कहानियाँ

पंचतंत्र की कथाएँ- हाथी और चूहे

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किसी समय में किसी नदी के तट पर एक बड़ा नगर बसा हुआ था. नगर बहुत संपन्न था. वहाँ के लोग बहुत सुख से अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे. पर कहावत है न, 'सब दिन जात न एक समान'. वहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उस वर्ष बहुत वर्षा हुई. नदी ने अपना रास्ता बदल दिया. अब नगर से बहुत दूर बहने लगी.

धीरे-धीरे नगर के सभी जल स्रोत सूख गए. लोग इस नगर को छोड़ दूसरे नगरों और ग्रामों में बस गए. एक-दो वर्षों में नगर विरान खंडहरों में बदल गया. अब इन खंडहरों में चूहे रहने लगे.

इस नगर से कुछ ही दूर एक घना जंगल था. जंगल में और सब जानवर तो थे ही, हाथी भी बड़ी संख्या में रहते थे. महाकाय नाम का विशाल हाथी इनका नेता था. नगर के आस - पास पड़े सूखे का प्रभाव जंगल पर भी पड़ने लगा था. जंगल के सरोवर और तलैये धीरे-धीरे सूखते चले गए. हाथियों के कई छोटे बच्चे पानी के अभाव में जीवन न बचा सके.

एक बार हाथियों का दल पानी की खोज में जंगल से निकला और उस नगर से होते हुए गुजरा. नगर को पार करने पर उन्हें सँयोग से एक सरोवर मिला. गहरा होने के कारण वह पूरी तरह सूख नहीं पाया था. हाथियों का दल अपनी इस खोज से बहुत आनंदित था.

अब वे प्रतिदिन जंगल से निकलते और उस वीरान पड़े नगर से होते हुए सरोवर तक आते और फिर वापस जंगल लौटते. उनकी इस आवाजाही से खंडहरों में रहने वाले चूहे कुचल-कुचल कर मरने लगे.

इन चूहों का एक राजा था तीव्रदंत. उसे यह सब देख कर बहुत दुख होने लगा. अपनी प्रजा को इस तरह मरते देखना उससे सहन नहीं हो रहा था. उसने हाथियों के दल के नेता से मिलना निश्चित कर लिया.

अगले ही दिन वह अपने कुछ साथियों को लेकर जंगल में उस स्थान पर पहुँचा जहाँ हाथियों का दल रहता था. एक बड़ी चट्टान पर खड़े होकर उसने अपने हाथ जोड़ लिए और कहा, 'हे महाबली गजराज ! मैं एक प्रार्थना लेकर आपके पास आया हूँ.'

महाकाय ने उसे देखा और उसके निकट आकर कहा, 'कहो, निर्भीक होकर अपनी बात कहो.'

तीव्रदंत ने बड़ी ही विनम्रता से अपनी पीड़ा व्यक्त की और उनसे अपना रास्ता बदलने का अनुरोध किया.

महाकाय दयालु था. वह समझता था अपनों की मृत्यु कितनी पीड़ादायक होती है. उसने तीव्र दंत की बात मान ली.

तीव्रदंत ने आभार व्यक्त करते हुए कहा 'आपका बड़ा उपकार है. आप सब बलवान और समर्थ हैं. आपको किसी की सहायता की आवश्यकता संभवत कभी न पड़े. फिर भी मैं वचन देता हूँ कि यदि कभी मैं आपके काम आ सकूँ तो अवश्य उपस्थित होऊँगा.'

कुछ काल व्यतीत हुआ. एक बार उस जंगल में शिकारियों का एक दल पहुँचा. वे अपने राजा के लिए हाथियों को पकड़ने के लिए आए थे. उन्होंने धीरे-धीरे बहुत से हाथियों को अपने बड़े-बड़े जालों में फंसा लिया.

महाकाय भी मोटी रस्सी से बांध लिया गया था. बहुत प्रयत्नों के बाद भी वह स्वयं को और अपने किसी सदस्य को बंधनों से छुड़ा न सका. ऐसे में उसे तीव्रदंत का स्मरण हो आया.

उसने पूरे बल से चिंघाड़ना आरंभ किया. उसके साथी भी साथ-साथ चिंघाड़ने लगे. निस्तब्ध रात्रि में उनकी य़ह करुण पुकार दूर तक गूंजने लगी. यह आवाज तीव्रदंत ने सुन ली. उसने अविलंब समझ लिया कि हाथियों का दल अवश्य ही किसी संकट में है. सैकड़ों चूहों को अपने साथ लेकर वह जंगल की ओर दौड़ पड़ा.

कुछ ही समय में वे सभी हाथियों के समीप पहुँच गए.

उन्होंने देखा कि उनका अनुमान सही था. बिना विलंब किए अपने साथियों की सहायता से उसने सभी जाल और और रस्से काट डाले.

महाकाय और उसके साथियों ने बड़ी कृतज्ञता व्यक्त की. महाकाय ने कहा, 'मित्र! इस संकट की घड़ी में आपने हमारे प्राणों की रक्षा की है. सच है, किसी को भी छोटा समझ कर उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती. पता नहीं किसे कब किसकी आवश्यकता पड़ जाए.'



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सूरज का घमंड

रचनाकार- बद्री प्रसाद वर्मा अनजान

ego of sun

बहुत साल पहले की बात है. सूरज और बादल में गहरी दोस्ती थी. दोनो एक साथ रहते और घुमते थे. एक दिन बादल और सूरज में छोटा बडा होने की बात को ले कर झगड़ा हो गया. सूरज बोला मैं तुमसे बड़ा हूँ क्यों कि मैं सारी धरती के जीव जन्तुओ पेड़-पौधों और मनुष्यों को उर्जा देता हूँ. मैं सबको दिन का उजाला देता हूँ. अगर मैं उगना बंद कर दूं तो सारी पृथ्वी पर त्राहि-त्राहि मच जाएगी. सूरज कह कर खामोश हो गया. बादल की बारी आने पर उसने कहा मैं अपने आप पर घमंड नही करता हूँ. मैं अगर न रहूँ तो सारी पृथ्वी तुम्हारी गर्मी से जल मरेगी मैं पथ्वी के सारे जीव- जन्तुओं, पेड़- पौधों और मनुष्यों को जल दे कर नया जीवन देता हूँ, पर बड़ा होने का घमंड नही करता हूँ. यह कह कर बादल वहां से चला गया. अगले दिन बादल ने बिना किसी को कुछ बताए पूरे आकाश को ढंक लिया, अब सूरज परेशान हो जाता हैं, बोलता है बेहद अफसोस है कि मैं अपने ही दोस्त बादल से झगड़ा कर बैठा. मैं अपना बड़ा होने की बात वापस लेता हूँ तथा वादा करता हूँ कभी बड़ा होने का घमंड़ नही करूंगा. जाओ बादल से कह दो हमारे राह से हट जाए. हवा ने आ कर जब बादल से सूरज की बात कही तो बादल हंसते हुए बोला मुझे खुशी है कि सूरज का घमंड टूट तो गया. इतना कह कर बादल आकाश से हट गया. फिर बादल और सूरज में दोस्ती आज तक न हो सकी.



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अब मीना भी स्कूल जाती है

रचनाकार- सुरेखा नवरत्न

ab mina

पाँच साल की मीना बहुत प्यारी बच्ची है. मीना के माता-पिता काम करने गाँव से बाहर गए हुए हैं. मीना अपनी दादी के साथ गाँव में रहती है. मीना अपने घर के पास चबूतरे पर खेल रही थी दिन के लगभग दस बजे थे, बहुत सारे बच्चे अपना-अपना बस्ता लिए स्कूल जा रहे थे. मीना खड़ी उन्हें देख रही थी. एक बच्ची ने कहा- मीना तुम भी स्कूल चलो, अपनी दादी से कहो कि स्कूल में तुम्हारा भी नाम लिखवाएँ. मीना ने सिर हिलाकर हाँ में जवाब दिया.

मीना दौड़ते हुए दादी के पास गई, और बोली- दादी मैं भी स्कूल जाना चाहती हूँ. मेरे सारे दोस्त अब स्कूल जाने लगे हैं और मैं अकेली रह जाती हूँ. मुझे भी स्कूल जाना है.

दादी- नहीं मीना, तुम स्कूल नहीं जा सकती, हमारी बिरादरी में किसी भी लड़की को स्कूल जाने की अनुमति नहीं है.

मीना को बहुत बुरा लगा और वह उदास हो गई. हर रोज मीना स्कूल जाते हुुए बच्चों को देखा करती. एक दिन वह बच्चों के पीछे- पीछे स्कूल तक पहुँच गई. सभी बच्चे कक्षा के अंदर चले गए और मीना बाहर दीवार के पीछे बैठकर गुरूजी को पढ़ाते हुए सुन रही थी. पढ़ाई खत्म करके गुरूजी जब कक्षा से बाहर आए तो उसनें मीना को वहाँ बैठे हुए देखा.

गुरूजी को देखकर मीना उठकर भागने लगी.

गुरूजी- अरे बेटा! तुम कौन हो? तुम्हारा क्या नाम है?

मीना- नहीं गुरूजी! मैं यहाँ पढ़ती नहीं हूँ, मुझे माफ़ कर दीजिए, मुझे यहाँ नहीं आना था. ऐसा कहकर वह डरकर रोने लगी.

गुरूजी- अरे बेटा डरो मत, मैं तुम्हें कुछ नहीं करूँगा. गुरूजी ने प्यार से कहा

मीना- जी, गुरूजी.

गुरूजी- बताओ तुम्हारा क्या नाम है? और तुम स्कूल पढ़ने क्यों नहीं आती हो?

मीना- गुरूजी! मेरा नाम मीना है, मैं पढ़ना चाहती हूँ लेकिन मेरी दादी कहती है कि हमारी बिरादरी में किसी भी लड़की को पढ़ने का अधिकार नहीं है और इसलिए वह स्कूल में मेरा दाखिला नहीं कराती है.

गुरूजी सोच में पड़ गए और वह मीना से बोले, चलो मैं तुम्हारी दादी से मिलना चाहता हूँ. मीना गुरूजी को दादी के पास लेकर गई. गुरूजी को मीना के साथ देखकर दादी को बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने गुरूजी से कहा- क्या हुआ गुरूजी? क्या मीना ने कोई गलती की है?

गुरूजी ने कहा- माताजी मीना ने कोई गलती नहीं की है गलती तो आप कर रहीं हैं. माताजी आजकल समय बदल गया है, लड़कों और लड़कियों में कोई अंतर नहीं है. लड़कियों को भी लड़कों की तरह हर चीज का अधिकार है. किसी भी वर्ग, बिरादरी की लड़कियों के पढ़ने लिखने पर कोई पाबंदी नहीं है, शिक्षा का अधिकार हर किसी को है. आप कल मीना को स्कूल लेकर आना. अब मीना अपनी सहेलियों के साथ पढ़ाई करेगी. ऐसा कहकर गुरूजी घर चले गए.

अगले दिन दादी मीना को लेकर स्कूल आईं और उसका दाखिला करवा दिया. अब मीना अपने दोस्तों के साथ रोज़ स्कूल जाती है और वह अपनी कक्षा की होशियार और होनहार छात्रा है.



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लूट कर खाने का मजा

रचनाकार- बद्री प्रसाद वर्मा अनजान

lut kar khane ka mja

टनटन बंदर से सारे वनवासी बहुत परेशान थे. वह आए दिन जानवरों के खाने की चीजें लूट कर खा जाता था. एक रोज बंटू खरगोश अपने जन्म दिन पर कालू हाथी से केक बनवा कर घर ले जा रहा था. उसी वक्त रास्ते में उसकी भेंट टनटन से हो गई. टनटन बंटू को रोक कर पूछ पड़ा. बताओ इस डिब्बे में क्या ले जा रहे हो? आज मेरा जन्म दिन है. इस डिब्बे में मैं अपने जन्म दिन का केक ले जा रहा हूँ. अच्छा तो आज तेरा जन्म दिन है. मगर मैंने तो आज तक अपना जन्म दिन नही मनाया. आज मैं अपना जन्म दिन मनाऊंगा. इतना कह कर टनटन बंटू से केक का डिब्बा छीन कर बोला मैं आज इसे खाऊंगा. तुम दुसरा केक खरीद कर घर ले जाओ. इतना कह कर टनटन केक का डिब्बा ले कर पेड़ पर चढ गया. फिर उसे खेाल कर खाने लगा. बंटू को दूसरा केक खरीद कर ले जाना पड़ा. एक रोज ब्लैकी भालू एक डिब्बे में कुछ ले कर जा रहा था. उसी समय टनटन भी वहां आ गया. टनटन ने ब्लैकी भालू को रोक कर पूछ पडा ब्लैकी इस डिब्बे में क्या ले जा रहे हो? गरम गरम रस गुल्ले. रसगुल्ले का नाम सुनते ही टनटन के मुंह में पानी भर आया. वह बोला आज मैं यह रसगुल्ला खाकर ही रहूंगा. इतना कह कर टनटन ब्लैकी से रसगुल्ला का डिब्बा छीनने लगा. यह देख ब्लैकी बोला रसगुल्ला हमसे छीन क्यों रहे हो लो यह डिब्बा और प्रेम से रसगुल्ला खाओ. इतना कह कर ब्लैकी ने रसगुल्ला का डिब्बा टनटन को पकड़ा दिया. टनटन रसगुल्ला का डिब्बा ले कर पेड़ पर चढ़ गया.



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ओवर कांफिडेंस

रचनाकार-आशा उमेश पान्डेय

over confidance

गगन और अमन एक ही कक्षा में पढ़ते थे. गगन पढ़ने में थोड़ा कमजोर था पर उसका व्यवहार सरल था. अमन पढ़ने में तो होशियार था पर बहुत अहंकारी था. एक दिन लघु अवकाश में अमन ने गगन से गणित का एक प्रश्न पूछा, गगन उसका जवाब नहीं दे सका तो अमन ने अन्य साथियों के सामने गगन का बहुत मजाक उड़ाया और कहा कि अगर तुझे इतने सरल से सवाल का जवाब नहीं आता तो तू पढ़ाई छोड़ दे और जाकर कुछ काम कर. मांँ बाप के पैसे क्यों बर्बाद कर रहा है. गगन को बहुत दुख हुआ पर उसने उस समय कुछ भी नहीं कहा. पर अब वह पूरी मेहनत से पढ़ाई करने लगा.

लगभग 6 माह बाद वार्षिक परीक्षा हुई. जब परिणाम आया तो गगन कक्षा में प्रथम स्थान पर रहा और अमन दूसरे नम्बर पर आया. अमन को अब अपने गलत व्यवहार के कारण बहुत आत्मग्लानि और पश्चाताप हुआ.

अमन, गगन के पास गया और उसने अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगी. उस समय अमन को महसूस हुआ कि ओवर कांफिडेन्स में कभी भी नही रहना चाहिए, हमेशा सोच समझ कर ही बोलना चाहिए. ओवरकॉन्फिडेंस से काम बिगड़ता है बनता नहीं है.



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दशहरे का मेला

रचनाकार- रंगनाथ द्विवेदी

dussehra mela

बंटी ने अपने दोस्त चुन्नू से बात करते हुए कहा कि तुम्हें पता है चुन्नू, इस बार हम सभी लोग दशहरे की छुट्टियाँ बिताने कहाँ गए थे? चुन्नू बोला नहीं पता. बंटी बोला,- हम लोग इस बार दशहरे की छुट्टियों में दादाजी के पास गाँव गए थे. हमारे दादाजी के गाँव का नाम रतनूपुर है.

वहाँ दशहरे पर विशाल मेला लगता है, जिसे देखने बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं, हमें भी दादाजी मेले में लेकर गए थे. अगर मेरे साथ तुम भी होते तो तुम्हें भी डर से नानी याद आ जाती.

अच्छा चुन्नू ने चौंकते हुए कहा, ऐसा क्या देख लिया तुमने मेले में?

बंटी ने एक झुरझूरी सी ली और माथे पर बह आए पसीने को रुमाल से पोंछते हुए बोला कि, उस मेले में जो व्यक्ति रावण बना हुआ था न, वह इतना डरावना लग रहा था कि पूछो मत. मै तो उसे देखकर बुरी तरह डर गया था और थरथर काँपने लगा था. अगर साथ में मेरे दादाजी न होते तो मैं वहीं डरकर बेहोश हो जाता.

उस समय मैंने दादाजी की अंगुली कसकर पकड़ ली थी और उनके पीछे छिप गया था. दादाजी मेरी हालत देखकर समझ गए कि मैं क्यों डर रहा हूँ. फिर उन्होंने उस डरावने रावण को अपनी कड़क और रोबदार आवाज़ में कहा कि रावण तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुमने मेरे सामने मेरे बच्चे को डरा दिया, चल जल्दी से मेरे पोते से माफी माँग नही तो आज तेरी खैर नहीं.

फिर तो मैं जिस रावण से डर रहा था, उसी रावण के सामने ऐसे तनकर खड़ा हो गया कि जैसे मैं उससे कह रहा हूँ कि, तुझमे हिम्मत है तो मुझे डराकर दिखा, फिर उस डरावने रावण की मेरे दादाजी के सामने पूरी हेकड़ी निकल गई . वो अपने हाथ जोड़कर, बोला कि, मुझे माफ कर दो बेटा.मैं अब तुम्हें ही नही बल्कि इस पूरे मेले में किसी भी बच्चे को नही डराऊँगा. मैंने अपने दादाजी की तरफ ऐसे देखा जैसे उनसे कह रहा हूँ कि, माफ कर दो इस बेचारे रावण को दादाजी.

मेरे दादाजी अपनी जवानी के दिनों में बहुत बड़े पहलवान थे. उनका उस समय पहलवानी में बड़ा नाम था. कई नामचीन पहलवानो को उन्होंने धूल चटाई थी, इसलिए उनकी रतनूपुर में बड़ी इज्जत है. इसी इज्जत और डर की वजह से ही तो उस रावण ने मुझसे मेले में माफी माँगी थी. जबकि उस बेचारे की कोई गलती नहीं थी. उसने मुझे डराया भी नही था वह तो मैं ही उसको देखकर डर गया था.

रावण के माफी माँग लेने के बाद मुझे दादाजी मेले में उस तरफ लेकर गए जहाँ गरमा-गरम जलेबी और खिलौनों की दुकानें लगी थीं. हमने और दादाजी ने खूब मजे से गरमगरम कुरकुरी जलेबियाँ खाईं. इसके बाद उन्होंने मुझे खिलौनों की दुकान से कई सारे खिलौने भी दिलवाए.

दादाजी बोले तो आओ अब हम लोग घर चलें क्योंकि अँधेरा बहुत हो गया है . मैंने दादाजी की अंगुली पकड़ी और हम घर की ओर चल पड़े रास्ते भर मुझको दादाजी यह समझा रहे थे कि, बेटा! हमें इतनी जल्दी किसी भी बात या घटना से डरना या घबराना नहीं चाहिए, बल्कि हमें उस परिस्थिति का धैर्यपूर्वक और बहादुरी से मुकाबला करना चाहिए.

तुम जिस रावण को मेले में देखकर इतना डर गए थे, वो कोई सचमुच का रावण नहीं था वो तो नकली रावण था. वह पिछले18 वर्षो से इस दशहरे के मेले में रावण बनता आ रहा है. वह इतना डरावना या अट्टहास करने वाला आदमी नही बल्कि वह तो गाँव का सीधा-सादा व्यक्ति गौरी शंकर है. जब दादाजी जी ने गौरी शंकर कहा तो मैं बोल पड़ा अरे! दादाजी वही गौरी शंकर न जिनसे आपने मुझे परसों मिलवाया था? अरे! वे बेचारे तो कितने सीधे-सादे हैं. मैं उन्हें मेले में असली रावण समझकर डर गया था. पर अगर सच मे असली रावण भी होता तो वो भी उतना डरावना न लगता जितना की गौरी शंकर दादा रावण के रूप मे लग रहे थे. मैं उनको उस रूप मे पहचान ही नहीं पाया था.

कोई बात नहीं बेटा गौरी शंकर बहुत बढ़िया कलाकार है. अगर कोई उनका घर संभालने वाला होता तो आज दशहरे के मेले मे रावण बने गौरी शंकर हिंदी सिनेमा में बहुत बड़े और चर्चित हीरो होते, गरीबी के चलते वे वहाँ तक नहीं पहुँच पाए.लेकिन जानते हो बंटी कि कितने लोग तो केवल इसलिए दूर-दूर से इस दशहरे के मेले में आते हैं कि वे इस मशहूर कलाकार को एक बार देख सकें.

तब तक हम घर पहुँच गए थे. मैंने सोचा कि काश! हमारा ये घर थोड़ी और दूर होता जिससे कि मैं दादाजी से ढ़ेर सारी बातें कर पाता.

मैं जब तक गाँव मे रहा अपने दादाजी के पास ही सोता था. वे मुझे ढ़ेर सारी अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाते थे. सच! चुन्नू जब से हम अपने गाँव से दशहरे की छुट्टियाँ बिताकर लौटे हैं तबसे मेरा मन इस शहर या स्कूल की पढ़ाई में नही लग रहा.काश! ऐसा होता कि मैं हर महीने अपने दादाजी के पास जा पाता.

तभी स्कूल की घंटी बजी और बंटी, चुन्नू के साथ अपने क्लासरूम की तरफ चल पड़ा.



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दो सहेलियाँ

रचनाकार- लोकेश्वरी कश्यप

do sahili

वैशाली और गरिमा आज सालों बाद तीज के अवसर पर एक दूसरे से मिली, जब दोनों बाजार गई थी अपने-अपने भाइयों के साथ अपनी पसंद की साड़ी खरीदने. वैशाली गरिमा को देखते ही पहचान गई. उसने उसे आवाज दिया, ' हैलो गरिमा. 'गरिमा ने पलटकर देखा, अरे ये तो वैशाली है. वह बहुत खुश हो गई अपनी प्यारी सखी को देखकर. उसने मुस्कुराके उसे कहा, 'हैलो वैशाली! कैसी हो?' गरिमा ने अपने भाई का परिचय वैशाली से कराया. 'गरिमा ये मेरे बड़े भैया हैं.' वैशाली- 'नमस्ते भैया!' भैया जी ने मुस्कुराकर हाथ जोड़े और कहा - 'नमस्कार. ' दोनों सहेलियां साथ में अपने लिए साड़ी खरीदने लगीं.

वैशाली को एक सुन्दर-सी बनारसी साड़ी पसंद आई, जो बहुत भारी और काफी महंगी थी. उसके साथ उसके भैया थे जो कुछ चिंतित व असमंजस में थे. खैर इधर गरिमा ने भी अपने लिए एक सुंदर-सी साड़ी खरीदी, जो शायद वैशाली को पसंद नहीं आई. पर गरिमा को टोकना उसे अच्छा नहीं लगा. आखिर दोनों इतने ज्यादा खुश जो थे. दोनों सहेलियाँ तीज मनाकर अपने-अपने ससुराल चली गई. दोनों बहुत खुश थी.

वैशाली जब अपने ससुराल वापस जा रही थी तो रास्ते में उसे गरिमा अपने भैया के साथ दिखी. वैशाली ने ड्राइवर से कार रोकने के लिए कहा और वह कार से उतरकर गरिमा के पास आई, 'क्या हुआ गरिमा?'

'यहाँ क्यों ख़डी हो?'

गरिमा ने कहा, 'शायद भैया की गाड़ी के इंजन में कचड़ा आ गया है. अचानक बंद हो गई. वह परेशान-सी हो रही थी. '

वैशाली ने कहा, 'तु मेरे साथ चल. मैं तुझे छोड़ देती हूँ. भैया अपनी गाड़ी बनवाकर घर चले जायेंगे.'

गरिमा ने कहा, 'नहीं री, बस भैया ठीक कर लेंगें. तू परेशान ना हो.'

भैया ने कहा, 'तुम दोनों वहा पेड़ की छाया में बैठो तब तक मैं इसे ठीक करता हूँ.'

गरिमा ने कहा - 'ठीक है भैया.'

वैशाली ने कहा-'भैया! क्यों ना हम दोनों मेरी गाड़ी में बैठें.'

भैया- 'हाँ! हाँ! क्यूँ नहीं.'

दोनों सहेलियाँ वैशाली की गाड़ी में बैठ गई.

वैशाली- 'गरिमा! तुम कितनी मूर्ख हो गई हो शादी केबाद.'

गरिमा- 'क्यूँ, क्या हुआ?'

वैशाली- 'हाथ आये अवसर को कोई कैसे छोड़ सकता है?'

गरिमा- 'क्या मतलब? मैं कुछ समझी नहीं.'

वैशाली- 'जब तीज पे तेरे भैया तुझे अपनी पसंद की साड़ी लेने बोले तो तू कोई महंगी और कीमती साड़ी ले सकती थी. तीज साल में एक बार ही तो आता है.'

मुझे देख. मेरे भैया जो साड़ी मेरे लिए लाये थे मैंने तो उनके मुँह पर मार दिया कि इससे बढ़िया साड़ी तो हमारी नौकरानी पहनती है. मैंने तो साफ-साफ उनसे कह दिया था मुझे तो मेरे पसंद की ही साड़ी लेनी है वो भी बढ़िया वाली.

हाँ! गरिमा मुस्कुरा के रह गई. उसे उस दिन वैशाली के भैया का फीका पड़ा चेहरा याद आ गया.

गरिमा- 'देख वैशाली तीज साल में एक बार आता है.'

गरिमा ने आगे कहना शुरु किया. इसका इंतजार हम शादीशुदा लड़कियों और हमारे मायके में हर किसी को होता है. तो क्या हम महंगी साड़ी के पीछे उन सारी खुशियों को बर्बाद कर दें? '

वैशाली-'क्या मतलब! मैं कुछ समझी नहीं. '

गरिमा- 'देख वैशाली, बुरा मत मानना,. तुम बताओ, क्या हम बहने अपने मायके इसलिए लिए आती है कि हम अपने भैया और मायकेवालों पे बोझ बन जाये.'

वैशाली- 'तु कहना क्या चाह रही है?'

गरिमा - 'तुझे मेरी साड़ी बहुत हल्की और सस्ती लगी है ना?'

वैशाली- ' हाँ!'

गरिमा- 'पर ये साड़ी मेरे लिए बहुत कीमती है.'

वैशाली- ' वो कैसे?'

गरिमा- 'क्योंकि इसमें मेरे भैया का प्यार, दुलार बसा है, मेरे मायके की याद जुड़ गई है.'

गरिमा अपनी ही धुन में बोले जा रही थी. जाने कितनी कोशिशों के बाद बचत कर करके मेरे भैया ने मेरे लिए तीज के शगुन का इंतजाम किया होगा. मेरे कहने से वो मुझे महंगी साड़ी दें भी देते पर फिर वे उसके लिए और भी अपने कुछ अरमानों का गला घोंटते या अपने बीवी बच्चों की आवश्यकताओं में कटौती करते, जो उनके लिए तकलीफदेह होता. साड़ी का क्या है? सस्ती हो या महंगी वो तो फट ही जायेगी. पर हमारे रिस्तो में कड़वाहत नही आनी चाहिए.'

यह तीज का उत्सव हमारे जीवन में मिठास घोलने वाली होनी चाहिए ना कि कड़वी यादें दे जाये.

वैशाली- 'मुझे माफ कर दे गरिमा मैंने तुझे मूर्ख कहा. अरे मूर्ख तो मैं थी जो इतनी-सी बात समझ ना पाई.'

गरिमा- 'देख वैशाली बहन!तीज की वजह से या कोई और त्यौहार की वजह से हमारे अपनों के साथ प्रेमभरे रिस्तो में कभी भी कड़वाहत नहीं आनी चाहिए. इन्ही रिश्तों में ही तो हमारी जिंदगी में खुशियाँ है ना कि चीजों से.'

दोनों सहेलियों की आँखे नम हो चली थी. दोनों एक दूसरे का हाथ मजबूती से थामे बैठीं थी. वैशाली की आँखों में पश्चाताप के आंसू देखकर गरिमा खुश थी कि उसे अपनी गलती समझ में आ गई थी.

कुछ देर बाद गरिमा के भैया भी अपनी गाड़ी बनाकर आ गए. गरिमा अपने ससुराल चली गई और वैशाली वापस अपने मायके अपनी गलती सुधारने के सुखमय उम्मीद के साथ.


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चतुर गाड़ीवान

रचनाकार- अर्चना त्यागी

chatur gadiwan

एक बहुत बड़े विचारक थे. बड़े बड़े शहरों,गाँवों, कस्बों, सभी स्थानों पर उनके प्रवचन हुआ करते थे. लोग आनंदित होकर उन्हें सुनने आते थे. वे जहाँ भी जाते, घोड़ा-गाड़ी से ही जाते. उनका गाड़ीवान पढ़ा लिखा तो नहीं था, पर  आज्ञाकारी बहुत था. यही कारण था कि सालों से उनके साथ ही था. एक बार एक बड़े शहर में उनका प्रवचन होने वाला था. गाड़ीवान हर बार की तरह साथ ही था. अचानक विचारक महोदय की तबीयत बिगड़ गई. आयोजक बड़े परेशान. दूर-दूर से लोग प्रवचन सुनने आए थे. बहुत बड़े-बड़े ओहदे वाले लोग भी थे. आयोजक विचारक महोदय के पास आए और उन्हें अपनी समस्या बताई. वो भी सोच में पड़ गए. दस्त होने के कारण शरीर निढाल हो गया था. उल्टियां होने से कमजोरी अधिक थी. जबान भी लड़खड़ा रही थी. उपचार चल रहा था किंतु जल्दी सुधार की उम्मीद नहीं थी. गाड़ीवान उनके पास ही था. आयोजक चलने लगे तो गाड़ीवान ने धीरे से कहा, 'मुझे सर के सभी प्रवचन जबानी याद हैं. यदि आप अनुमति दें तो मैं उनका एक प्रवचन मंच पर जाकर बोल सकता हूं.' आयोजक इस मुश्किल घड़ी में भी जोर से हँस पड़े.' तुम ठहरे एक अनपढ़ घोड़ा हांकने वाले. ज्ञान की बातें तुम्हारी समझ से परे हैं. मंच पर घंटों भाषण देना तुमसे नहीं हो पाएगा. क्यों हमारा मज़ाक बनाना चाहते हो ?

विचारक महोदय शांति से सब सुन रहे थे. उन्होंने हाथ के इशारे से आयोजकों को रोका और धीरे से कहा, 'मेरा गाड़ीवान पढ़ा लिखा नहीं है, मैं जानता हूं किंतु यह सब जगह मेरे साथ जाता है और मेरी सभी बातें ध्यानपूर्वक सुनता है.अच्छा होगा यदि इसे बोलने का अवसर दे दिया जाए.'

आयोजकों ने एक दूसरे की ओर देखा. वे जानते थे कि उस शहर में इससे पहले विचारक महोदय का कोई प्रवचन नहीं हुआ था. लोग उन्हें चेहरे से नहीं पहचानते थे. हाँ, उनके प्रवचन सबने सुने थे. विचारक महोदय के एक जोड़ी कपड़े गाड़ीवान को पहना दिए. प्रवचन हुआ और लोग बहुत प्रभावित हुए. कुछ लोग व्यक्तिगत समस्याओं के हल जानना चाहते थे. गाड़ीवान ने चतुराई से कहा 'इन प्रश्नों के उत्तर तो मेरा गाड़ीवान भी दे सकता है. बहुत सरल प्रश्न हैं और मेरा गाड़ीवान बहुत चतुर है.' विचारक महोदय गाड़ीवान के कपड़े पहनकर तब तक मंच के पीछे आ गए थे. आयोजक तो हैरान थे ही,विचारक महोदय भी आश्चर्य चकित थे. उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि गाड़ीवान के रूप में ऐसा साथी उन्हें दिया है. आयोजकों ने गाड़ीवान को नमस्कार किया उनके अदभुत ज्ञान के लिए जो उसने महान पुरुष की संगति में प्राप्त किया था.

कोई भी जन्म से या भाषा से छोटा बड़ा नहीं होता है. सत्संगति भी कितने लोगों का जीवन बदल देती है.


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अलविदा, मेरे प्यारे बेटे!

रचनाकार- कपिल सहारे

alvida

बरसात का समय आ गया था पर सूखे दरख़्त पानी की आस में अब भी ऊपर की ओर टकटकी लगाए हुए थे. पूरे चार बरस हो गए थे आख़िरी बारिश आए हुए. कारण स्पष्ट ही था, फैक्ट्रियों और कांक्रीट के महल खड़े करने के लिए जंगल और पहाड़ काटने से वातावरण का संतुलन बिगड़ गया था. अपने रसूखदार होने का दंभ भरते हुए माटी का सीना चीरकर पी गए थे सारा पानी वो कमबख्त, जो अपने आपको सर्वोपरि मान बैठे थे.

“अब कैसी रही? अरे, अब कैसी रही बोलो, जब प्रकृति माँ ने तुम्हें तुम्हारी अदनी सी औकात दिखा दी” एक गाँव के सूने आँगन में खड़ा बूढ़ा पेड़, जो कई सावन देख चुका था, अपना ग़ुस्सा निकालते हुए कह रहा था, मुफ्त में मिला, तो सारा कुछ अपनी बपौती समझ बैठे थे तुम इंसान. अब पानी कहाँ बचा है खुद तुम्हारे लिए, जो तुम हमें पिला दोगे, क्यों? आओ, घटिया सोच वालों, कहाँ भाग गए लालचियों, अपनी-अपनी आलीशान कोठियाँ छोड़कर, पानी की तलाश में?”

“क्या हुआ दादाजी?” पास ही पड़े एक बीज ने आतुर होकर पूछा, जिसकी अभी कोंपल भी नहीं फूट पाई थी.

“लगता है, अब मेरा अंतिम समय आ गया है बेटे” बूढ़ा पेड़ आह भरते हुए बोला, “निर्लज्ज और एहसान-फरामोशों को जरा भी दया नहीं आई थी, बड़ी-बड़ी मशीनों से काट डाला था मेरे अपनों को, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी उन शैतानों के लिए बलिदान कर दी थी. अरे, क्या कुछ नहीं किया था हमने? उन्हें खेलने दिया, झूलने दिया, मीठे-मीठे फल दिए, छाँव दी और तो और इनके आलीशान घरों को सजाने-संवारने तक के लिए हमने अपने आपको कुर्बान कर दिया था.”

“ये बलिदान क्या होता है दादाजी?” नन्हें बीज ने उत्सुकता से पूछा.

“किसी विशेष उद्देश्य के लिए अपने आपको पूरी तरह से समर्पित कर देना ही बलिदान कहलाता है, मेरे बेटे” बूढ़ा पेड़ रूँधे स्वर में समझा रहा था, “हम अपने जन्म से लेकर मरण तक निस्वार्थ भाव से सेवा करते रहते हैं; अपना प्रेम लुटाते हैं. माटी में अपने आप को न्योछावर कर बूढ़े होने तक बलिदान करना ही तो हमारा एकमात्र धर्म है बेटे.”

“और मनुष्यों का धर्म क्या है दादाजी, सिर्फ हमें काटना और अपना मतलब पूरा करना?” भोले बीज ने निराश स्वर में पूछा.

“नहीं बेटे, समय भी एक जैसा नहीं रहता. कभी हमारे पूर्वजों को पूजने और सहेजने वाले मनुष्य भी हुआ करते थे” बूढ़े पेड़ ने अपनी पुरानी यादों पर पड़ी मिट्टी साफ करते हुए बताया, “बहुत पहले की बात हैं, तब मेरी नन्हीं कोंपलें ही फूटी थीं, मैंने देखा कि इस घर के मालिक सहित पूरे गाँव के लोग नए-नए कपड़े पहने, ढ़ोल-नगाड़ों के साथ नाच-गाना कर रहे थे और हमारे आजू-बाजू घूम-घूम कर कुछ रीति-रिवाज कर खुशियाँ बाँट रहे थे. वे लोग बड़े आनंदित थे और हमें अपनी जान से भी ज्यादा चाहते थे, फिर कुछ सालों बाद ऐसा समय भी आया कि पेड़ों-पौधों, जंगलों सहित नदी-तालाब और यहाँ तक कि जमीन को भी कुछ मुट्ठीभर अमीरों को कौड़ियों के दाम बेच दिया गया. फिर उन सूट-बूट वालों ने, न रात देखी न दिन और अपनी पूरी ताकत हमें जड़ से उखाड़कर बड़ी-बड़ी फैक्टरियाँ और आलीशान कालोनियां बनाने में झोंक दी. बेटा, मैंने और मेरे परिवार ने इतना काला धुआँ पिया है कि हम अंदर से बिल्कुल काले और खोखले हो गए हैं. कई बार प्रकृति माँ ने अपना रौद्र रूप भी दिखाया, लेकिन इन जाहिल-गंवारों ने, प्रकृति को पूजने और सहेजने वालों के साथ-साथ हमें भी खत्म कर दिया.”

“दादाजी संभालिए अपने आप को, आप गिर रहे हैं.” बीज ने चिंतित होते हुए कहा, तो बूढ़ा पेड़ नम आँखों से बीज को निहारता हुआ बोला, “मेरे आखिरी शब्द हमेशा याद रखना बेटे, अगर जी पाओ, तो खुब फलना और फूलना. अपने नैसर्गिक धर्म का पालन करते हुए बलिदान की पराकाष्ठा को भी पार कर जाना, लेकिन कभी भी मनुष्य जाति पर विश्वास मत करना और न ही कभी उनपर उपकार करना. तुझे अपना ख्याल खुद ही रखना होगा बेटे, अब कोई नहीं आएगा तुझे सहेजने, तुझे पूजने. अलविदा, मेरे प्यारे बेटे, अलविदा.”


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