छत्तीसगढ़ी कहानियाँ

बोईर गुठलू

रचनाकार- सुरेखा नवरत्न

मँझनिया के बेरा रहय, खाना-पीना खाय के बाद, मई -पिला घाम के रहत ल अपन -अपन कुरिया म बेरा ढारत रहय. दाई अऊ बाबू ह अपन कुरिया म चल दिस. सीमा ह अपन बबा बड़कादाई के तीर म जादा पइधे रहय. ओई मन करा सुतय, बबा अऊ बड़का दाई मन के नींद ह परगे. ओमन के नाक ह घुरूर,घुरूर बाजत रहय. सीमा ह कले चुप उठीस, ओकर गोड़ हाथ ह एको कनी नइ बाजिस. फईरका ल हेर के कुरिया ल बाहिर निकलगे.

लईका मन के नींद ह मँझनिया कहाँ के परथे. ओमन ल तो रंग- रंग के खुरापाती करै के उदीम आवत रहिथे. सीमा ह अपन ममा के बेटी ल घलो बला लिस. 'अरे नीता चल आज हमर बोईर के रूख तरी खेले जाबो. ' नीता घलो ह लुक लुकाय रहय खेले बर.

दूनो संगी बोईर रूख के तरी म आ गीन. नीता कहिस 'अब काय करबोन रे सीमा..... '

सीमा ह अबड़ चंचल बुध के लईका रहिस. ओ हर कहिस 'चल आज बोईर गुठलू बिनबो, अऊ ओकर चिरौंजी निकालबोन, जब एक कटोरी हो जाही त गुर डारके लाड़ू बनाबो. '

नीता कइथे, 'जमो बोईर ह तो झर गे हे रे.... ऊपर-ऊपर म सुखड़ी -सुखड़ी कस बाँहचे हे. मैं रूख म चढ़ के हलाहू अऊ तैं बिनबे. '

नीता ह रूख म चढ़के हला डारिस. झट-पट बने एक सुपेली अकन सुक्खा-सुक्खा बोईर अऊ गुठलू किंदर -किंदर के खोज- खोज के बिन डारिन.

तीर - तखार ले पथरा ले आनिन अऊ ठुक- ठुक, कुच- कुच के चिरौंजी ल कटोरी म धरत गीन. बीच बीच म सुखड़ी-सुखड़ी बोईर र खावतो जाय. एती बबा ह ठुक-ठुक के अवाज ल सुनिस,' काय ठुक-ठुक करथे लईका मन रे, घर म रहिबे मँझनिया कहूँ झन जाबे बेटी कहे रहें त कले चुप भाग गे हे. ' ओ हर अपन ललहूँ रंग के पटकू ल मुड़ी म ओढ़के बारी डहर हाँक पारत गिस.

'नोनी ओ... सीमा, ए सीमा अरे, घाम म का कुचरत हो लईका हो..... ' सीमा ह ओतके बेरा एक ठन बोईर ल मुँह म भरे रहय. बबा के हाँक परई ल सुनिस त हड़बड़ी म गुठलू ल लील डारिस. अब बोईर के गुठलू ह ओकर घेंच म अरहज गे.

ओक् ओक् ओकयाईस तभो नई निकलिस. न एती जावय न ओती जावय. सीमा के मुँह कान ललिया गे रहय. बबा घलो हड़बड़ा गे मोर लईका ह कैसे अटक घलिस. पीठ ल सारय नरी ल सारय. ओमन के टुड़बुड़ - टुड़बुड़ ल सुन के बड़का दाई घलो आ घलिस.

का होगे? एकरे बर कईथौं मँझनिया झन जाये करो हिके एक राहपट कस के चेथी ल मारिस. त गुठलू ह मुँह कोती उगला गे.

सबो के हाय जी लाईस. ओ दिन के बाद सीमा ह मँझनिया के बेरा नइ जावय. घर म बबा अऊ बड़का दाई करा किस्सा धसुनय.

लालच के फल बुरा होथें

रचनाकार- हिमाँशु, कक्षा ग्यारहवीं, शा. उ. मा. वि. पहंडोर, पाटन, दुर्ग

मँझनिया के बेरा रहय, खाना-पीना खाय के बाद, मई -पिला घाम के रहत ल अपन -अपन कुरिया म बेरा ढारत रहय. दाई अऊ बाबू ह अपन कुरिया म चल दिस. सीमा ह अपन बबा बड़कादाई के तीर म जादा पइधे रहय. ओई मन करा सुतय, बबा अऊ बड़का दाई मन के नींद ह परगे. ओमन के नाक ह घुरूर,घुरूर बाजत रहय. सीमा ह कले चुप उठीस, ओकर गोड़ हाथ ह एको कनी नइ बाजिस. फईरका ल हेर के कुरिया ल बाहिर निकलगे.

लईका मन के नींद ह मँझनिया कहाँ के परथे. ओमन ल तो रंग- रंग के खुरापाती करै के उदीम आवत रहिथे. सीमा ह अपन ममा के बेटी ल घलो बला लिस. 'अरे नीता चल आज हमर बोईर के रूख तरी खेले जाबो. ' नीता घलो ह लुक लुकाय रहय खेले बर.

दूनो संगी बोईर रूख के तरी म आ गीन. नीता कहिस 'अब काय करबोन रे सीमा..... '

सीमा ह अबड़ चंचल बुध के लईका रहिस. ओ हर कहिस 'चल आज बोईर गुठलू बिनबो, अऊ ओकर चिरौंजी निकालबोन, जब एक कटोरी हो जाही त गुर डारके लाड़ू बनाबो. '

नीता कइथे, 'जमो बोईर ह तो झर गे हे रे.... ऊपर-ऊपर म सुखड़ी -सुखड़ी कस बाँहचे हे. मैं रूख म चढ़ के हलाहू अऊ तैं बिनबे. '

नीता ह रूख म चढ़के हला डारिस. झट-पट बने एक सुपेली अकन सुक्खा-सुक्खा बोईर अऊ गुठलू किंदर -किंदर के खोज- खोज के बिन डारिन.

तीर - तखार ले पथरा ले आनिन अऊ ठुक- ठुक, कुच- कुच के चिरौंजी ल कटोरी म धरत गीन. बीच बीच म सुखड़ी-सुखड़ी बोईर र खावतो जाय. एती बबा ह ठुक-ठुक के अवाज ल सुनिस,' काय ठुक-ठुक करथे लईका मन रे, घर म रहिबे मँझनिया कहूँ झन जाबे बेटी कहे रहें त कले चुप भाग गे हे. ' ओ हर अपन ललहूँ रंग के पटकू ल मुड़ी म ओढ़के बारी डहर हाँक पारत गिस.

' नोनी ओ... सीमा, ए सीमा अरे, घाम म का कुचरत हो लईका हो..... ' सीमा ह ओतके बेरा एक ठन बोईर ल मुँह म भरे रहय. बबा के हाँक परई ल सुनिस त हड़बड़ी म गुठलू ल लील डारिस. अब बोईर के गुठलू ह ओकर घेंच म अरहज गे.

ओक् ओक् ओकयाईस तभो नई निकलिस. न एती जावय न ओती जावय. सीमा के मुँह कान ललिया गे रहय. बबा घलो हड़बड़ा गे मोर लईका ह कैसे अटक घलिस. पीठ ल सारय नरी ल सारय. ओमन के टुड़बुड़ - टुड़बुड़ ल सुन के बड़का दाई घलो आ घलिस.

का होगे? एकरे बर कईथौं मँझनिया झन जाये करो हिके एक राहपट कस के चेथी ल मारिस. त गुठलू ह मुँह कोती उगला गे.

सबो के हाय जी लाईस. ओ दिन के बाद सीमा ह मँझनिया के बेरा नइ जावय. घर म बबा अऊ बड़का दाई करा किस्सा धसुनय.

झन लेवव परीक्षा दाई ददा के

रचनाकार- सोमेश देवांगन

आज के बेरा अइसन हावय के कब कोन मनखे ला का हो जाहि कोनो नइ बता सकय. सबो डाहर बन्द हावय मनखे मन बीमारी ले मरत हावय. चारो कोती हाहाकार मचे हावय. तेन बेरा हमर मन के दाई ददा हर अपन पेट ल पोचवा कर के पानी पी के भूख ल मिटावत हे अउ अपन हिस्सा के खाना ला हमर लइका मन ल भूख झन मरय कइके खवावत हे, ओ दाई ददा मन भी कइसे कर के साग पान दार चाउर लावत हे बड़ भागी हे वो लइका मन जेन ल अइसन दाई ददा मिले हवय फेर इहि बेरा मा अइसन लइका घलो हावय जेन ये विपत के बेरा म घलो दाई ददा ल परेशान करत हावय, की हमन ये साग ल नई खावन, ये भात ल बघारे काबर नही, अइसन परीक्षा झन लेवव बेटा कइ के ओ मन ला दाई ददा मन समझावत हे, कि बेटा अइसन बेरा आय हावय के कतको ला सुक्खा रोटी घलो नइ मिलत हे ता कोनो ला चाउर देखे ला नइ मिलत हे. ता जेन हावय खा लेवव अतका सुन के लइकामन अउ अपन दाई ददा ला आंखी देखावत हे कि हमला समझावत हस ता वो लइका मन बर मोर ये कहना हावय की बढ़ भागी हव लइका हो जेन तुंहर दाई ददा भगवान बन के तुमन ला खाना खवावत हे. येला सोचव के अपन दाई ददा के कर्जा ला कइसे उतारहु. ता भाई ये विपत के बेरा मा अपन दाई ददा ला परेशान झन करव अइसन परीक्षा कभू झन लेहु कइसनहो बेरा राहय अउ अतका सोच लेवव के मोर दाई ददा मोला दुनिया के सब सुख देवत हे मोर दाई ददा हर मोर भगवान हरय अउ अगर मोर भगवान मोर से रिसा जाहि त मोला कभू कुछु सुख नई मिलय कर के.

आखिरी सहारा.

रचनाकार- द्रोणकुमार सार्वा

शहर ले गाँव -गली कोती कोरोना के रूप बढ़े लगिस. सरकार कतको सावचेत करिन फेर मनखे के भीड़ कहाँ रुकिस. अब अस्पताल कोती भीड़ बढ़े लगिस. मरीज मन के बढ़े ले अस्पताल म जगा कम पर लगिस. आखिर मजबूरी म सरकार ल लॉक डाउन लगाए ल परगे. काम-काज बन्द परगे.

रामलाल ल गाँव ले शहर आये थोरिक दिन होवे रहिस. पाछू साल के लॉक डाउन म उँकर कस ह टूटगे रहिस. आज कमा आज खा कस उकर हाल हो गए रहिस. दुब्बर बर दू आषाढ़ कस बिपत के बेरा आए रिहिस. घर म अठोरिया पन्दरहि कइसनो करके राशन पानी चलिस. आखिर म भुखमरी के चिंता सताए लगगे.

गांव ले शहर आये थोरकिन दिन तो होवय हे. फेर मदद बर कोन ल गोहरावव काकर तीर जावव. मने मन रामलाल ल चिंता के बादर घेर लिस. फेर गाँव के सुरता ओला आये लगिस. पाछू बछर जब लाकडॉउन रहिस त कइसे घर म आरा पारा अउ संगी मितानी के मया के चूल्हा उपास के बेरा नइ बने रहिस. पारा परोस म दार-पहित,खुला-खाली,सुकसा भाजी,अउ बारी-बखरी के साग भाजी मिल जावय फेर इहा कहा ले. गाँव के जिनगी के सुघर सुरता करत मन मसोसत रहिस. नान्हे-नान्हे लइका लोग के मुंह ल देख चिंता भीतर ले सतावत रहिस.

रामलाल के गोसईन ह कहिस ' संझा बेरा बर दार चाउर नइहे कइसे करव. ' एकर ले पहिली रामलाल कहीं कतिस भीतरी डहर कहि फूटे कस लगिस. ओकर बेटा गोलू ह अपन गुल्लक ले सिक्का मन ल निकाल के बापू ल दिस अउ कहिस बाबू बबा दाई अउ मन ह मोला चिल्हर पइसा ल देवे तेला गुल्लक म भरे हव. बापू जब तुंहर तीर हो जाहि तब मोर बर कुछु बीस दुहु.

रामलाल के अक्का आइस न बक्का वो बड़का सोच म डूबके अउ अपन गोलू ल काबा म पोटार के आँखी डबडबा गे. विपत के बेरा म आखिरी सहारा कस गोलू के समझदारी के गरब रहिस अउ गोलू के गुल्लक म दाई ददा के मया के छाँव दिखिस. वो आखरी सहारा ले राशन जुगाडीन अउ बिहाने अपन माटी,अपन गाँव बर निकलगे.

Visitor No. : 6728086
Site Developed and Hosted by Alok Shukla