्षेत्र व्यवहार, त्रिभुज, चतुर्भुज आदि के क्षेत्रफल जानने की रीति, चित्र व्यवहार, त्रैवाचिक व्यवहार, राशि व्यवहार, छाया व्यवहार, आदि 24 प्रकार के अध्याय इसके अन्तर्गत हैं.

ब्रह्मगुप्त सूत्र

ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है. उन्होने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं. ब्रह्मगुप्त ने चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र (approximate formula) तथा यथातथ सूत्र (exact formula) भी दिया है.

जहाँ t = चक्रीय चतुर्भुज का अर्धपरिमाप तथा p, q, r, s उसकी भुजाओं की नाप है. हेरो का सूत्र, जो त्रिभुज के क्षेत्रफल निकालने का एक सूत्र है, इसका एक विशिष्ट रूप है.

ब्रह्मगुप्त ने अपना दूसरा ग्रंथ-खंड 67 वर्ष की अवस्था में (665 ई.) लिखा था. इसमें उन्होंने पञ्चांग बनाने का ज्ञान प्रदान किया है अँग्रेज़ विद्वान कोलबर्क ने सन 1817 में ब्रह्मगुप्त के ग्रंथ के कुत्तकध्यय (बीजगणित) का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया था. तब यूरोप के विद्वानों ने जाना कि आधुनिक बीजगणित वास्तव मे भारतीय बीजगणित पर आधारित है. ब्रह्मगुप्त ने ध्यान गुहोपदेश नामक ग्रंथ की भी रचना की थी. उनकी मृत्यु सन 680 ईसवी में हुई थी.

ब्रह्मगुप्त गणित ज्योतिष के बहुत बड़े आचार्य थे. आर्यभट के बाद भारत के पहले गणित शास्त्री 'भास्कराचार्य प्रथम' थे. उनके बाद ब्रह्मगुप्त हुए. ब्रह्मगुप्त खगोल शास्त्री भी थे और आपने 'शून्य' के उपयोग के नियम खोजे थे. गणित के क्षेत्र में अपने महत्वपूर्ण कार्यों के लिए ब्रह्मगुप्त का यश सदैव स्मरणीय रहेगा.

ज्ञान की पाती- करें योग रहें निरोग

रचनाकार- चानी ऐरी

हम यह जानते हैं कि स्वास्थ्य हमारी अनमोल संपत्ति है इसीलिए Health is Wealth कहा गया है.

अच्छे स्वास्थ्य का अर्थ होता है स्वस्थ शरीर और प्रसन्न मन, पर बदलते समय में जीवन के मायने भी बदलते गए हैं. आजकल मनोविज्ञान के अनुसार स्वास्थ्य के तीन मुख्य आधार माने गए हैं

1.मन, 2.तन/शरीर, 3. आत्मा

मन को स्वस्थ रखने के लिए हम सकारात्मक सोच का उपयोग कर सकते हैं.

शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अच्छा भोजन, योग, ध्यान और खेलकूद का सहारा ले सकते हैं.

आत्मा को हम भक्ति भाव योग आदि के द्वारा स्वस्थ रख सकते हैं

हमारे इन तीनों आधारों को स्वस्थ रखने के लिए योग महत्वपूर्ण है, तो क्यों न हम योग के द्वारा संपूर्ण शरीर को स्वस्थ रखें. आजकल योग को शिक्षा से भी जोड़ दिया गया है, बच्चों के संपूर्ण विकास के लिए योग अति आवश्यक है.

इसके लाभों को देखकर पतंजलि ने योग की बहुत सी विधियाँ और लाभ बताए हैं. भारत की योग पद्धति पूरे विश्व में अपनाई जाने लगी है और लोग स्वस्थ रहने के लिए योग का सहारा ले रहे हैं. अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 21 जून को विश्व योग दिवस भी मनाया जाने लगा है.

आज योग के उपयोग से कई लोग भयंकर रोगों से भी लड़कर स्वस्थ हो रहे हैं. योग करने से शरीर में ऊर्जा अच्छे विचार एवं शरीर मे ऑक्सीजन की वृद्धि होती है. साथ ही हमारे शरीर के अंग सुचारू रूप से कार्य करते हैं.

आयुष विभाग, स्कूल शिक्षा विभाग, इण्डियन योग एसोसिएशन तथा पतंजलि योग पीठ के संयुक्त तत्वावधान में बहुत से कार्यक्रम योग को बढ़ावा देने के लिए होते रहते हैं. योग सिर्फ व्यायाम भर नहीं है, बल्कि विज्ञान पर आधारित शारीरिक क्रियाएँ हैं. कुछ विशेष और सामान्य योगासनों के नाम जो सभी लोग कर सकते हैं

1)प्राणायाम 2)अनुलोम विलोम 3)कपाल भाति 4)भ्रामरी प्राणायाम 5)तितली प्राणायाम 6)सुर्यनमस्कार 7)ताड़ासन 8)पवनमुक्तासन

योगासन से लाभ

योग से बीमारियो जैसे मधुमेह, खाँसी, गैस, हृदय की बीमारियो में लाभ, श्वास संबंधी बीमारियों मे लाभ होता है एवं शरीर शक्तिशाली और स्वस्थ बनता है.

हमारे प्रेरणास्रोत-रानी दुर्गावती

बच्चो!आज हम आपको ले चलते हैं मध्यप्रदेश के जबलपुर क्षेत्र, जो पंद्रहवीं शताब्दी में गोंडवाना राज्य कहलाता था. जबलपुर से लगभग पचास किलोमीटर की दूरी पर सिंगौरगढ़ है. यहाँ स्थित मदन महल आज भी गोंडवाना साम्राज्य की समृद्धि और विशालता की गाथा कहता है. महल में मिले अवशेष बीते युग की बहुत सी कहानियाँ सुनाते हैं. क़िले के अंदर बने जलाशय में आज भी पूरे वर्ष पानी रहता है. किले की पहाड़ियों मे बने गुप्त रास्ते पहेली की तरह लगते हैं. माना जाता है कि यह गुप्त सुरंग मण्डला जाकर खुलती थी. सिंगौरगढ़ के रास्ते में शारदा माई का मंदिर स्थित है जहाँ गोंडवाना साम्राज्य की रानी पूजा के लिए अक्सर आया करती थीं. बच्चो! आज मैं आपको इसी रानी की कहानी सुनाती हूँ.

उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में उस समय चंदेल वंश का राज था. वहाँ के राजा कीर्ति सिंह के यहाँ एक कन्या का जन्म पाँच अक्तूबर १५२४ को हुआ. दुर्गाअष्टमी के दिन जन्म होने के कारण कन्या का नाम दुर्गावती रखा गया. बचपन से ही दुर्गावती की रुचि घुड़सवारी, तीरंदाज़ी और तलवारबाज़ी में थी. अकबरनामा में अबुल फजल ने उनके बारे मे लिखा है- 'वह बंदूक़ और तीर से निशाना लगाने में बहुत उम्दा थी और लगातार शिकार पर ज़ाया करती थी'.

अपने नाम की तरह दुर्गावती के तेज, साहस, शौर्य और सुंदरता की प्रसिद्धि चारों ओर फैली हुई थी. उनके गुणों से प्रभावित होकर गोंड राजवंश के राजा संग्राम शाह ने उनके लिए अपने बड़े बेटे से विवाह का प्रस्ताव भेजा. १८ वर्ष की अवस्था मे दुर्गावती का विवाह दलपत शाह से हो गया. विवाह के कुछ वर्ष पश्चात उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम वीर नारायण सिंह रखा गया. परंतु यह ख़ुशी ज़्यादा दिन न रह सकी. जब उनका पुत्र केवल पाँच वर्ष का ही था कि उनके पति दलपत शाह की मृत्यु हो गयी.

इस घटना के बाद रानी दुर्गावती पूरी तरह टूट गयीं पर उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने अपने बेटे को सिंहासन पर बिठाया और खुद गोंडवाना साम्राज्य की बागडोर अपने हाथों मे ले ली. रानी दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे. उन्होंने अपने राज्य के गोंड युवकों को साथ लेकर अपनी सेना तैयार की. उन्हें असहाय युवती जानकर उनके राज्य पर कई आक्रमण किये गये. गोंडवाना तीन ओर से मुग़ल शासकों से घिरा हुआ था. पश्चिम में निमाड़ -मालवा का शुजात खाँ सूरी, दक्षिण में खान देश का मुग़ल राज्य और पूर्व में अफगानी शासक था. रानी दुर्गावती व्यूह रचना और युद्ध कौशल मे दक्ष थी. उनकी युद्ध रणनीति के समक्ष हर बार मुग़ल शासकों को पराजय का सामना करना पड़ा. तीनों राज्यों पर इस विजय से गोंडवाना राज्य को अपार सम्पत्ति मिली. दुर्गावती के राज्य में हरियाणा, राजस्थान सहित अनेक राज्यों के व्यापारी गोंडवाना राज्य के साथ व्यापार करने लगे. रानी ने राज्य में प्रजा की ख़ुशी के लिए कई कुएँ, बावड़ियाँ, तालाब, धर्मशालाएँ बनवाई. उनके राज्य में हर जगह खुशहाली थी कभी अकाल नहीं पड़ता था. गोंडवाना एक समृद्ध राज्य बन गया था.

सन १५६४ का समय था जब अकबर का शासन चारों ओर बढ़ रहा था. अब उसकी नजर गोंडवाना राज्य पर थी. अकबर ने अपने गुप्तचरों को फ़क़ीरों के वेश में राज्य में भेजा. वहाँ की आंतरिक सूचनाएँ इकट्ठी करने के बाद अपने सेनापति आसफ खाँ को गोंडवाना पर आक्रमण का हुक्म दिया. आसफ खाँ जिरह बख्तर से लैस अपने पचास हज़ार मुग़ल घुड़सवार सैनिकों के साथ गोंडवाना पर टूट पड़ा. दुर्गावती भी अपने बीस हजार गुड़सवारों और एक हजार हाथियों के साथ सामने आ डटीं. दो - तीन घंटों की लड़ाई के बाद जब दोनों ओर के सैनिक थककर चूर हो गए,तब आसफ खाँ ने अपने नए बीस हजार घुड़सवारों को हमले का हुक्म दिया. बढ़ते मुगल सैनिकों ने दुर्गावती और उनके पुत्र वीरनारायण को घेर लिया. पराजय निश्चित थी यह देखते हुए उन्होंने अपने बेटे से कहा -मेरे मरने के बाद गोंडवाना की रक्षा करना और हिंदू महिलाओं को मुसलमानों के हाथ मत पड़ने देना. उन्हें अग्नि देवता को सौंप देना,युद्ध हारने के पूर्व जौहर की व्यवस्था कर देना. यह कह कर रानी जैसे ही आगे बढ़ीं तभी एक तीर उनके हाथी पर लगा और दूसरा तीर उनके गले को भेद गया. दुर्गावती ने परिस्थिति को भाँप लिया. अपनी इज्जत बचाने के लिए शीघ्रता से कमर से खुँसी कटार निकाली और जय भवानी कहते हुए कटार अपने हृदय में मार ली. उनका शरीर मुगलों के हाथ न लग सका. अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए वीरतापूर्वक अपने प्राण न्योछावर करने की ऐसी मिसाल बहुत कम मिलती है. आतताइयों की बर्बर भूख और लिप्सा के आगे घुटने टेकने के बजाय वीरता और साहस के साथ उनका सामना करने और मृत्यु का आलिंगन करने के ऐसे उदाहरण दुनिया के इतिहास में कम ही मिलते हैं. रानी दुर्गावती का यह बलिदान उन्हें सदा सदा के लिए अमर बना गया.

वर्तमान में जबलपुर मंडला रोड पर स्थित बरेला में रानी दुर्गावती की समाधि है, जहाँ वे वीरगतिको प्राप्त हुई थीं. चौबीस जून को रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर आज भी लोग यहाँ उनकी समाधि पर दर्शन के लिए आते हैं. सिंगौरगढ़ में स्थित महल आज भी उनके साहस,पराक्रम और वीरता की गाथा कहता है.

प्रणाम

रचनाकार- संतोष कुमार कौशिक

प्रणाम, प्रणत शब्द से बना है जिसका अर्थ है.नम्र होना,विनीत होना या किसी के सामने सिर झुकाना.यह परंपरा भारत में आदिकाल से है. सामान्य हिंदी में प्रणाम का अर्थ अभिवादन से है अर्थात अपने से बड़ों को आदर पूर्वक अभिवादन करने व आशीर्वाद प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रणाम कहलाती हैं. शास्त्रों में कहा गया है कि जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन और सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं उनकी आयु, विद्या,कीर्ति और बल में सदैव वृद्धि होती रहती है इसलिए माताएँ छोटे-छोटे बच्चों को भी जय-जय करके प्रणाम करना सिखाती हैं. जीवन में प्रणाम की बड़ी महत्ता है प्रणाम में उन्नति की चाबी होती है.

रामायण में तुलसीदास जी ने भगवान श्री राम की बाल लीलाओं का वर्णन करते हुए कहा है कि-

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा.

मातु पिता गुरु नावहिं माथा..

भगवान श्री राम सुबह उठते ही माता-पिता और गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर अपनी दिनचर्या प्रारंभ करते हैं. श्रीराम ने यह सब लीलाएँ इसलिए कीं ताकि सभी,किसी भी कार्य को करने के पूर्व बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त करें.

प्रणाम से संबंधित मार्कण्डेय जी की कथा

मार्कण्डेय जी अल्पायु थे.उसके पिता ने शीघ्र ही मार्कण्डेय का जनेऊ संस्कार कराकर उन्हें प्रणाम की दीक्षा दी और समझाया कि जो भी व्यक्ति तुम्हारे सामने आए उसे प्रणाम करना. यह मार्कण्डेय जी का नित्य नियम था कि जो भी व्यक्ति उनके सामने आता वह उसे प्रणाम किया करते थे. एक बार सप्त ऋषि मार्कण्डेय जी के सामने आए और मार्कण्डेय जी ने उनके चरण स्पर्श किए तब सप्त ऋषियों ने उन्हें दीर्घायु होने का आशीर्वाद प्रदान किया, किंतु जब उन्हें यह पता चला कि मार्कण्डेय तो अल्पायु है,तब वे मार्कण्डेय को लेकर ब्रह्माजी के पास गए. ब्रह्माजी के पास जाकर मार्कण्डेय जी ने उनके चरण स्पर्श किए तब ब्रह्माजी ने भी उन्हें दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया. सप्त ऋषियों ने ब्रह्माजी से कहा कि यह बालक तो अल्पायु है अतः हमारा वरदान झूठ साबित होगा, तब ब्रह्माजी ने कहा कि अब यह बालक कई कल्पों तक जीवित रहेगा तथा दीर्घायु रहेगा. जब यमराज मार्कण्डेय के प्राण लेने आए तब महाकाल शिव ने उन्हें भगा दिया. इस तरह मार्कण्डेय द्वारा प्रणाम करने पर वे दीर्घायु हो गए.

महाभारत में भी एक प्रसंग है जो प्रणाम के महत्व को दर्शाता है, वह प्रसंग इस प्रकार है----

महाभारत का युद्ध चल रहा था, एक दिन दुर्योधन के व्यंग्य से आहत होकर भीष्म पितामह घोषणा कर देते हैं कि वह अगले दिन पांडवों का वध कर देंगे. उनकी घोषणा का पता चलते ही पांडवों के शिविर में बेचैनी बढ़ गई. भीष्म की क्षमता के बारे में सभी को पता था इसलिए सभी अनिष्ट की आशंका से परेशान हो गए.

श्री कृष्ण द्रौपदी को लेकर भीष्म पितामह के शिविर पहुँचे. उन्होंने द्रौपदी से कहा कि अंदर जाकर पितामह को प्रणाम करो, द्रौपदी ने अंदर जाकर पितामह भीष्म को प्रणाम किया तो,उन्होंने द्रौपदी को अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया. इसके बाद पितामह ने द्रौपदी से पूछा-क्या श्री कृष्ण तुम्हें यहाॅ॑ लेकर आए हैं? द्रौपदी ने कहा -हाॅ॑ ! वे कक्ष के बाहर ही खड़े हैं. यह सुनकर पितामह भीष्म कक्ष के बाहर आ गए और दोनों ने एक दूसरे को प्रणाम किया. पितामह भीष्म ने कहा उन्हें आभास था कि उनके एक वचन को,उनके ही दूसरे वचन से काट देने का कार्य श्री कृष्ण ही कर सकते हैं.

शिविर से लौटते समय श्रीकृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि तुम्हारे एक बार जाकर पितामह को प्रणाम करने से तुम्हारे पतियों को जीवनदान मिल गया, प्रणाम में बहुत शक्ति होती है अगर वह प्रतिदिन पितामह भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि को प्रणाम करती रहीं होतीं और इसी प्रकार दुर्योधन,दु:शासन आदि की पत्नियाॅ॑ भी पांडवों को प्रणाम करती होती तो शायद महाभारत युद्ध की नौबत ही न आती.

प्रणाम से होने वाले लाभ

बड़ों का अभिवादन करने के लिए चरण छूने की परंपरा सदियों से रही है. सनातन धर्म में अपने से बड़े के आदर के लिए चरण स्पर्श उत्तम माना गया है. प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर चरण स्पर्श के कई फायदे हैं...

1. चरण छूने का अर्थ है पूरी श्रद्धा से किसी के समक्ष नतमस्तक होना, इससे विनम्रता आती है और मन को शांति मिलती है. चरण छूने वाला दूसरों को भी अपने आचरण से प्रभावित करने में सफल होता है.

2. जब हम किसी आदरणीय व्यक्ति के चरण छूते हैं, तो आशीर्वाद के तौर पर उनका हाथ हमारे सिर के उपरी भाग को और हमारा हाथ उनके चरण को स्पर्श करता है. ऐसी मान्यता है कि इससे उस पूजनीय व्यक्ति की सकारात्मक ऊर्जा आशीर्वाद के रूप में हमारे शरीर में प्रवेश करती है, इससे हमारा आध्यात्मिक तथा मानसिक विकास होता है.

3. शास्त्रों में कहा गया है कि हर रोज बड़ों के अभि‍वादन से आयु, विद्या, यश और बल में बढ़ोतरी होती है.

4. इसका वैज्ञानिक पक्ष कुछ इस तरह है: न्यूटन के नियम के अनुसार, दुनिया में सभी चीजें गुरुत्वाकर्षण के नियम से बँधी हैं, गुरुत्व भार सदैव आकर्षित करने वाले की ओर जाता है. हमारे शरीर पर भी यह नियम लागू होता है, सिर को उत्तरी ध्रुव और पैरों को दक्षिणी ध्रुव माना गया है. इसका अर्थ यह हुआ कि गुरुत्व ऊर्जा या चुंबकीय ऊर्जा उत्तरी ध्रुव से प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव की ओर प्रवाहित होकर अपना चक्र पूरा करती है. शरीर में उत्तरी ध्रुव (सिर) से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश कर दक्षिणी ध्रुव (पैरों) की ओर प्रवाहित होती है. दक्षिणी ध्रुव पर यह ऊर्जा असीमित मात्रा में स्थिर हो जाती है. पैरों की ओर ऊर्जा का केंद्र बन जाता है. पैरों से हाथों द्वारा इस ऊर्जा के ग्रहण करने को ही हम चरण स्पर्श कहते हैं.

5. चरण स्पर्श और चरण वंदना भारतीय संस्कृति में सभ्यता और सदाचार का प्रतीक है.

6. माना जाता है कि पैर के अंगूठे से भी शक्ति का संचार होता है. मनुष्य के पाॅ॑व के अंगूठे में भी ऊर्जा प्रसारित करने की शक्ति होती है.

7. मान्यता है कि बड़े-बुजुर्गों के चरण स्पर्श नियमित तौर पर करने से कई प्रतिकूल ग्रह भी अनुकूल हो जाते हैं.

8. इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष यह है कि जिन लक्ष्यों की प्राप्त‍ि को मन में रखकर बड़ों को प्रणाम किया जाता है, उस लक्ष्य को पाने का बल मिलता है.

9. यह एक प्रकार का सूक्ष्म व्यायाम भी है. पैर छूने से शारीरिक कसरत होती है. झुककर पैर छूने, घुटने के बल बैठकर प्रणाम करने या साष्टाॅ॑ग दंडवत से शरीर लचीला बनता है.

10. आगे की ओर झुकने से सिर में रक्त प्रवाह बढ़ता है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है.

11. प्रणाम करने का एक लाभ यह भी है कि इससे हमारा अहॅ॑कार कम होता है.

इन्हीं कारणों से बड़ों को प्रणाम करने की परंपरा को नियम और संस्कार का रूप दे दिया गया है.

सफलता की कहानी- प्रशिक्षक बनने की मेरी यात्रा

शिक्षिका का नाम-गीता शुक्ला

विद्यालय का नाम -कस्तूरबा गाँधी बालिका आवासीय विद्यालय जगदलपुर

मेरा नाम श्रीमती गीता शुक्ला है, मैं कस्तूरबा गाँधी बालिका आवासीय विद्यालय जगदलपुर में शिक्षिका के पद पर कार्यरत हूँ. वर्तमान में मैं निखार कार्यक्रम के अंतर्गत हिंदी विषय के लिए 'जिला स्तरीय प्रशिक्षक' के तौर पर चुनी गयी हूँ. यह मेरे लिए अत्यंत गौरव की बात है क्योंकि मैं बस्तर जिले में अपने समकक्ष शिक्षकों और स्वयं से उच्च पद पर कार्यरत प्रधान पाठकों व प्राचार्यों को प्रशिक्षित कर रही हूँ.

एक प्रशिक्षक के रूप में चुना जाना मेरे लिए जितने गौरव की बात है, वहाँ तक पहुँचना उतना ही चुनौतीपूर्ण था. क्योंकि आज से कुछ वर्ष पूर्व तक मुझमें आत्मविश्वास की अत्यंत कमी थी. भीड़ में या मंच पर बोल पाना मेरे लिए लगभग असंभव था.

आज भी मुझे छः वर्ष पूर्व की वह घटना याद है जब मैं एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में सम्मिलित हुई थी. प्रशिक्षक ने जब मुझे अपना परिचय देने के लिए कहा तब मैंने तीन- चार बार अपना परिचय दिया लेकिन प्रशिक्षक मेरी बात सुन और समझ ही नहीं पाए क्योंकि घबराहट के कारण मेरे मुँह से स्पष्ट आवाज नहीं निकल रही थी. इस घटना से मुझे स्वयं के अन्दर आत्मविश्वास की कमी का अनुभव हुआ. उस दिन के बाद मैंने स्वयं को प्रेरित करने और अपनी कमी दूर करने का प्रयास करने का निश्चय किया. मैंने तय किया कि अब ऐसा कोई भी मौका आए जहाँ मुझे मंच पर या समूह के बीच बोलने का अवसर मिले तो मैं अवश्य उस अवसर का लाभ उठाउँगी और स्वयं को इसके लिए प्रेरित करुँगी.

2018 में, मैं 'परियोजना विजयी'कार्यक्रम से जुड़ी, जिसने मेरे प्रयासों को एक दिशा और योजनाबद्ध तरीका प्रदान किया. इस कार्यक्रम के अंतर्गत छत्तीसगढ़ के चयनित 179 संस्थाओं की बालिकाओं को जीवन कौशल की शिक्षा दी जा रही है. हमारा विद्यालय भी इस कार्यक्रम से लाभान्वित हो रहा है. कार्यक्रम के प्रारूप के अनुसार प्रत्येक आवासीय विद्यालय से एक शिक्षिका और अधीक्षिका प्रशिक्षण प्राप्त कर बालिकाओं के लिए जीवन कौशल सत्रों का आयोजन करती हैं. इस प्रशिक्षण के लिए शिक्षिका के रूप में मेरा चयन हुआ है. अक्टूबर 2018 में मैं पहली बार प्रशिक्षण में शामिल हुई वहाँ पर भी अपनी बात रखते समय बहुत घबराहट महसूस होती थी क्योंकि उस प्रशिक्षण में अन्य जिलों की शिक्षिकाएँ और अधीक्षिकाएँ भी उपस्थित थीं. प्रशिक्षण के दौरान मेरे झिझकने पर प्रशिक्षकों द्वारा मुझे प्रोत्साहित किया जाता था और अच्छी बात कहने पर मेरी सराहना भी की जाती थी. इस प्रोत्साहन और सराहना ने मुझे अत्यंत प्रेरित किया.

प्रशिक्षण के दौरान हमने अनेक विषयों पर चर्चा की जिनमें से मुख्य रूप से मैंने 'मैं (स्वयं) और मेरी पहचान', 'सम्प्रेषण का कौशल', 'दृढ़ होना' और 'नेतृत्वकर्ता' के कौशलों को सीखा और अपने दैनिक जीवन में प्रतिदिन इन कौशलों का उपयोग करना शुरू किया. साथ ही उन सभी अवसरों को तलाशती रही जहाँ इन कौशलों का उपयोग कर सकूँ. इसी श्रेणी में मैंने 8 मार्च 2019 को हमारे विद्यालय में आयोजित 'अंतराष्ट्रीय महिला दिवस' पर मंच संचालन किया, ब्लाक स्तरीय बैठकों में भाग लिया, 5 मार्च 2020 को 'परियोजना विजयी' के अंतर्गत आयोजित समीक्षा बैठक में आदरणीय कलेक्टर महोदय की उपस्थिति में अपने विद्यालय का प्रस्तुतीकरण दिया. इन सभी अवसरों से मेरा स्वयं पर और स्वयं की योग्यता और क्षमता पर विश्वास बढ़ा. मुझे कविताएँ लिखने का भी शौक है, समय-समय पर मैं अपनी कविताएँ, आयोजनों के दौरान मंच से और व्हाट्सएप स्टेटस के द्वारा अपने परिचितों के साथ साझा करती हूँ. जिन पर मुझे अपने सहकर्मियों, प्रशिक्षकों व उच्च अधिकारियों से सराहना मिलती है जिससे मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है.

'सतत सुधार और जीवन कौशल शिक्षा के अभ्यास के फलस्वरूप मेरे अन्दर आत्मविश्वास में वृद्धि हुई है जिसके कारण मैं आज एक प्रशिक्षक के रूप में चुनी गयी हूँ. मुझे विश्वास है कि मैं इसी प्रकार अपने कौशलो और व्यक्तित्व के विकास पर निरंतर कार्य करती रहूँगी और जिले तथा राज्य को अपनी सेवाएँ देती रहूँगी.'

वर्षा जल संग्रहण

रचनाकार- रजनी शर्मा बस्तरिया

पृथ्वी की सेहत में होगी समृद्धि

वर्षा जल संग्रहण में यदि हो वृद्धि

कहते हैं कि भविष्य वर्तमान के गर्भ में छुपा होता है. इसी भाव के साथ वर्षा के जल के संरक्षण और पानी का दुरुपयोग रोककर बूँद बूँद का संग्रहण करने के लिए ''जल प्रहरी'' के रूप में नींव रखने का कार्य मायाराम सुरजन शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्राचार्य श्रीमती भावना तिवारी के निर्देशन में इको क्लब प्रभारी श्रीमती रजनी शर्मा ने कबाड़ से जुगाड़ शैक्षणिक वाटिका में किया है. इस संदेश के लिए एक रिप्लिका तैयार किया गया है.

वाटिका में एक गढ़्ढा खोदकर उसे सुरक्षित करने के लिए पुराने अनुपयोगी वाटर टैंक को काटकर ढँका गया. इस छोटे से गड्ढे में पेड़ लगाया गया. बेकार पड़े बेसिन के सिंक के सुराख से बाहर निकले पौधे लहलहा कर हरियाली का संदेश दे ही रहे हैं. सिंक पानी एकत्र किए जाने के प्रतीक के रुप में रखा गया है. जिससे पानी वाटिका में एकत्र हो रहा है. धरती के पानी के संग्रहण के प्रतीक के रूप में बेकार वाटर टैंक के माध्यम से समझाने की कोशिश की गई है. आते जाते विद्यार्थियों का ध्यान यह सहजता से आकृष्ट करता है और यह भाव भी जगाता है कि जल का संरक्षण आवश्यक है. मात्र कुछ ही क्षणों में इस कार्यप्रणाली को समझ जाते हैं. बड़े ही नही वरन नन्हे बच्चे भी इसे देखकर बहुत अच्छे से समझ जाते हैं. शाला के युवा क्लब के मंत्रियों को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वे इसकी सुरक्षा और इसका शाला के अन्य छात्राओं के बीच प्रचार-प्रसार भी करेंगे. क्योंकि भविष्य में एक ''जल प्रहरी'' के रूप में उनकी भूमिका इस शाला में इको क्लब प्रभारी श्रीमती रजनी शर्मा ने अभी से तय कर दी है.

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