लेख
आत्म प्रशंसा एक बीमारी
रचनाकार- सीमा यादव
आत्मप्रशंसा अर्थात् अपनी प्रशंसा स्वयं (आप) ही करना है. इसी को 'अपने ही मुँह मियाँ मिट्ठू बनना' कहा जाता है. यह एक मुहावरा है, जिसे हम आम बोलचाल की भाषा में सहज ही प्रयोग में लाते हैं. आत्मप्रशंसा कोई बुरी बात नहीं है, किन्तु अपने ही गुणों का गुणगान यदि व्यक्ति स्वयं ही करने लग जाता है तो उसकी गरिमा वहीं पर घट जाती है. आपने देखा होगा या गौर किया होगा कि विद्वान महापुरुष कभी भी अपनी प्रशंसा नहीं करते हैं बल्कि अपने सारे अच्छे कर्मों का श्रेय भगवान को या अन्य को दे देते हैं, यही उनकी महानता का प्रथम परिचय भी होता हैं.
ऊँचे या शीर्ष पद पर आरुढ़ व्यक्ति को आपने देखा होगा कि उनके खान-पान, बोल-चाल एवं वेश-भूषा एकदम साधारण होते हैं. उनमें कोई दिखावा नहीं होता है. वे बहुत ही सरल, सहज एवं सादगी से परिपूर्ण होते हैं. ऐसे सरल व्यक्ति ही वास्तव में महामते और महाज्ञानी होते हैं. उनके शब्दों में मिठास होती हैं. वे शांत होते हैं. धीरे से अपनी बातों को सहजतापूर्वक समझाते भी हैं. ऐसे लोग सफलता की चरम सीमा के उस पार हो जाते हैं कि जहाँ कोई भी कार्य उनके लिए असम्भव नहीं होता है. वे जीवन के विभिन्न परिस्थितियों से गुजर चुके होते हैं. इसीलिए उनके स्वभाव में स्थिरता आ जाती है और ऐसे व्यक्ति ही वास्तव में मनुष्यता के वास्तविक स्वरूप को परिभाषित करते हैं अपने नेक और लोकहित के कार्यों के माध्यम से. ये ईश्वर द्वारा भेजे गये परमार्थी और प्रतिनिधि होते हैं, जिनका उद्देश्य ही परमार्थ के कर्मों में जीना होता हैं.
वर्तमान परिवेश की बात करें तो हमारे आस पास ऐसे सैकड़ों व्यक्ति मिल जाएंगे, जो अपने छोटे-छोटे कर्मों को रिकार्ड, फोटोग्राफी, अखबारों एवं मीडिया में बढ़ा -चढ़ाकर प्रेषित करते फिरते हैं. ऐसे लोगों की वाहवाही भी खूब होती है. आजकल लोगों को स्वयं ही बताना पड़ता है कि मैंने फलां ट्रस्ट या संगठन या फिर अनाथालय को इतना दान किया आदि, वगैरह वगैरह. मेरे भाई! ये अच्छी बात है कि आपने अच्छा और अनुकरणीय कार्य किया और समाज के लिए एक सकारात्मक पहल वाले भी है आपके सारे कार्य. लेकिन जरा विचार कीजियेगा और खुद से प्रश्न भी कीजियेगा कि क्या मैं अपनी प्रशंसा करुँगा तभी लोगों को मेरे कर्मों के बारे में पता चलेगा? तब देखिएगा, आपके अंतर से आवाज आएगी कि नहीं, अच्छे कर्मों को बखान करने कि आवश्यकता नहीं पड़ती है. बल्कि आपका व्यक्तित्व ही आपके कर्मों की पहचान हैं. इसमें तनिक भी संदेह नहीं कीजियेगा. आजकल तो प्रत्येक क्षेत्र में पुरस्कार रख दिया गया है, जो उस पुरस्कार को पाने की योग्यता रखता है उसे खुद ही आवेदन करना पड़ता है. इसके लिए विशाल मात्रा में लोगों के मध्य अंधाधुंध होड़-सी लगी होती हैं. यही सबसे दुःखद और बड़ी विडंबना है. मुझको बहुत ही कष्ट होता है जब लोगों को खुद ही अपने बारे में बताना पड़ जाता है कि मैं अमुक अधिकारी हूँ. मैंने ऐसा किया, वैसा किया इत्यादि. ये सब चीजें व्यर्थ एवं बाह्य आडंबर को बढ़ावा देने का एक मात्र तरीका है और इसके अलावा कुछ भी नहीं है. आत्मप्रशंसा के भूखे लोग बड़े ही स्वार्थी, चापलूसी और ईर्ष्यालु होते हैं. वे अपने समकक्षी मित्रों के साथ धोखा करने से भी नहीं चूकते हैं. हमेशा दूसरों को नीचा दिखाने के प्रयास में लगे होते हैं. इस तरह से ऐसे लोग खुद के ही शत्रु बन जाते हैं. दूसरों की नजरों से तो गिरते ही हैं स्वयं की दृष्टि से भी गिर जाते हैं. जब उन्हें अपनी भूल या गलती का एहसास होता है तब तक बहुत देरी हो चुकी होती है.
अतः भलाई इसी में है कि लोगों को आत्मप्रशंसा नामक बीमारी से बचे रहने की हर सम्भव कोशिश की जानी चाहिए, क्योंकि हम तो मनुष्य शरीर में कर्म करने के उद्देश्य से ही धरती पर अवतरित हुए हैं. ये हमारा परम एवं सर्वोच्च कर्तव्य है. अच्छा कर्म करना हमारा नैतिक धर्म है. फिर क्यों इतनी अपेक्षा करते हैं. यदि हमारा कर्म उत्तम हैं तो उसका मीठा फल हमें ही प्राप्त होगा और यदि हमारा कर्म नीचा है तो उसका कड़वा फल भी हमको ही चखना पड़ेगा. फिर इतनी आतुरता क्यों? क्या एक पुरस्कार या मेडल ही आपकी योग्यता को सिद्ध करता है? नहीं, बिल्कुल नहीं, अतः स्वयं से ही विचार मंथन कीजियेगा कि हमारा वास्तविक धर्म क्या है? इसी से आपके सारे सवालों का जवाब मिल जायेगा.
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प्राचीन शिव मंदिर
रचनाकार- अलका राठौर
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले का ग्राम गतौरा, बिलासपुर से 15 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है जो पुरातत्विक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है. यह स्थान उन लोगो के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जिन्हें प्राचीन मंदिरों और स्मारकों में भ्रमण करना पसंद है. आइये एक नजर डालते हैं इस पर्यटन स्थल प्राचीन शिव मंदिर गतौरा पर.
गतौरा का यह प्राचीन शिव मंदिर बहुत सुंदर है और छत्तीसगढ़ के अन्य पुरातात्विक मंदिरों की तरह यह मंदिर भी तालाब के किनारे स्थित है यह मंदिर पुरातत्व की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके उत्खनन के समय प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि यह मंदिर कलचुरियों द्वारा बनवाया गया था. तेरहवीं शताब्दी में बने इस मंदिर का संरक्षण भारतीय पुरातत्व विभाग करता है और इस मंदिर को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा एक संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है.
बिलासपुर शहर से यह मंदिर लगभग 17 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यहाँ पहुँचने के लिए गतौरा तक ट्रेन से या सड़क मार्ग से आया जा सकता है. इस मंदिर में शिवरात्रि में काफी चहल पहल होती है और लोग इस प्राचीन मंदिर में शिव जी की पूजा करने आते हैं.
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हमर छत्तीसगढ़ के भोजली तिहार
रचनाकार- कलेश्वर शत्रुहन साहू
छत्तीसगढ़ के लोक संसकिरिती हमर पारम्परिक तिहार भोजली ह कई सौ बछर ले अइसने चलत आत हे. भोजली छत्तीसगढ़ी परम्परा म सावन के महीना सुरु होय के बाद सुरु होथे. गाँव म दाई-बहिनी मन नान-नान टुकरी म गहूँ, चउर अउ जवा के दाना ल बोवाई कर के भोजली जगा के खेती-किसानी अउ परकीरति के हरियाली होवय कई के बिनती करथे. हमर संसकिरिती म भाई-बहिनी के मया, सुग्घर तिहार रक्षाबंधन के दुसरइया दिन भोजली के तिहार ल सब्बो जगह मनाथे. ये तिहार ल हमरो नानकुन गाँव लोहदा घलो म मनाय के परंपरा हे. ओही दुसरइया दिन भोजली दाई ल बिदा करे बर नदिया-तरिया म भोजली घाट तक भोजली ल मुड़ी म बोह के लइका-सियान मन सुग्घर भोजली गीत गा के भोजली दाई ल बिदाई देथे. हमर गाँव लोहदा म टेसुवा नदिया के तीर भोजली घाट (बाड़ा घाट) हे. इहाँ हमन भोजली दाई ल बिदाई देथन. भोजली घाट (बाड़ा घाट) कना परकीरीति ल देख के मनखे मन के संगे-संग भोजली दाई के मन घलो ह मगन हो जाथे.
हमर गवई गाँव म बड़-धुमधाम ले भोजली तिहार ल रंगझांझर ले महोत्सव के जइसे मनाथे. भोजली दाई के बिदा के बाद हमर छत्तीसगढ़ म मितान बदे के सुग्घर परम्परा हे. मनखे मन अपन पसंद के मनखे संग जिनगीभर संगवारी रहे के परण ले के मितान बदथे अउ एक-दूसर के कान म भोजली, दूबी ल खोचथे. एला कइथे हमर छत्तीसगढ़ के भोजली तिहार. आप जम्मो झन ल जय जोहर.
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हमारे प्रेरणा स्रोत
हमारे 'मिसाइल मेन'
मेरे प्यारे बच्चो!
आज मैं तुम्हें एक नई कहानी सुनाने जा रही हूँ. यह कहानी है एक ऐसे बच्चे की जिसका जन्म गाँव में रहनेवाले एक बहुत साधारण परिवार में हुआ था. यह गाँव था तमिलनाडु का रामेश्वरम. वह बच्चा बचपन से ही आकाश के रहस्यों और पक्षियों के उड़ने में बहुत दिलचस्पी लेता था. वह बड़ा होकर एयर फोर्स पायलट बनना चाहता था. जानते हो, यही बच्चा बड़ा होकर एक दिन बहुत प्रख्यात वैज्ञानिक बना और फिर हमारे देश का राष्ट्रपति भी. अब तुम समझ गए होगे मैं बात कर रही हूँ अब्दुल कलाम साहब की. इनका पूरा नाम था, अबुल पाकिर जैनुलअब्दीन अब्दुल कलाम.
तुम शायद सोच रहे होगे कि एक छोटे से कस्बे में रहने वाला यह बच्चा वैज्ञानिक कैसे बना और बाद में देश का राष्ट्रपति भी ? बच्चो! यह असंभव नहीं है. यदि सच्ची लगन से निरंतर परिश्रम किया जाए तो कोई भी इंसान कुछ भी हासिल कर सकता है.
कोई भी माने कोई भी, 'तुम भी.'
एक बहुत अच्छी बात कही गई है-
'सपने वह नहीं होते जो रात को सोने पर आते हैं;
सपने वह होते हैं जो रात को सोने नहीं देते.'
कलाम साहब का कहना था कि जब आप किसी चीज को शिद्दत याने पूरे मन से चाहते हैं तो पूरी कायनात याने सृष्टि उसे मिलाने में आपकी मदद करती है.
उनके माता-पिता ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे.उनके घर की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी. पर वह खुद घंटों पढ़ाई किया करते थे. उनके एक दोस्त जो बाद में चलकर उनके उनके बहनोई बने, ने उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया. वह रोज उन्हें विज्ञान व मेडिकल साइंस में हो रहे नए प्रयोगों की जानकारी देते. जिस कारण वह छोटे गाँव में रहते हुए भी बाहर हो रहे नए शोधों से अनजान नहीं थे. वह बड़े होकर देश के लिए कुछ करना चाहते थे. उनके शिक्षक भी उन्हें बार-बार प्रोत्साहित करते कि कैसे कम पढ़े लिखे मां-बाप के बच्चे भी जीवन में सबकुछ कर सकते हैं.
यह उन दिनों की बात है जब दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हुआ था. हर कोई स्वतंत्रता का इंतजार कर रहा था.तभी उन्हें भी लगा कि इन स्वतंत्रता सेनानियों की तरह मुझे भी अपने देश के लिए कुछ करना होगा.उसके लिए मुझे एक अच्छे स्कूल में पढ़ना होगा. परंतु वह जानते थे कि मेरे माता-पिता फीस का खर्चा नहीं उठा पाएँगे. पर उनकी लगन देखकर उनके अब्बा एक दिन पास आकर बोले कि तुम जहाँ चाहते हो वहाँ पढ़ो. हम तुम्हारी फीस का इंतजाम करेंगे. उन्होंने बताया कि वह रामेश्वरम के एक अँग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ना चाहते हैं. उनके बड़े भाई पहले दिन स्कूल ले गए और एडमिशन की औपचारिकताएँ पूरी की.
एक दिन वह जल्दी में दूसरी कक्षा में चले गए.जहाँ गणित के शिक्षक पढ़ा रहे थे. उन्होंने उन्हें इस गलती पर खूब डाँटा. सबके सामने छड़ी से मारना शुरू कर दिया. वह बहुत उदास थे. उन्हें घर की याद आ रही थी. वह वापस घर आना चाहते थे. फिर उन्हें याद आया कि मेरे माता-पिता ने इस स्कूल में भेजने के लिए बड़ी कड़ी मेहनत की है. मुझे उनके सपने पूरे करने ही होंगे. उन्होंने कड़ी मेहनत की और गणित में सौ में सौ नंबर ले आए. स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे मद्रास चले गए जहाँ उन्होंने एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की.
यह लगभग सत्तर साल पहले की बात है. उस समय लोग धर्म को लेकर बहुत कट्टर हुआ करते थे. उनके स्कूल में एक विज्ञान के टीचर शिवा सुब्रमण्यम थे. वे बहुत उदार प्रकृति के सुलझे हुए व्यक्ति थे. वे लोगों को एक दूसरे से मिलकर रहने की बात करते थे. उन्होंने एक बार अब्दुल कलाम से पूछा कि क्या वह उनके घर खाना खाने चलेंगे. कलाम बहुत खुश हुए. वह जब उनके घर गए तो गुरुजी की पत्नी ने उन्हें भोजन नहीं परोसा. तब उनके गुरुजी ने स्वयं अपने हाथों से उन्हें खाना परोसा. गुरुजी ने चलते हुए कहा, घबराओ मत. समाज में परिवर्तन कभी-ना-कभी तो आएगा. उनकी बातें उनके लिए प्रेरणा बनीं और उन्होंने जीवन में चुनौतियों का सामना करना सीखा.
वर्ष 1969 में उन्होंने भारतीय अनुसंधान संगठन इसरो में काम किया. उन्हीं के मार्गदर्शन में पृथ्वी का कृत्रिम उपग्रह रोहिणी पृथ्वी की कक्षा में वर्ष 1980 में स्थापित किया गया. उन्होंने भारत के लिए पृथ्वी, त्रिशूल,आकाश, नाग,ब्रह्मोस आदि कई मिसाइलें बनाईं. इसलिए उन्हें भारत का मिसाइल मैन भी कहा जाता है. वर्ष 1992 से लेकर 1999 तक डॉ. कलाम रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन डीआरडीओ के सचिव भी रहे. 25 जुलाई 2002 को डॉ. कलाम ने भारत के ग्यारहवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लिया.
एक बार स्कूल में वह अतिथि बनकर गए. एक बच्चे ने पूछा, जीवन में सफलता कैसे मिलती है? तो उन्होंने कहा कि उसके लिए चार बातों को याद रखना बहुत जरूरी है. पहला बड़ा लक्ष्य,दूसरा अनवरत ज्ञान प्राप्त करते रहना, तीसरा कठिन परिश्रम और चौथा यह विश्वास रखना कि मैं सीखता रहूँगा और एक दिन अपने लक्ष्य को पा लूँगा.
उन्होंने अपनी पुस्तक 'इंडिया 2020, ए विज़न फॉर द न्यू मिलेनियम' में लिखा है कि वह भारत को वर्ष 2020 तक एक विकसित देश और नॉलेज सुपर पावर बनाना चाहता हूँ. वे एक प्रख्यात वैज्ञानिक, प्रशासक, शिक्षाविद और लेखक के तौर पर हमेशा याद किए जाएँगे और आने वाली कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेंगे.
बच्चो! मुझे आशा है कि कभी तुम्हारे मन में भी जीवन में कुछ विशेष बनने की इच्छा जागेगी और तुम उसे पूरा करने के लिए आगे बढ़ोगे.
तुम्हारी दीदी.
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समाधान
रचनाकार- किशन भावनानी
भारतीय सभ्यता में संस्कार, आज्ञाकारिता और मान सम्मान का महत्वपूर्ण स्थान है. भारत की मिट्टी में अनेक मानवीय गुण समाए हैं जो हर नागरिक की काया में जन्म से ही समाहित होते हैं. भारतीयता की यह पहचान रही है कि किसी भी समस्या को उग्रता, गुस्से या उद्दंडता से नहीं बल्कि संवाद के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया जाए. भारत की यह विशेषता विश्व प्रसिद्ध है और इस भारतीय मंत्र के कारण भारत की पहचान एक शांतिप्रिय देश के रूप में प्रसिद्ध है.
साथियों बात अगर हम समस्याओं के कारण होने वाली चिंता की करें तो, बड़े बुजुर्ग कहते हैं चिंता चिता के समान है. यदि मानसिक रोग से बचना है तो किसी भी समस्या पर सोचने के बजाय उसका हल तलाशें. पूरी नींद से दिमाग को आराम मिलेगा नहीं तो मानसिक रोगों की समस्या उत्पन्न होगी.
मानसिक रोग चिकित्सकों इस बात पर जोर देते हैं कि लोग किसी भी समस्या के बारे में लगातार न सोचें. लगातार सोचने की आदत मृत्यु के मुँह तक ले जा सकती है. हर एक मिनट का हिसाब रखती, भागदौड़ भरी आज की जीवनशैली में सबसे बड़ी और उभरती हुई समस्या है मानसिक तनाव. हर किसी के जीवन में मानसिक तनाव स्थाई रूप से अपने पैर पसार चुका है. तनाव व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है. इसके प्रति जागरूक होने के साथ तनाव को दूर करना होगा.
साथियों तनाव से मिलेंगी बीमारियाँ. तनाव आपको सिरदर्द, माइग्रेन उच्च या निम्न रक्तचाप, हृदय से जुड़ी समस्याओं का शिकार बनाता है. हृदयाघात का प्रमुख कारण मानसिक तनाव है. यह आपका स्वभाव चिड़चिड़ा करने के साथ आपकी मुस्कान को चुरा लेता है. इससे बचने के लिए तनाव पैदा करने वाले हर एक अनावश्यक कारण को जीवन से दूर करना जरूरी है.
साथियों अगर हम समस्याओं के समाधान की बात करें, तो समस्याओं का सही तरीके और कुशलता से समाधान करें, प्रायःअंतरवैयक्तिक कौशल का मतलब छोटी या बड़ी समस्या का आप पर होने वाला प्रभाव एवं उस समस्या के समाधान से ज्यादा आपका उस समस्या के प्रति आपका अपना व्यवहार प्रदर्शन होता है कि आप कैसे उसका समाधान ढूँढ़ते हैं. इसलिए ऐसी परिस्थिति में शांतचित्त होकर समस्या के समाधान के लिए प्रभावी कदम उठाने की क्षमता ही आपके अंतर वैयक्तिक कौशल का विकास करेगा. यह आपकी समस्या का समाधान करेगा तथा संवाद को टूटने से बचाएगा. संवाद टूटने से समस्याएँ बढ़ती हैं. शांतचित्त रहना भी आपकी मदद करता है, क्योंकि जब आप तनाव में होते हैं तो सही संवाद स्थापित नहीं हो पाता है.
अगर हम समस्याओं की बात करें तो, आधुनिकता के इस दौर में हम सभी एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगे हुए हैं. कैसे सबसे आगे निकला जाए, यही सोच-सोचकर हम खुद को बीमार बना रहे हैं घर- परिवार, नौकरी या किसी भी विषय पर जरूरत से ज्यादा सोचना सेहत के लिए नुकसानदेह है. यह हर व्यक्ति के जीवन में किसी न किसी रूप में आता है और मानवीय स्वभाव से वशीभूत होकर कई मनुष्य नकारात्मकता के घेरे में चले जाते हैं. अगर इसे हम आध्यात्मिक भाषा में कहें तो काल हमेशा मनुष्य को भटकाने के लिए तत्पर रहता है, परंतु यह मनुष्य पर निर्भर है कि वह सचेत होकर काल से बच जाए. अर्थात समस्या से मुकाबला कर उसके समाधान के बारे में सोच कर हल का रास्ता निकालना ही भारतीयता का परिचय है जो हमारी मिट्टी में समाया है, इसका मूल आधार है संवाद. समस्या के समाधान के लिए सुलह, शांति और बातचीत ही एकमात्र विकल्प है.
साथियों बात अगर हम संवाद की करें तो संवाद से ही हर समस्या का समाधान निकलता है. हमने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी देखा है कि कई बड़े-बड़े मसले और परेशानियाँ संवाद के आधार पर ही सुलझाई गई हैं और आज भी संवाद का यह मंत्र काफी कारगर सिद्ध हो रहा है. समस्याओं को पटखनी देने में सफल सिद्ध होता है. परंतु संवाद की भी अपनी सीमाएँ होती हैं, कठिन हालात मैं संवाद पर सावधानी से काबू पाएँ. संवाद के दौरान कठिन परिस्थितयों में आपको अपनी भावनाओं पर काबू पाने की क्षमता होनी चाहिए तथा दूसरों की भावनाओं का भी ख्याल रखना चाहिए. हमें लोगों की भावनाओँ के बारे में पूर्वानुमान लगाना चाहिए, जब आप मुश्किल हालात पर बात कर रहे हों. यदि आवश्यक हो तो हमे लोगों को समझने के लिए समय देना चाहिए ताकि वे भी अपनी भावनाओं पर काबू पा सकें. प्रायः किसी भी प्रकार के परिवर्तन की स्थिति में संवाद स्थापित करना मुश्किल होता है. अतः उन परिवर्तनकारी परिस्थितियों को समझना आवश्यक है न कि तुरन्त नकारात्मक प्रतिक्रिया जता देना. क्योंकि इससे सामान्य ढंग से काम करना मुश्किल होता है. परिवर्तन अपने साथ नए अवसर भी लाता है तथा परिवर्तन को टाला नहीं जा सकता. अतः सकारात्मक नजरिया होना तथा ऐसे कठिन हालातों में संवाद स्थापित कर पाना ही मुश्किल परिस्थतियों से पार पाने का सबसे महत्पूर्ण तरीका है.
अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन और विश्लेषण करें तो हम पाएँगे कि समस्या के बारे में सोचने से परेशानी मिलती है तथा समाधान के बारे में सोचने से रास्ते मिलते हैं इसलिए हमें किसी की समस्या के समाधान के लिए सकारात्मक संवाद के विकल्प को ही चुनना चाहिए. क्योंकि यह विकल्प एक मूल्यवान अवसर है. यह सफलता की सीढ़ी का प्रथम पहिया हैं जिसके आधार पर हम सफलता की पूरी सीढ़ी चढ़कर मंजिल तक पहुँच सकते हैं.
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बचपन की यादें
रचनाकार- अनिता चन्द्राकर
बचपन, अपने आप में ही ख़ुशियों से भरा हुआ शब्द. इस संसार में ऐसा कौन होगा जिसे अपना बचपन गुदगुदाता नहीं होगा. खेल, मस्ती, संगी-साथी, मासूमियत, दुनिया के तमाम झंझटों से दूर, प्यार से परिपूर्ण, निश्छल जीवन यहीं तो यादों में रह जाता है. मुझे याद आता है वो गाँव का घर, जिसके चारों तरफ बरामदे और बीच में बड़ा सा आँगन था. बरामदे में लगे लकड़ी के खम्भे के गोल-गोल घूमना तो कभी उस पर झूलना . उस बरामदे से आँगन में कूदना. जैसे वो खेल का मैदान था हमारे लिए. गुड्डे-गुड़ियों की शादी से लेकर अनगिनत खेलों की यादें जुड़ी हैं उस आँगन और बरामदे से. बीचों-बीच बने तुलसी चौरा के चारों ओर घूमना फिर थक कर बैठ जाना. बारिश के दिनों में वही आँगन हमारे किये तालाब बन जाता था . बारिश होने पर नाली को बंद कर देते थे जिससे आँगन पानी से पूरा भर जाता था. फिर हमारी छपाक-छपाक चालू. कागज़ की कश्ती बनाकर उसमें चलाना, अद्भुत ख़ुशी देती थी. कई बार दादू की डाँट भी पड़ी, पर उस समय कहाँ कुछ असर होता था.
याद आती हैं वो गलियाँ, जहाँ हम रेलगाड़ी जैसे भागते थे. धूल मिट्टी से सने हाथ-पाँव के साथ धमाचौकड़ी चलती ही रहती थी . शाम होते तक बिना किसी डर के हम खेलते ही रहते थे. वो बरगद पीपल की छाँव, आम, इमली, बेर, अमरूद का बगीचा, खेतों की फसलें, तालाब, सब कुछ आँखों के सामने आ जाता है . चबूतरे में कहानी सुनने के लिए सारे बच्चों का इकट्ठा होना और देर तक कहानियाँ सुनना. आज तक दिमाग में वो कहानियाँ जीवित है. मंगलवार के दिन बजरंग बली के मंदिर के सामने नारियल के प्रसाद के लिए इंतजार करना. कितना सुखद होता है बचपन, दादा-दादी की गोद में सो जाना और उनका प्यार कौन भूल सकता है. हाट, मेला, त्यौहार, ख़ुशियाँ ही देते थे.
गर्मियों में आँगन में सोना और चाँद तारों की दुनिया में खो जाना. क्या-क्या नहीं तलाश लेते थे हम उन तारों में और उसे गिनना तो इतना मुश्किल था कि गिनते-गिनते सो जाते थे.
और हाँ, दीवाली में नए कपड़े और पटाखें मिलने की ख़ुशी आज के बच्चे क्या जानेंगे. हमें तो दीवाली और गर्मी में ही नए कपड़े मिलते थे और सम्हाल के रखना पड़ता था उसे, विशेष अवसरों और कहीं बाहर आने-जाने के समय पहनने के लिए. गर्मियों में नाना नानी, बुआ के घर जाना, मानों विदेश भ्रमण की ख़ुशियाँ देते थे. चंद शब्दों में अपने बचपन को समेटना आसान नहीं है. आज लिखते-लिखते फिर से मैं अपने बचपन को जी ली. काश आज के बच्चों का बचपन भी इतना ही सुखद हो पाता.
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जन, जल व जंगल
रचनाकार- सीमा यादव
जन अर्थात् जनता! जनता लोगों के एक व्यापक समूह का नाम है. जनता से ही किसी समाज की सभ्यता की पहचान होती हैं. दुनिया के सारे नियम एवं सारी व्यवस्थायें जनता को ध्यान में रखकर ही निर्मित की जाती हैं. जनता जनार्दन कहलाती है. जनता जब संगठित होकर किसी बात का विरोध करना शुरू करती है, तो सारी व्यवस्थाएँ चकनाचूर होकर बिखर जाती हैं. सब कुछ अस्त- व्यस्त हो जाता है. जनता उस शक्ति का नाम है,जिनसे समाज की सारी गतिविधियाँ निर्बाध रूप से निरंतर आगे की ओर बढ़ती हैं. जनता एक बहुत ही शक्तिशाली शक्ति है. जनता किसी भी राष्ट्र की मुख्य कर्णधार होती है.
जल- जल पानी का पर्यायवाची शब्द है. दुनिया की सबसे कीमती चीज जल ही है. किसी भी जीव के जीवन का सम्पूर्ण आधार जल ही होता है. जल के बिना किसी भी जड़- चेतन के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती. वैसे तो हमारा शरीर पाँच तत्वों से निर्मित है- जल, मिट्टी, प्रकाश (अग्नि), आकाश (गगन) और वायु. इन सबके बीच जल तत्व का अपना अलग ही स्थान व महत्व है. जल के संरक्षण हेतु सरकार द्वारा बहुत- सी मुहिम भी चलाई जा रही हैं. क्योंकि धरातल पर पीने योग्य पानी की मात्रा 30 प्रतिशत ही है. जो कि चिंतनीय है. अतः हम सभी को इस बारे में जागरूक होना होगा, तभी भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित भविष्य निर्मित हो सकेगा.
जंगल- जंगल जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि जंगल है तो मंगल है अर्थात् जहाँ भी हरियाली होती है वहाँ पर मंगल ही मंगल होता है. हरियाली समृद्धि का प्रतीक है. जिस प्रकार एक उत्साही मन अपने आस- पास को प्रफुल्लित कर देता है. ठीक उसी प्रकार हरी- भरी घास, नन्हें- नन्हें पौधे एवं लताएँ और वृक्ष हमारी धरती को सुन्दर, मनोहर, आकर्षक बना देते हैं. जंगल से ही समस्त जीव- जंतुओं का अस्तित्व है. जंगल के बिना किसी भी प्राणी के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती. जंगल परोक्ष रूप में साक्षात् शक्ति का ही स्वरूप है. जो कि जड़- चेतन रूप में सारी धरती को आच्छादित किये हुए हैं.
जन, जल एवं जंगल ये तीनों ज से आरम्भ होने वाले शब्द हैं. वैसे तो जन, जर एवं जमीन के बारे में भी बहुत कुछ कहा गया है. इसके लिए एक उक्ति है कि जन, जर एवं जमीन ऐसे कारक हैं, जो भाई को भाई का दुश्मन बना देते हैं. इसीलिए 'ज' अक्षर अपने आप में महत्वपूर्ण है. किन्तु उपयोगिता की दृष्टि से जन, जल एवं जंगल का अपना-अपना अलग ही औचित्य है. इनसे लाभ ही लाभ दृष्टिगोचर होते हैं. कहीं से भी विवाद के कारक नहीं परिलक्षित होते हैं. यही दोनों प्रकार के 'ज' में अंतर एवं विशेषता हैं. अतः हमें इस पर सोचना चाहिए और इस दिशा में और भी सुन्दर, हितकारी निर्णय लेने चाहिए.
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ज्ञान -भक्ति का स्वरूप
रचनाकार- सीमा यादव
ज्ञान एवं भक्ति ये दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. देखने में, सुनने में एवं समझने में वैसे तो दोनों का पर्याय एक जैसे ही समझ में आता है.किन्तु गहराई में जाने पर दोनों में सूक्ष्म अंतर दृष्टिगत होते हैं.ज्ञानी ज्ञान पाकर अपने ज्ञान पर अभिमान कर सकता है, परन्तु एक भक्त भक्ति पाकर कभी भी अभिमानी नहीं हो सकता. यदि किसी भक्त में अभिमान आंशिक मात्र भी परिलक्षित होते हैं तो समझ लीजियेगा कि ये विद्वान, पंडित या ज्ञानी तो हैं किन्तु एक भक्त नहीं है.
भक्त का स्थान ज्ञानियों से भी श्रेयस्कर होता है. उनकी वाणी, उनके विचार, उनके व्यवहार में विनम्रता स्वाभाविक रूप से आ जाती है. ये उनमें निहित उदात्त गुण होते हैं. उनकी कोई भी विशेषता दीखावटी या बनावटी नहीं होती है. ये सारे उत्तम गुण सहज रूप में ही उनमें स्थायी रूप से व्याप्त हो जाते हैं. आजकल के लोगों को ये सारी बातें निरर्थक लग रही होगी कि आज के जमाने में विनम्रता का कोई स्थान नहीं है. विनम्रता दिखाने से लोगों की नजरों में सम्मान कम होने लगता है,इत्यादि बातें या डर उन्हें घेरे रहते हैं और इसीलिए उग्र व्यवहार या पद का रौब दिखाकर अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के प्रति कठोर बर्ताव करते हैं. मानसिक और शारीरिक रूप से भयभीत करके उन्हें प्रताड़ित करते रहते हैं. जो कि कदापि न्यायसंगत नहीं है. बल्कि ऐसा करके वे अपने ज्ञान का दुरूपयोग करते हैं.
ये बात निश्चित ही अच्छी हैं कि आपने कठोर, कड़ी और अनुशासित जीवनचर्या का पालन करके एक सर्वोच्च पद में आसीन हो जाते हैं. किन्तु अपने ज्ञान का दर्प करके लोगों को नीचा दिखाना, उन्हें तिरस्कृत करना कहाँ का नियम है? यदि इस बारे में तनिक भी कोई ज्ञानी अपने व्यवहार पर सोचना शुरू कर दें तो अवश्य ही बहुत कुछ समस्याओं से निदान पाया जा सकेगा. सामान्यतया हम देखते हैं कि लोगों का एक समूह ऐसा भी होता है जो कि सीधे -सादे,सहज - सरल एवं नम्र स्वभाव के लोग होते हैं इनका जरा भी कद्र नहीं करता है. बल्कि उनकी अच्छाई का गलत ढंग से उपयोग करने लगता है. जो कि सर्वथा अनुचित है. यदि आज के भागमभाग दुनिया में कुछेक गुणीजन या बुद्धिजन ही ऐसे निर्मल, निश्छल एवं निष्कपट स्वभाव वाले होते हैं. अतः हमें ऐसे महामने, महामते ज्ञानियों के लिए अत्यंत आदर और सम्मान के भाव रखे जाने चाहिए. क्योंकि ऐसा करने से हम निश्चित ही प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से भगवान की भक्ति कर रहे होते हैं. भक्त को सम्मान या आदर देना अर्थात् भगवान की भक्ति को सम्मान देने जैसा होता है. अतः हमें यह बात समझ लेनी होगी कि विनम्रता किसी कमजोरी को नहीं दर्शाती है. वरन् यह तो हमारी परिपूर्णता एवं परिपक्वता की पहचान है. किसी का स्वभाव बहुत ही गंभीर होता है.तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उसे कुछ ज्ञान या समझ नहीं हैं. बल्कि ऐसे धीर-वीर-गंभीर स्वभाव वाले व्यक्ति ही क्रांति या परिवर्तन लाते हैं. वे अपनी शक्ति का सही समय एवं सही स्थान पर व्यय करते हैं. अनावश्यक या अनर्गल चीजों से स्वयं को कोसो दूर रखते हैं.
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